Pages

Wednesday, 26 September 2012

संवादी स्वर




मैं आकाशगंगा से
टूटता हुआ एक नक्षत्र
जिसे अपनी कक्षा में स्थापित किया
तुमहारे गुरुत्वाकर्षण ने ।

यह तुम थीं
जिसने पहली बार
पंच तत्त्व की देह
हवि की थी
और मैं प्रज्ज्वलित हुआ था
अपने अधिकतम विस्तार में
तुम्हारी मनोकामनाओं से अनजान ।

मेरी लालिमा डूब रही थी
पश्चिम में
तुमने मुझे उदित किया
अपने पूर्वांचल में ।

तुम्हें रचना था एक राग
और मैं
इस राग का संवादी स्वर  था,
अपने अकेलेपन के
अधिकतम आरोह में ।

तुम एक आक्रामक भाषा से
निर्वासित शब्द
और मैं
एक लुप्त होती भाषा का
सबसे निरीह उपसर्ग ।

तुम्हारी आदिम आकांक्षाओं में
मैं एक अजेय योद्धा
इस छली समय का
युद्धबन्दी हूँ ।

-------------------------------विमलेन्दु

5 comments:

vandana gupta said...

बेहतरीन

Sudha Singh said...

bahut accha likha ........vimlendu

वाणी गीत said...

तुम्हारी आदिम आकांक्षाओं में
मैं एक अजेय योद्धा
इस छली समय का
युद्धबन्दी हूँ ।

तुमने मुझे उदित किया अपने पूर्वांचल में ...
शब्दों की कारीगरी ने मुग्ध किया !

मुकेश कुमार सिन्हा said...

mantra mugdh karne layak..
bahut behtareen..!!

Onkar said...

सुन्दर अर्थपूर्ण रचना