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Monday, 17 October 2016

जब श्मशान में आता था त्रेता !

     
यह उन दिनों की बात थी जब देश में दूरदर्शन नहीं था और सिनेमा की पहुँच भी केवल महानगरों तक ही थी. हमारी कलात्मक अभिरुचियाँ फाग, नाच और लीला जैसे कलारूपों में प्रकट होती थीं. कला-प्रदर्शन का कोई व्यावसायिक प्रयोजन नहीं होता था. कला, हमारे सुख-दुख, राग-विराग, मोह-माया के प्रकटीकरण का एक माध्यम थी. कला, हमारी सामूहिकता और सहकारिता को व्यक्त करने वाली एक स्वत: साध्य विद्या थी. यह वो समय था जब कोई व्यक्ति अभिनय कर ले, नाच ले, गा ले, चित्र बना ले तो इसे उस व्यक्ति की विशिष्ट विद्या कहा जाता था. यहाँ तक कि तवायफों के नाच-गाने की भी बड़ी इज़्ज़त थी. सम्पन्न लोगों के यहाँ होने वाले उत्सवों में मशहूर तवायफें पालकी भेजकर और नज़राना पेश कर बुलाई जाती थीं.

यह उन दिनों की बात है जब सामूहिक मनोरंजन का एक बहुत बड़ा माध्यम हुआ करती थी रामलीला. रामलीला सिर्फ मनोरंजन ही नहीं, नैतिक शोधन का साधन भी थी. यह फटेहाल और दरिद्र समाज में रामराज्य का सपना दिखाकर मरहम भी लगाती थी तो हम सब के भीतर देवत्व का कुछ अंश है, ऐसा सात्विक बोध भी जगाती थी. जिन लोगों के भीतर कला के बीज दबे होते थे, रामलीला उन्हें अंकुरित करती थी. और रामलीला उनकी कला को पल्लवित, पुष्पित भी करती थी. मेहनत-मजूरी और किसानी के दुर्दम्य संघर्षों से जूझते लोगों को रामलीला एक ऐसे मनोजगत में ले जाती थी, जहाँ सुख और शान्ति का एक विरल मौसम होता था. कुछ देर के लिए ही सही वो उस दुनिया में पहुँच जाते थे जहाँ सूखा, अतिवृष्टि, कालरा और जमींदारों के चाबुक नहीं दिखाई पड़ते थे. यह वो जगह होती थी जहाँ राम-लक्ष्मण की लीलाओं के साथ हमारे भीतर की वेदनाओं और संवेदनाओं को एक अनन्त और वस्तुनिष्ठ विस्तार मिलता था.

यह उन दिनों की बात है जब मैं आठ-दस बरस का बालक था और किशोरावस्था को मुझ पर आने की कुछ हड़बड़ी सी थी. उस समय दशहरा से दीवाली तक स्कूलों में पचीस दिन की फसली छुट्टी होती थी. यह ऐसा मौसम होता था जब गांवों का सौन्दर्य अपने शिखर पर होता है. खलिहान में रखे धान के गट्ठरों से मदहोश कर देने वाली खुशबू हवा के झोंकों के साथ घरों में घुस आती थी. झाड़ियों में रंग-बिरंगे फूल और उन पर मंडराती तितलियाँ मन हर लेती थीं. सुबह घास पर बिखरी हुई ओस और शाम की लालिमा में पसरी हुई आस ! इसी खुशगवार दृश्य में हम शामिल होते थे अपने गांव में जब हमारा परिवार नजदीकी कस्बे से फसली छुट्टी में घर आता था. हम लोगों की दशहरा दीवाली गाँव में ही होती थी.

और इसी समय गांव में आती थी रामलीला मंडली. गांव से थोड़ा हटकर एक बहुत बड़ा सामूहिक बगीचा था. यह गांव का श्मशान भी था. गांव के मृतकों का अंतिम संस्कार यहीं होता था इसलिए डरावना भी था, खासतौर से बच्चों के लिए. रामलीला मंडली यहीं अपना डेरा जमाती थी. यहीं उनका मंच सजता था. विचित्र बात थी कि जिस बगीचे में दिन में भी जाने से लोग डरते थे, वही बगीचा पन्द्रह बीस दिनों के लिए स्वर्ग बन जाता था. तब गांव में बिजली नहीं थी. आस पास के किसी गांव में नहीं. रात में इन दिनों यह श्मशान ऐसे लगता था जैसे अँधेरे के समुद्र में रौशनी का कोई टापू हो. रामलीला मंडली पन्द्रह बीस दिनों तक इसी बगीचे में रामलीला का मंचन करती थी. मेरा गांव जाने का सबसे बड़ा लोभ यही रामलीला थी. मैं साल भर इस छुट्टी का इंतज़ार करता था. रामलीला के प्रति मेरी दीवानगी तब से थी जबसे मैनें होश सम्भाला. जब मैं तीन-चार साल का था, तब से मेरे भीतर रामलीला की स्मृतियाँ और संस्कार हैं. उस समय दशहरे की छुट्टियों में मैं अम्मा के साथ ननिहाल जाता था. इलाहाबाद से लगा हुआ एक बड़ा सा जीवन्त कस्बा है त्यौंथर. यही मेरा ननिहाल है. टमस नदी की भीट पर बसा यह कस्बा बहुरंगी और कला सम्पन्न है. यहाँ की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी. मेरे मामा का पूरा घर कई पीढ़ियों से रामलीला में अभिनय करता था. मामा लोग चूँकि ब्राह्मण थे और सुदर्शन थे, तो राम-लक्ष्मण-भरत-सीता और ऋषियों की भूमिकाएँ .यही लोग निभाते थे. जिन दिनों की मुझे याद है, उस समय मेरे नाना, विश्वामित्र और परशुराम बनते थे. बड़े मामा राम और छोटे मामा लक्ष्मण. परशुराम-लक्ष्मण का झगड़ा हम लोगों को इसलिए भी ज्यादा मज़ेदार लगता था कि नाना और मामा लड़ रहे होते थे. बाद मे दोनो जन घर आकर भी लड़ते थे. इन लोगों को खूब इनाम भी मिलते थे अभिनय पर. खासतौर से ‘धनुषयज्ञ’ के दिन छोटे मामा लक्ष्मण, परशुराम से संवाद पर खूब ईनाम बटोरते थे. बाद में हम सब बच्चे उनसे पैसे छुड़ा लेते थे. उन्हीं दिनों से मुझे रामलीला के अधिकतर संवाद याद हो गए थे. ये संवाद राधेश्याम कृत रामायण के होते थे.

बाद में जब हमारे गांव में रामलीला मंडली आने लगी तो मानों मेरी मुराद पूरी हो गई. तब तक ननिहाल जाने का सिलसिला भी कुछ कम हो गया था. फसली छुट्टी में अम्मा अगर मायके जाती भी, तो मैं गांव की रामलीला के लोभ में नहीं जाता था. लगभग पन्द्रह बीस दिनों तक रामलीला चलती थी. और कभी कभी लोगों की फरमाइश पर कुछ प्रसंग दुबारा मंचित किए जाते थे. खासतौर से धनुषयज्ञ और लक्ष्मण मेघनाद युद्ध के प्रसंग सबसे ज्यादा हिट होते थे. रामलीला मंडली गांव वालों से कोई शुल्क नहीं लेती थी. गांव वालों को सिर्फ उनके रोज़ के भोजन का इन्तज़ाम करना होता था. गांव के सम्पन्न लोग अलग-अलग दिन के भोजन का जिम्मा बड़ी श्रद्धा और गर्व के साथ उठा लेते थे.

शाम लगभग सात बजे लीला शुरू होती थी. दूसरे लोग इसी समय के आसपास लीला स्थल पर पहुँचते थे. मुझे इतनी उतावली होती थी कि मैं शाम पाँच बजे ही एक छड़ी और अपने बैठने के लिए बोरिया लेकर चल देता था. सबसे आगे मेरी ही बोरी बिछती थी. जब में वहाँ पहुँचता उस वक्त कलाकारों का श्रृंगार चल रहा होता था. रामलीला के सभी कलाकार पुरुष होते हैं. कोई चड्डी-बनियान में, कोई तौलिया लपेटे बैठा मुह पर मुर्दाशंख पोतवा रहा होता. किसी के चेहरे पर लाल-पीली-काली टिप्पियाँ बनाई जा रही होतीं. हनुमान जी अपनी पूँछ को दुरुस्त कर रहे होते. रावण पेट्रोमैक्स में बत्ती लगा रहा होता. समय से बहुत पहले पहुँच जाने के कारण मेरी रामलीला मंडली वालों से दोस्ती होने लगी. मुझसे खूब बतियाते सब. उनके संवाद तो मुझे याद ही थे. मैं गाकर सुनाता तो सब अचंभित हो जाते. उनका अनुराग मुझ पर इतना बढ़ गया कि रात बारह-एक बजे जब लीला खत्म होती तो वे मुझे अपने ही पास रोक लेते. अपने साथ ही मुझे खाना खिलाते और सुला लेते. मैं रावण के साथ सोता था क्योंकि वह बहुत ज़िन्दादिल और स्नेहिल था. रामचन्द्र जी मुझसे कुछ कम कम बोला करते थे क्योंकि मंडली के सभी लोगों का ध्यान राम से अधिक मेरे ऊपर रहने लगा. रात भर मंडली के साथ बिता के सुबह मैं अपने घर आ जाता. यही सिलसिला हो गया था.

कि एक दिन कुछ अप्रत्याशित हो गया. लक्ष्मण जी अचानक बीमार हो गए. मंडली के अध्यक्ष ने निर्णय लिया कि भरत वाला पात्र लक्ष्मण बन जाएगा. फिर भरत कौन बनेगा ?? तय हुआ कि भरत का रोल बालक विमलेन्दु करेंगे. मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम. संवाद तो मुझे याद थे . लेकिन व्यास जी की गाई चौपाइयाँ मुझे समझ नहीं आती थीं. व्यास जी पूरी लीला के सूत्रधार होते थे. उनकी चौपाइयों से ही हर पात्र को यह संकेत मिलता था कि किसको क्या एक्शन करने हैं और क्या संवाद बोलना है. मैने अपनी समस्या उन लोगों को बताई तो रावण जी मेरी मदद को आगे आए. उन्होने कहा परेशान न होना मैं परदे के पीछे से बताता जाऊँगा कि कब क्या करना है. मैं राजी हो गया. आनन-फानन में मुझे तैयार किया गया. जब मंच पर मैने एन्ट्री मारी तो गांव के लोग चौंक गए. खूब तालियाँ बजीं. मंडली वालों की उम्मीद से कुछ बेहतर हो गया था मुझसे. उस दिन से रोज़ ही कोई न कोई भूमिका मुझे मिलने लगी. एक दिन सीता जी को कुछ हो गया तो उन लोगों ने मुझे सीता बनने को कहा. मैं शरमा गया एकदम से. मैने सीता बनने से मना किया तो सब नाराज़ गए. उनकी नाराज़गी मुझे बुरी लगी. तो मैने उनके साथ रात में रुकना बन्द कर दिया. उनसे मेल-जोल भी कम कर दिया. मुझे डर लगने लगा कि कहीं किसी दिन ये मुझे सीता बना ही न दें. खैर ऐसा हुआ नहीं.

इस तरह कई सालों तक रामलीला मंडली गांव में आती रही. यह सिलसिला तब बन्द हुआ जब गांव की एक लड़की रामचन्द्र जी पर मुग्ध हो कर उनके साथ भाग गई. गांव मे हंगामा मच गया. रामलीला मंडली को बीच में ही अपना पंडाल उखाड़ के भागना पड़ा. तब से आज तक मेरे गांव में फिर कोई मंडली नहीं आई, न रामलीला हुई.

इस दुखद प्रसंग को छोड़ दिया जाय तो रामलीला उस जमाने में लोगों को कला के संस्कार देती थी. जन-जीवन के नैतिक शिक्षा का माध्यम भी था यह कलारूप. बाद में जब दूरदर्शन आया और दूरदर्शन पर रामायण धारावाहिक आने लगा तो अचानक रामलीला का मंचन बहुत बचकाना लगने लगा. टीवी पर तकनीक से सजी राम की लीला के आगे बिना माइक और बिना पर्याप्त प्रकाश के लीला उबाऊ लगने लगी. बड़ी बड़ी मंडलियाँ बन्द हो गईं या फिर औपचारिकता बस बची. यद्यपि बनारस के रामनगर, इलाहाबाद और मैसूर में आज भी रामलीला का भव्य आयोजन होता है, लेकिन लोगों की वैसी रुचि नहीं रही जैसी पहले थी. आप भी महसूस करते होंगे कि टीवी ने बहुत सी लोक कलाओं और देशज कला माध्यमों को खत्म कऱ दिया है.

रामलीला की शुरुआत कब और कैसे हुई होगी, इसको लेकर अलग-अलग मत हैं. कहा यह जाता है कि राम के वन-गमन के बाद, चौदह बरस की वियोग-अवधि, अयोध्यावासियों नें राम की बाल-लीलाओं का अभिनय कर के काटी थी. कुछ लोग रामलीला का आदि-प्रवर्तक काशी के मेघा भगत को मानते हैं. ये काशी के कतुआपुर मोहल्ले के फुटहे हनुमान के पास रहते थे. इन्हें भगवान राम ने स्वप्न में दर्शन देकर लीला करने का आदेश दिया था. वैसे आधिकारिक रूप से यह माना जाता है कि रामलीला की शुरुआत तुलसीदास की प्रेरणा से काशी के तुलसीघाट पर हुई थी. भारत के अलावा बाली, जावा, श्री लंका में भी रामलीला होती है. बर्मा की रामलीला में तो रावण-वध होता ही नहीं. युद्ध के अंत में रावण राम से क्षमा माग लेता है और युद्ध से विमुख हो जाता है. रामलीला पर छविलाल ढोंढियाल की एक महत्पूर्ण पुस्तक है. भारतेन्दु हरिश्चन्द ने रामलीला से प्रेरित होकर एक चम्पू काव्य ‘रामलीला’  लिखा था. कुल मिला कर आज रामलीला हमारी स्मृति और शोध का विषय बन कर रह गई है.

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