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Sunday, 20 November 2011

भविष्य की टीम गढ़ने का समय...!


                 यह समय भारतीय क्रिकेट के लिए उत्तेजना-विहीन सफलता का है. इंग्लैण्ड की सफेद धुलाई के बाद बेस्टइंडीज के खिलाफ शानदार सफलता जारी है. भारत के घरेलू क्रिकेट का भी सीज़न चल रहा है, जिसमे लक्षित खिलाड़ी शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं. यह सब बिना कोई उद्वेलन पैदा किए हो रहा है. न तो बड़े-बड़े वादे हैं , न ही दावे. एक प्रशान्त समुद्र की तरह पूरा परिदृश्य दिख रहा है. उम्मीदों का अत्यधिक दबाव झेलने वाली भारतीय टीम इस समय उन्मुक्त होकर खेल रही है. घरेलू मौसम, मैदान और दर्शकों की मौजूदगी टीम के लिए आसान और रचनात्मक वातावरण पैदा कर रही है.
               यह एक दुर्लभ मौका है. इसमें भरतीय क्रिकेट में कुछ नवाचार किए जाने की पर्याप्त गुंजाइश है और आवश्यकता भी. यह समय भविष्य की भारतीय टीम गढ़ने का है. एक नयी पौध को टीम में रोपा जाना बेहद ज़रूरी है, और उसके लिए सबसे माकूल हालात हैं. पुराने सितारे यद्यपि निरर्थक नहीं हुए हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश अपना सर्वश्रेष्ठ और सबकुछ भारतीय क्रिकेट को दे चुके हैं. सचिन, द्रविड़ और लक्ष्मण के कैरियर का अब आखिरी दौर है.हालांकि फिलहाल ये शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन एक-दो श्रृंखलाओं की असफलता इन्हें संन्यास के फैसले तक पहुंचा सकती है. ज़हीर खान और हरभजन के कैरियर की अनिश्चितताओं की भी अलग-अलग वज़हे हैं.
                जाहिर है कि भारतीय क्रिकेट प्रेमी नहीं चाहेंगे कि अपनी टीम का हश्र भी  ऑस्ट्रेलियाई टीम जैसा हो. याद ही होगा कि ऑस्ट्रेलिया की टीम से जब एक साथ मैक्ग्राथ,वार्न, हेडन,गिलेस्पी,लैंगर आदि खिलाड़ी निकल गये तो वह कितनी सामान्य टीम नज़र आने लगी थी. लगभग दो दशकों की ऑस्ट्रेलियाई बादशाहत इन खिलाड़ियों के जाने के बाद खत्म हो गयी. लगभग तीन साल हो गये, लेकिन ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट अपने उस रुतबे को नहीं बना पा रहा है. यह तब हुआ है जबकि ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट प्रशासन अपनी भविष्य-दृष्टि को लेकर बहुत सजग रहता है, और प्रशंसित होता रहा है. उनके यहां क्रिकेट के साथ विज्ञान जैसा बर्ताव किया  जाता है. हमारे देश जैसी भावुकता उनके यहां क्रिकेट ही नहीं किसी भी खेल में नहीं होती.
                  क्रिकेट की प्रकृति देखें तो पता चलता है कि यह सिर्फ शारीरिक कौशल का खेल नहीं है. इसका एक मनोवैज्ञानिक धरातल भी होता है. यह एक लम्बी अवधि का खेल है.इसीलिए इसमें मनोविज्ञान के लिए ज़गह बनती है. यद्यपि हमारे देश के क्रिकेट प्रशासक अपनी दूरदृष्टि और नियोजन के लिए कभी प्रशंसित नहीं होते , फिर भी एक न्यूनतम समझ की अपेक्षा उनसे करने में कोई हर्ज़ नहीं है. क्रिकेट में जो मनोवैज्ञानिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, उसकी भूमिका योजना-निर्माण में ही अधिक दिखती है. दौरों का निर्धारण, मैदानों का चयन, विपक्षी के मुताबिक खिलाड़ियों  का चयन, बड़ी प्रतियोगिताओँ से पहले खिलाड़ियों का अभ्यास और विश्राम जैसी योजनाओँ को बनाते समय क्रिकेट का मनोवैज्ञानिक पहलू प्रधान हो जाता है. इसमें खिलाड़ियों की भूमिका कम होती है. यद्यपि खेल के दौरान खेल का एक बड़ा हिस्सा खिलाड़ियों के मन में ही खेला जा रहा होता है. पर योजना निर्माण में टीम का थिंक-टैंक ही आगे होता है. थिंक-टैंक में प्रत्यक्षतः कोच,कप्तान और सहायक स्टाफ होता है. लेकिन इसका दायरा बड़ा होता है. परोक्ष रूप से इसमें चयनकर्ता, प्रशासक, कार्यक्रम निर्धारण समिति के सदस्य बड़ी भूमिकाएँ निभाते हैं.
                   अतः यह ज़रूरी है कि क्रिकेट से जुड़े चयनकर्ता और प्रशासक दूरदर्शी, क्रिकेट की समझ रखने वाले और भेदभाव से परे हों. हमारे देश में ये योग्यताएँ पूरी की जाती हैं ,ऐसा कहने पर बात विश्वसनीय नहीं लगेगी. देश की शीर्ष क्रिकेट संस्था BCCI में ज़्यादातर राजनेताओं और व्यापारियों का कब्ज़ा रहा है. ऐसा नहीं है कि लोग अक्षम थे, पर उनके कौशल ने कुछ दूसरी उपलब्धियां दिलायीं. भारतीय क्रिकेट बोर्ड दुनिया का सबसे ज्यादा पैसेवाला और रसूखदार  बोर्ड बन बैठा. इसी बीच भारत ने तीन विश्वस्तरीय खिताब के साथ कुछ और बड़ी प्रतियोगिताएँ जीतीं. लेकिन खेल में उसका एकछत्र दबदबा उस तरह का कभी नहीं बन पाया, जैसा कि एक ज़माने में वेस्टइंडीज का था या हाल के दशकों में ऑस्ट्रेलिया का रहा.
                    क्रिकेट प्रशासन में नेताओं  और व्यापारियों के वर्चस्व के कारण एक तटस्थवाद दिखाई पड़ता है. भारतीय क्रिकेट में जब भी दुर्दिन आयें तो हमारा क्रिकेट बोर्ड इस बात से संतुष्ट दिखा कि उसका राजस्व निरंतर बढ़ रहा है, और उसी के दम पर उसका दबदबा भी विश्व-क्रिकेट पर कायम है.अपने देश के पूर्व महान खिलाड़ियों की उपेक्षा और उनकी सेवाएँ  न लेने की परंपरा भी सर्वविदित है. आप देखिए,हमारे देश के कितने बड़े-बड़े खिलाड़ी खेल छोड़ने के बाद दूसरी संस्थाओं से जुड़ जाते है. बोर्ड से उनके टकराव के किस्से भी उजागर हैं. कभी कभार क्रिकेट बोर्ड ने अगर अपने किसी चहेते को कोई ज़िम्मेदारी दी भी तो उसकी क्षमता हमेशा सवालों के घेरे में रही. इस पक्ष पर क्रिकेट बोर्ड को ध्यान देना चाहिए.
                   भारतीय टीम में इस समय कई बदलावों की संभावनाएँ दिखाई पड़ रही हैं जो प्रासंगिक भी हैं. इन्हें बदवाव कहना भी शायद ठीक नहीं होगा. और उस समय तो कतई नहीं जब टीम सफल हो रही हो. पर यह भी सच्चाई है कि महान भविष्य की रचना के लिए ज़रूरी क़दम, सफलता के आत्मविश्वास के बीच ही उठाये जाते हैं. इसलिए अगर इसे इस तरह कहें कि टीम के पुनर्गठन की ज़रूरत है तो ज़्यादा ठीक रहेगा.
                   ऐसा लग रहा है कि कुछ समय में हम टीम की गेंदबाजी विभाग की शक्ल पूरी तरह बदली हुई पायेंगे. चोटों से परेशान जहीर खान की अगर टीम में वापसी हो पाती है तो उनके इर्द-गिर्द तेज़ गेंदबाजों का एक नया संयोजन तैयार किया जाना चाहिए. वरुण एरोन, उमेश यादव, आर. विनय कुमार और इशान्त शर्मा ने वर्षों बाद भारतीय टीम को स्थायी और पूर्ण आश्वस्ति दी है. इन गेंदबाजों के पास भारतीय परिस्थितियों में भी 140 कि.मी. प्रति घंटे से अधिक की रफ्तार है, जो विदेशी पिचों पर और ख़तरनाक और उत्तेजक साबित होगी. प्रवीण कुमार अपनी मध्यम गति और स्विंग के सहारे परिस्थितियों के मुताबिक उपयोग किये जा सकते हैं. क्रिकेट के व्यस्त कार्यक्रम और चोटों के मद्देनज़र अब भारत के पास भी रोटेशन नीति को अपनाने की सुविधा बन रही है. स्पिन आक्रमण में हरभजन के एकछत्र राज्य को प्रज्ञान ओझा, आर. अश्विन , अमित मिश्रा और राहुल शर्मा ने गंभीर चुनौती दी है. इन नये खिलाड़ियों के पास प्रतिभा भी है और जोश भी. जैसे-जैसे इनका अनुभव बढ़ रहा है, इनकी धार और तेज़ हो रही है. तो यह है भारतीय गेंदबाजी का नया चेहरा--उमेश यादव,वरुण एरोन,आर.अश्विन, प्रज्ञान ओझा और प्रवीण कुमार.
                 बल्लेबाजी में बिना कोई बड़ा फेरबदल किए नये खिलाड़ियों की ज़गह बनायी जा सकती है. विराट कोहली, सुरेश रैना, अजिन्क्य रहाणे और रोहित शर्मा की ज़गह टेस्ट और एकदिवसीय टीम में पक्की करने की ज़रूरत है. ये सभी खिलाड़ी भारतीय टीम का भविष्य हो सकते ैहैं. टेस्ट टीम में सचिन, द्रविण और लक्ष्मण के विकल्प अब खोजे जाने चाहिए. जहां तक सचिन का सवाल है, उन्होने भारतीय टीम को इतना कुछ दिया है कि अब उन्हें कुछ देने की बारी है. यह उन्हीं पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि अब अपने आगे के कैरियर का प्रबंधन वो किस तरह से करते हैं. इन तीनों खिलाड़ियों को बीच-बीच में विश्राम देकर नये खिलाड़ियों को अन्तर्राष्ट्रीय अनुभव देना होगा. एक मैच में किसी एक को विश्राम देकर एक नये खिलाड़ी पर भरोसा जताना ठीक रहेगा. टीम प्रबंधन को युवराज सिंह को सहेजने की ज़रूरत है. युवराज अकूत प्रतिभा वाले खिलाड़ी हैं, लेकिन वो अपने आप को सम्भाल नहीं पा रहे हैं. कप्तान धोनी यद्यपि उन पर भरोसा दिखाते हैं, लेकिन उन्हें दूसरे वरिष्ट खिलाड़ियों और चयनकर्ताओं के सहयोग की भी ज़रूरत है.
                    मेरी वर्षों पुरानी एक इच्छा रही है कि काश हम किसी पाकिस्तानी गेंदबाज को अपना गेंदबाजी कोच बना पाते. अकरम, वक़ार या अब्दुर क़ादिर हो सकें तो क्या बात है.पाकिस्तान की मिट्टी-पानी में कुछ तो है कि वह दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गेंदवाज पैदा करती है, वह भी एकदम दयनीय परिस्थितियों में.
                     तीन साल बाद अगला विशवकप है. इस बीच विभिन्न देशों के खिलाफ़ भारत श्रृंखलाएं खेलेगा. अगला दौरा ऑस्ट्रेलिया का है. अगर इस समय भारतीय टीम एक नया संयोजन बना पाने में सफल रहती है तो विश्वकप तक हर खिलाड़ी के पास कम से कम 90-100 मैचों का अनुभव हो जायेगा. हम भाग्यशाली हैं कि हमारे पास धोनी जैसा कप्तान है. गंभीर, सहवाग,युवराज के साथ मिलकर धोनी एक सौम्य आक्रामकता की रचना करते हैं.यह भारतीय क्रिकेट के लिए सपना देखने और उसे सच करने का समय है.

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