अब आप ही बताइये कि इस बात पर हम शर्म
करें या गर्व कि भारत की शिक्षा प्रणाली, विश्व में तीसरे नम्बर की सबसे बड़ी
शिक्षा-प्रणाली है, और बेरोजगारों को पैदा करने में दुनिया में इसका पहला नम्बर
है.
गरीबों का ही देश सही, पर भारतमें कर्ज़
लेकर जीवन-यापन करने को हमेशा नीची नज़र से देखा गया है. हमारी प्राचीन सुक्तियों
में कर्ज़ को पाप तक की संज्ञा दे दी गई है. फिर भी छोटे-मोटे कर्ज़ लेना-देना तो
बहुत स्वाभाविक दिनचर्या है समाज की. लेकिन शिक्षा के लिए माँ-बाप का कर्ज़दार हो
जाने का चलन इस देश में पिछले कुछ ही वर्षों में शुरू हुआ है. दरअसल यह मज़बूरी का
चलन है. इस देश में शिक्षा की जो नई व्यवस्था चल निकली है, उसने इसे एक बड़े
उद्योग में बदल दिया है. चूँकि शिक्षा अब हमारी बुनियादी ज़रूरत है, इसलिए
मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग बच्चों की शिक्षा के पीछे कर्ज़दार हुआ जा रहा है. ये
वही देश है जहाँ कृष्ण और सुदामा एक साथ और बराबर की शिक्षा ग्रहण करते थे. बीस
साल पहले तक एक भिखारी का भी बच्चा आराम से पढ़ाई कर लेता था.
हमारे देश में शिक्षा को लेकर सरकारी स्तर पर एक आत्मघाती किस्म का ठंडापन तो अभिभावकों में दुविधा, इधर के वर्षों में रही है. हमारी अदूरदर्शी नीतियों का ही ये नतीज़ा है कि आज यह चिन्ता की बात बन गई है कि अब इस देश में योग्य वैज्ञानिक, विषय-विशेषज्ञ और कलाकार नही मिल पा रहे हैं. स्कूली शिक्षा बच्चों को व्यावहारिक रूप से अपाहिज बना रही है. विभ्रम के शिकार हमारे शिक्षा मंत्रियों को सरकारी और निज़ी विद्यालयों के बीच की चौड़ी खाई दिखाई नहीं पड़ती. उच्चशिक्षा के लिए माँ-बाप को बैंकों से कर्ज़ लेना पड़ रहा है. जिनकी हिम्मत नहीं पड़ती, उनके योग्य वच्चे भी उपयुक्त शिक्षा से महरूम रह जाते हैं. जिन IIM’s और IIT’s पर सारा ध्यान केन्द्रित है सरकार का, वहाँ तक कितने बच्चों की पहुँच है ?
हमारे देश में शिक्षा को लेकर सरकारी स्तर पर एक आत्मघाती किस्म का ठंडापन तो अभिभावकों में दुविधा, इधर के वर्षों में रही है. हमारी अदूरदर्शी नीतियों का ही ये नतीज़ा है कि आज यह चिन्ता की बात बन गई है कि अब इस देश में योग्य वैज्ञानिक, विषय-विशेषज्ञ और कलाकार नही मिल पा रहे हैं. स्कूली शिक्षा बच्चों को व्यावहारिक रूप से अपाहिज बना रही है. विभ्रम के शिकार हमारे शिक्षा मंत्रियों को सरकारी और निज़ी विद्यालयों के बीच की चौड़ी खाई दिखाई नहीं पड़ती. उच्चशिक्षा के लिए माँ-बाप को बैंकों से कर्ज़ लेना पड़ रहा है. जिनकी हिम्मत नहीं पड़ती, उनके योग्य वच्चे भी उपयुक्त शिक्षा से महरूम रह जाते हैं. जिन IIM’s और IIT’s पर सारा ध्यान केन्द्रित है सरकार का, वहाँ तक कितने बच्चों की पहुँच है ?
आज़ादी के बाद देश की शिक्षा-प्रणाली पर
खूब माथा-पच्ची की गई और निष्कर्ष भी आदर्शवादी निकले. योजनाएँ भी लुभावनी बनीं.
लेकिन स्थितियां बिगड़ती गईं. दुनिया को दिखाने और रिझाने के लिए अनिवार्य शिक्षा
के लिए अधिनियम बना दिया गया, लेकिन यह नहीं बताया गया कि दुनिया के विकसित और
विकासशील देशों के मुकाबले बहुत कम राशि हमारे यहाँ शिक्षा पर खर्च की जाती है.
माँ-बाप को कर्ज़दार और बच्चों को निरर्थक बनाने वाली इस शिक्षा-प्रणाली के विकास
को समझने की कोशिश की जानी चाहिए.
“………इतने सालों की पढ़ाई
मेरे लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाई. माँ-बाप और इस दुनिया पर बोझ बन गया
हूँ. आखिर सहने की भी एक हद होती है. बस अब नहीं.........”
यह स्युसाइड नोट था एम.ए. , एल.एल.बी. पास और
विगत छः वर्षों से आइ.ए.एस. की तैयारी कर रहे इलाहाबाद के मेधावी छात्र आशुतोष
पाण्डेय का. दुर्भाग्य से यह इस तरह की पहली घटना नहीं है. दिल्ली और इलाहाबाद में
न जाने कितने मेधावी छात्र आठ-आठ सालों से एक ही कमरे में बन्द एक अदद नौकरी के
लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर चुके हैं.
उनमें से अधिकांश अपना मानसिक संतुलन खोकर अपने जनपदों में वापस आ जाते हैं. सवाल
यह पैदा होता है कि हमारी शिक्षा-प्रणाली ने हमें किस मुकाम पर पहुँचाया है ? अगर आशुतोष पाण्डेय की तरह आत्महत्या
वाला मुकाम ही इसका हासिल है तो ऐसी शिक्षानीति के निर्धारकों को भारतीय दण्ड
संहिता के अनुरूप दण्ड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए ?लेकिन
दण्ड देगा कौन ? क्या हम उस बिल्ली
से न्याय की अपेक्षा करें जिसके जिम्मे चूहों के लिए उचित कानून बनाने का काम है ?
यह भी हमारी स्वतंत्रता और इच्छाशक्ति
की पोल खोलता है कि आज़ादी के चौसठ साल गुजार लेने के बाद भी हमारे सिर से मैकाले
का भूत नहीं उतर पाया है.मैकाले महोदय भारतीय भाषाओं, साहित्य एवं कला को ‘ गँवारू’ मानते
थे तथा वे भारत को उस ज्ञान से परिचित कराना चाहते थे जिसे ‘विश्व की सर्वाधिक बुद्धिमान
जाति(अँग्रेज) ने रचा है’. उनके
अनुसार सम्पूर्ण प्राच्य ज्ञान-भंडार, यूरोप के किसी पुस्तकालय की एक आलमारी में
रखे ज्ञान से भी कम है. वे भारत की समस्त देशी शैक्षणिक संस्थाओं को बंद कर, पूरी
शिक्षा अँग्रेजी भाषा के माध्यम से, यूरोपीय साहित्य, कला एवं विज्ञान की देना
चाहते थे. दरअसल उन दिनों मैकाले सहित अन्य अँग्रेज (वुड, शैडलर, हण्टर), अँग्रेजी
शिक्षा के माध्यम से एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते थे भारतीयों का जो अँग्रेजों का
समर्थन करें. मैकाले कहता था---“
हमें इस समय एक ऐसे वर्घ को उत्पन्न करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए, जो हमारे और
उन लाखों लोगों के बीच दुभाषिया बन सके जिन पर हम शासन करते हैं.” कहा गया कि सरकार को उच्च वर्ग को
शिक्षा देनी चाहिए, जिससे शिक्षा छन-छन कर जनता तक पहुँचे. उन दिनों यह सिद्धान्त ‘ अधोमुखी निस्यंदन’ के नाम से मशहूर हुआ था. उच्च वर्ग से
छन-छन कर कैसी शिक्षा निम्न वर्ग तक आई ,
हम सब देख ही रहे हैं. हाँ, उन दिनों मैकाले अपनी नीति में सफल हो गया था.हमारे
देश में अँग्रेजों के कई भारतीय पिट्ठू तैयार हो गये हैं.
मैकाले की शिक्षानीति 1835 में आई थी. भारत में हर साल अप्रैल से जुलाई के महीनों में मैकाले का भूत दिखता है. अँग्रेजी स्कूलों में दाखिले के लिए भारतीय जनता का मध्यमवर्गीय प्रलाप तथा देशी हिन्दी विद्यालयो के छात्रों के हीनभावना से ग्रसित सामूहिक विलाप से ये महीने आक्रांत रहते हैं.सारे अभिभावक और नेतागण ‘एडमिशन’ की राष्ट्रीय समस्या से जूझ रहे होते हैं. भारतीय मध्यमवर्ग की अँग्रेजी स्कूलों के प्रति ललक और हताशा देखते उन्हें अत्यन्त दयनीय दशा में पहुँचा देती है. अँग्रेजी शिक्षा की प्रासंगिकता पर मैं यहाँ फिलहाल बहस नहीं करना चाहता, लेकिन इतना ज़रूर मानता हूँ कि कोई भी बाहरी भाषा अपनी मातृभाषा से ज्यादा ज़रूरी, उपयोगी और प्रासंगिक नहीं हो सकती.
फिलहाल ज़ेर-ए-ज़हन जो बात है वह यह कि आखिर क्यों 1835 से चली आ रही शिक्षा-प्रणाली की मूल भावना ही आज भी बनी हुई है, जबकि इतने सालों में दुनिया का मिज़ाज़ कहाँ से कहाँ पहुँच गया है. गुलामी के दिनों की विवशता को स्वीकार कर भी लें, लेकिन आज़ाद भारत में उसी उपनिवेशवादी शिक्षा पद्धति को किस तर्क से स्वीकार करें. कहीं ऐसा तो नहीं कि आज़ाद भारत के शासन की बागडोर, अँग्रेजों द्वारा तैयार किए गये अँग्रेजी परस्त लोगों के वंशजों के हाथ में रहने के कारण इस परंपरा का पोषण होता रहा ? क्या आज के भारत की अँग्रेजी शिक्षण संस्थाएँ, मैकाले द्वारा कल्पित उसी अभिजात्य वर्ग को तैयार नहीं कर रही हैं, जो पब्लिक स्कूल के बच्चों-भारतीय संस्कृति और साहित्य को घृणा करते हैं ??
मैकाले की शिक्षानीति 1835 में आई थी. भारत में हर साल अप्रैल से जुलाई के महीनों में मैकाले का भूत दिखता है. अँग्रेजी स्कूलों में दाखिले के लिए भारतीय जनता का मध्यमवर्गीय प्रलाप तथा देशी हिन्दी विद्यालयो के छात्रों के हीनभावना से ग्रसित सामूहिक विलाप से ये महीने आक्रांत रहते हैं.सारे अभिभावक और नेतागण ‘एडमिशन’ की राष्ट्रीय समस्या से जूझ रहे होते हैं. भारतीय मध्यमवर्ग की अँग्रेजी स्कूलों के प्रति ललक और हताशा देखते उन्हें अत्यन्त दयनीय दशा में पहुँचा देती है. अँग्रेजी शिक्षा की प्रासंगिकता पर मैं यहाँ फिलहाल बहस नहीं करना चाहता, लेकिन इतना ज़रूर मानता हूँ कि कोई भी बाहरी भाषा अपनी मातृभाषा से ज्यादा ज़रूरी, उपयोगी और प्रासंगिक नहीं हो सकती.
फिलहाल ज़ेर-ए-ज़हन जो बात है वह यह कि आखिर क्यों 1835 से चली आ रही शिक्षा-प्रणाली की मूल भावना ही आज भी बनी हुई है, जबकि इतने सालों में दुनिया का मिज़ाज़ कहाँ से कहाँ पहुँच गया है. गुलामी के दिनों की विवशता को स्वीकार कर भी लें, लेकिन आज़ाद भारत में उसी उपनिवेशवादी शिक्षा पद्धति को किस तर्क से स्वीकार करें. कहीं ऐसा तो नहीं कि आज़ाद भारत के शासन की बागडोर, अँग्रेजों द्वारा तैयार किए गये अँग्रेजी परस्त लोगों के वंशजों के हाथ में रहने के कारण इस परंपरा का पोषण होता रहा ? क्या आज के भारत की अँग्रेजी शिक्षण संस्थाएँ, मैकाले द्वारा कल्पित उसी अभिजात्य वर्ग को तैयार नहीं कर रही हैं, जो पब्लिक स्कूल के बच्चों-भारतीय संस्कृति और साहित्य को घृणा करते हैं ??
1 comment:
Hi ggreat reading your post
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