मैं आकाशगंगा से
टूटता हुआ एक नक्षत्र
जिसे अपनी कक्षा में स्थापित किया
तुमहारे गुरुत्वाकर्षण ने ।
यह तुम थीं
जिसने पहली बार
पंच तत्त्व की देह
हवि की थी
और मैं प्रज्ज्वलित हुआ था
अपने अधिकतम विस्तार में
तुम्हारी मनोकामनाओं से अनजान ।
मेरी लालिमा डूब रही थी
पश्चिम में
तुमने मुझे उदित किया
अपने पूर्वांचल में ।
तुम्हें रचना था एक राग
और मैं
इस राग का संवादी स्वर था,
अपने अकेलेपन के
अधिकतम आरोह में ।
तुम एक आक्रामक भाषा से
निर्वासित शब्द
और मैं
एक लुप्त होती भाषा का
सबसे निरीह उपसर्ग ।
तुम्हारी आदिम आकांक्षाओं में
मैं एक अजेय योद्धा
इस छली समय का
युद्धबन्दी हूँ ।
-------------------------------विमलेन्दु
5 comments:
बेहतरीन
bahut accha likha ........vimlendu
तुम्हारी आदिम आकांक्षाओं में
मैं एक अजेय योद्धा
इस छली समय का
युद्धबन्दी हूँ ।
तुमने मुझे उदित किया अपने पूर्वांचल में ...
शब्दों की कारीगरी ने मुग्ध किया !
mantra mugdh karne layak..
bahut behtareen..!!
सुन्दर अर्थपूर्ण रचना
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