आचार्य
मृत्यु है ।
आचार्य वरुण
है ।
आचार्य सोम
अथवा चन्द्रमा है ।
आचार्य औषधि
है ।
आचार्य पय है
।........( अथर्ववेद )
हमारे मिथक साहित्य और प्राचीन-मध्यकालीन साहित्य में गुरु की महिमा का
निर्द्वन्द्व बखान है.
जब भी गुरु
की बात होती है, तो मुझे गुप्ता जी का ध्यान होता है........मेरे प्राथमिक
विद्यालय के शिक्षक. उन्होने कभी मुझे पढ़ाया नहीं....बस अपने पास बैठा लेते थे.
एक कस्बे के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे. तब एक कक्षा का एक ही शिक्षक होता
था. गुप्ता जी कक्षा 5 के शिक्षक थे. मुझ पर उनका कुछ ऐसा स्नेह था कि मैं किसी भी
कक्षा में रहा हूँ, बैठता कक्षा 5 में गुप्ता जी के पास था.
गुप्ता जी ने
जो पहली चीज़ मुझे दी, वह थी---पान की तलब ! वो पान के बड़े शौकीन. हर आधे घंटे में
पान का एक बीड़ा मुँह में दबा लेते. फिर ऐसी खुशबू फैलती कि मेरे मुँह में गुदगुदी
होने लगती. शायद इसी गुदगुदी के चलते मेरी दोस्ती एक पान वाले से बड़ी गहरी हो गई
थी. लेकिन गुप्ता जी ने सिर्फ पान की ही तलब नहीं दी.....उनका दिया हुआ सब कुछ आज
भी मेरे भीतर विकसित होता है. उन्होने मुझे गाने की तलब दी, कविता की तलब दी.
रामचरित मानस को मेरे भीतर रोपा. उन्होने ही बताया कि स्लेट पर सुन्दर चित्र भी
बनाए जा सकते हैं.
विद्यालय में
शनिवार को होने वाली बाल-सभा के कर्ता-धर्ता गुप्ता जी ही होते थे. उनका गायन,
कविता-कहानी पाठ, अंत्याक्षरी प्रतियोगिता---बाल-सभा के स्थायी आकर्षण होते थे. उस
सभा में गुप्ता जी मेरे द्रोण होते थे और मैं उनका अर्जुन ! उसी समय मैने पहला गीत लिखा था. यह उस
समय के लोकप्रिय गीत---“ झुलनी
का रंग साँचा, हमार पिया”---की
पैरोडी थी. मानस की चौपाइयों पर आधारित अंत्याक्षरी प्रतियोगिता का, उन्होने मुझे
अजेय योद्धा बना दिया था. दुर्भाग्य से मेरा उनका साथ कक्षा पाँच तक ही रहा. मैं
आज भी जब अपने भीतर कुछ चीज़ों को पाता हूँ, जिनके सहारे राग-विराग, सुख-दुख से
भरा यह जीवन गतिमान है, ---तो इन सबकी जड़ें उन्हीं वर्षों में मिलती हैं, जब मैं
गुप्ता जी के पास बैठता था.....उनकी पोटली से रोटी निकाल कर खा लेता था.......और
जब कभी गुरुदेव अत्यधिक प्रसन्न हों तो एक पान का बीड़ा भी दे देते थे.
हमारी भारतीय
मनीषा में 18 उपनिषद हैं. उपनिषद का अर्थ ही होता है—गुरु के समीप बैठना. साफ है कि हमारे
उपनिषदों में जो ज्ञान का भंडार है, वह प्राचीन आचार्यों से उनके शिष्यों में
स्थानांतरित हुआ था. शिष्यों को आचार्य अपने साथ रखते थे. और जीवन की नानाविधि
परिस्थितियों का सामना करते हुए सीखने-सिखाने की प्रक्रिया पूरी होती रहती थी. इस
प्रसंग में पंचतंत्र का ध्यान सहज ही हो आता है. एक राजा के बिगड़ैल पुत्रों को
शिक्षित करने के लिए राजा को मुनादी करवानी पड़ी थी. अंत में आचार्य विष्णु शर्मा
ने उन्हें पढ़ाने जिम्मा लिया. वे राजपुत्रों को अपने साथ रखते और कहानियाँ
सुनाते. शिष्यों को कभी लगने ही न पाया कि उन्हें पढ़ाया जा रहा है. राजपुत्रों ने
न पढ़ने की जिद कर रखी थी. लेकिन कहानी सुनने में मज़ा आता था. बड़े चुपचाप तरीके
से आचार्य उन्हें जीवन के शऊर सिखाते थे.
किस्से-कहानियों
और गीतों के माध्यम से शिक्षित करने की हमारे यहाँ पुरानी परंपरा रही है. यह उन
समाजों में भी शिक्षण की कारगर विधि थी जो अशिक्षित थे. ज्ञान के हस्तान्तरण की यह
वाचिक परंपरा थी. यह ज़्यादातर क्रियात्मक होती थी. कथा-गीतों के द्वारा श्रम की
साधना की जाती थी. लौकिक जीवन के विभिन्न अनुभवों से गुजरना होता था. अनुभवजन्य
ज्ञान ज़्यादा स्थायी होता था. यह कहा जा सकता है कि शिक्षण की यह विधि अभाव से
उपजी हुई विधि थी. तब संगठित रूप से शिक्षण की व्यवस्था समाज में नहीं थी. औपचारिक
शिक्षा केवल राजपरिवारों तक ही सीमित थी. ऐसी परिस्थिति में सामान्य जनता ने
शिक्षण की यह अपनी वाचिक परंपरा विकसित की.
गुरुओं की
परंपरा को याद करते हुए, द्रोणाचार्य और कौटिल्य (चाणक्य) की विशेष याद आती है.
आचार्य द्रोण का चरित्र हमारे समकालीन आचार्यों के अधिक निकट दिखता है. अपनी सारी
योग्यताओं के बावजूद द्रोण को अपेक्षित सम्मान नहीं मिला था. राजकीय सुविधाएँ
कृपाचार्य को मिली हुई थीं. कृपाचार्य राजकीय विवि के कुलपति रहे होंगे.
द्रोणाचार्य धनुर्विद्या विभाग के विभागाध्यक्ष रहे होंगे. महाभारत में उल्लेख है
कि द्रोण अपने पुत्र अस्वत्थामा को पीने के लिए दूध की व्यवस्था नहीं कर पाते थे
तो आटा घोल कर पिला देते थे. बालक उसे दूध समझ कर बहल जाता था. अब आप अंदाज़ा लगा
सकते हैं कि धृतराष्ट्र के राज में द्रोण की स्थिति कैसी रही होगी. और जब द्रोण की
यह हालत थी तो बाकी आचार्यों की कैसी रही होगी ! यह अस्वाभाविक नहीं था कि आचार्य द्रोण
को राजपुत्रों की खुशामद करनी पड़ती थी. राजपुत्रों से योग्य कोई और निकल जाता तो
शायद राज्य शासन उन्हें नौकरी से निकाल देता. इसीलिए द्रोण को एकलव्य के साथ
अँगूठा मागने की कूटनीति करनी पड़ी थी. कौटिल्य ने अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपने
अपमान का बदला लेने के लिए चन्द्रगुप्त को साधन बनाया. मगध के राजा घननंद को
अपदस्थ करना उनका प्रधान लक्ष्य था. चन्द्रगुप्त में उन्हें वह क्षमता दिखी, जिसका
उपयोग करके वो अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकते थे. यद्यपि कालांतर में
कौटिल्य-चन्द्रगुप्त की युति के कारण ही राजनीतिक अर्थों में एक सशक्त भारत
राष्ट्र का उदय संभव हुआ.
ये दोनो
उदाहरण शिक्षकों की अलग-अलग मनोवृत्तियों को उजागर करते हैं. साफ ज़ाहिर है कि समय
और ज़माना चाहे जो भी रहा हो, आचार्यों के पास भी एक पेट होता था. उसका भरा होना
भी उतना ही ज़रूरी था, जितना किसी और का. मान-अपमान का बोध तब के आचार्यों को भी
था और अब भी है. अच्छे शिक्षक आसमान से न तब उतरते थे न अब टपकते हैं. अच्छे
शिक्षकों को तैयार करना राज्य का धर्म है. उन्हें सम्मान देना और उनके उदर-पोषण की
व्यवस्था करना राज्य का कर्तव्य है. जब राज्य ही शिक्षकों के महत्व को गंभीरता से
नहीं समझेगा तो कैसे नागरिक मिलेंगे देश को—इसका अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है. भारत
देश के नवनिर्माण की पटकथा लिखते समय शिक्षा और शिक्षकों के महत्व को लापरवाही से
रेखांकित किया गया. गाँधी के अवसान के बाद से ही शिक्षा हमारी प्राथमिक चिन्ता
नहीं रह गई थी. लेकिन इधर बीस वर्षों में शिक्षकों की स्थिति जितनी दयनीय हुई है,
वह चिन्ता का विषय है. इधर शिक्षा-व्यवस्था में जो तदर्थवाद शुरू हुआ है, उससे देश
में भविष्य की मेधा पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लग गये हैं.
लगभग बीस साल
पहले म.प्र. में शुरू हुए एक प्रयोग ने पूरे देश के शिक्षकों की नियति को घनघोर
अंधकार में डाल दिया. बीस साल पहले म.प्र. सरकार ने ढाई सौ रुपये तनखाह पर
शिक्षकों की भर्ती शुरू की. इन्हें नाम दिया गया—शिक्षाकर्मी. इन्हें शिक्षा विभाग की
जगह पंचायत विभाग का अस्थायी कर्मचारी बनाया गया. इन्हें नियमित कर्मचारियों की
तरह कोई सुविधा और भत्ते नहीं दिए गये. इनके लिए न तो कोई भविष्यनिधि थी न
पेन्शन-प्लान. बीस साल बाद आज भी इनकी तनखाह महज़ 3500 रुपये है. इसी तनखाह पर काम
करने के लिए इसी वर्ष केवल म.प्र. में 18 लाख युवक-यवतियों ने पात्रता परीक्षा दी.
एक दिन में इतनी बड़ी परीक्षा आयोजित करने का यह गिनीज बुक रिकॉर्ड बन गया. यहाँ
रिकॉर्ड उपलब्धि नहीं है. आप सब समझ रहे होंगे कि इतनी कम तनखाह पर भी अगर इतने
लोग काम करने को तैयार हैं तो देश में बेरोजगारी की स्थिति क्या होगी. ये शिक्षक जिन
स्कूलों में पदस्थ होते हैं, वहाँ के चपरासी की तनखाह इनसे पाँच गुना ज्यादा होती
है. इन शिक्षकों को अपना और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए बाकी समय में कोई और
काम करना पड़ता है. यह केवल म.प्र. की स्थिति नहीं है. बाद में दूसरे प्रदेशों ने
भी इसी नीति का अनुसरण किया. सरकारी स्कूलों में भवन और दूसरी आधारभूत सुविधाओं की
इतनी खराब हालत है कि वहाँ सिर्फ गरीब और आरक्षित समुदाय के बच्चे ही पढ़ने आते
हैं, वो भी सरकार द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्तियों, मध्यान्ह भोजन और दूसरी
सुविधाओं के लोभ में. ज़ाहिर है कि ऐसे में शासकीय विद्यालयों की पढ़ाई का स्तर
खराब ही होगा. सरकार इसका जिम्मेदार शिक्षकों को मानती है, और अनेक गैर-शिक्षकीय
कार्यों में उन्हें लगाकर अपना पैसा वसूल करती है. यह शिक्षकों पर दोहरी मार है.
इन अल्पआय वाले शिक्षकों से हमें किस गुरु-भाव की उम्मीद करनी चाहिए, ज़रा सोच कर
देखिए.
आइये अब
शिक्षको की मौजूदा हालत के बरक्स हम उस गुरु की महिमा को रखकर देखते हैं, जिसका
ज़िक्र अथर्ववेद में बड़ी खूबसूरती से किया गया है...........ऋषि ने कहा---आचार्य
मृत्यु है ! शिष्य को अगर
एक योग्य गुरु मिल गया तो उसके अहंकार, अज्ञान, तामसिक वृत्तियों की उसी क्षण
मृत्यु हो गई.....आचार्य वरुण है !
वरुण जल का देवता है. जल से प्यास बुझती है. गुरु, शिष्य की ज्ञान-पिपासा को तृप्त
करता है. प्यास चाहे कितनी ही बड़ी हो, गुरु के पास अथाह जल है.........आचार्य सोम
अथवा चन्द्रमा है ! शिष्य के समस्त
दैहिक-दैविक-भौतिक तापों का शमन गुरु का वत्सल भाव कर देता है.........आचार्य औषधि
है ! शिष्य को देशकाल से
मिलने वाली सभी दैहिक और मानसिक बीमारियों को आचार्य का स्पर्शमात्र दूर कर देता
है..........और आचार्य पय भी है ! दूध, बल-बुद्धि-वर्धक माना जाता है. एक
शिष्य जब सच्चे गुरु को प्राप्त कर लेता है, तो उसके बल-बुद्धि निरंतर बढ़ते रहते
हैं.
इसी सच्चे गुरु को कबीर सतगुरु कहते हैं. कबीर को सतगुरु मिला काशी में रामानन्द के रूप में. कैसा था कबीर का सतगुरु ?------
इसी सच्चे गुरु को कबीर सतगुरु कहते हैं. कबीर को सतगुरु मिला काशी में रामानन्द के रूप में. कैसा था कबीर का सतगुरु ?------
सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार
।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार ।।
ऐसा गुरु मिल गया था कबीर को. जिसने उन्हें असंख्य आँखें दे दीं. सारी दुविधा, भेद-अभेद खत्म हो गये. और अब वो उसे भी देखने के काबिल हो गये, जो अनन्त था, अनिर्वचनीय था, अदृश्य था, जो सत्य था. जिसे देखना सबके वश की बात नहीं थी. कबीर अब इन आँखों से जीवन-सत्य भी देख रहे थे, और जीवन-पार के सत्य को भी देख पा रहे थे. उन्हें अब वह सब आडम्बर भी दिख रहा था, जिसमें वो खुद अब तक लिप्त थे.
लेकिन गुरु कितना भी योग्य क्यों न हो, हर शिष्य को यह दिव्य ज्ञान नहीं मिल पाता. बड़े भाग वाले होते हैं वो लोग जो गुरु का सम्पूर्ण गुरुत्व ले पाने की पात्रता हासिल कर पाते हैं. इसके लिए कृती भाव होना चाहिए कबीर की तरह. अहंकार-शून्य होना चाहिए, जैसे कृष्ण के सामने अर्जुन हो गये थे. सेवक भाव होना चाहिए, जैसे राम में था विश्वामित्र के लिए. समर्पण चाहिए, जैसे चन्द्रगुप्त में था कौटिल्य के लिए. आस्था चाहिए, जैसी एकलव्य में थी आचार्य द्रोण के लिए.
और तब देखिए, यह भी घटित होगा.
ऐसा गुरु मिल गया था कबीर को. जिसने उन्हें असंख्य आँखें दे दीं. सारी दुविधा, भेद-अभेद खत्म हो गये. और अब वो उसे भी देखने के काबिल हो गये, जो अनन्त था, अनिर्वचनीय था, अदृश्य था, जो सत्य था. जिसे देखना सबके वश की बात नहीं थी. कबीर अब इन आँखों से जीवन-सत्य भी देख रहे थे, और जीवन-पार के सत्य को भी देख पा रहे थे. उन्हें अब वह सब आडम्बर भी दिख रहा था, जिसमें वो खुद अब तक लिप्त थे.
लेकिन गुरु कितना भी योग्य क्यों न हो, हर शिष्य को यह दिव्य ज्ञान नहीं मिल पाता. बड़े भाग वाले होते हैं वो लोग जो गुरु का सम्पूर्ण गुरुत्व ले पाने की पात्रता हासिल कर पाते हैं. इसके लिए कृती भाव होना चाहिए कबीर की तरह. अहंकार-शून्य होना चाहिए, जैसे कृष्ण के सामने अर्जुन हो गये थे. सेवक भाव होना चाहिए, जैसे राम में था विश्वामित्र के लिए. समर्पण चाहिए, जैसे चन्द्रगुप्त में था कौटिल्य के लिए. आस्था चाहिए, जैसी एकलव्य में थी आचार्य द्रोण के लिए.
और तब देखिए, यह भी घटित होगा.
जैसे
कुमुदिनी पानी में रहती है, और चन्द्रमा आकाश में. लेकिन प्रेम दूरी नहीं जानता. भेद
नहीं मानता, जाति नहीं मानता, कुछ नहीं देखता. जो जिसका मनभावन है, वह सदा पास में
ही रहता है. अगर गुरु वाराणसी में होते और कबीरदास समुद्रपार, तो भी उनका वत्सल
स्नेह शिष्य के पास पहुँचकर ही रहता-------
कमोदनी जल हरि बसै, चन्दा बसै अकास ।
कमोदनी जल हरि बसै, चन्दा बसै अकास ।
जो जाही का भावता, सो ताही
कै पास ।।
कबीर गुरु बसै बनारसी,
सिक्ख समंदर पार ।
बिसास्या नहि बीसरै , जे
गुण होइ सरीर ।।
(कबीर)
(कबीर)
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जो गुरु का सम्पूर्ण गुरुत्व ले पाने की पात्रता हासिल कर पाते हैं. इसके लिए कृती भाव होना चाहिए कबीर की तरह. अहंकार-शून्य होना चाहिए, जैसे कृष्ण के सामने अर्जुन हो गये थे. सेवक भाव होना चाहिए
बहुत ही सशक्त एवं सार्थक भाव है इस आलेख में ... आभार इस प्रस्तुति के लिए
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