हमारे देश में नास्तिकता पर बात करना जितना
आसान है, नास्तिकों की पहचान उतना ही कठिन है. यह कठिनाई नास्तिकता की परिभाषा और
उसके लोक-प्रचलित अर्थ में विभेद के कारण पैदा होती है. आमतौर पर स व्यक्ति को
नास्तिक माना जाता है जो ईश्वर को नहीं मानता और उससे संबन्धित कर्मकाण्ड और
पूजा-पाठ वगैरह से दूर रहता है. दूसरी ओर नास्तिक की शास्त्रीय परिभाषा कहती है कि
ऐसा व्यक्ति जिसे वेदों में आस्था न हो, वह नास्तिक है. इसमें दो राय नहीं कि भारत
के व्यापक समाज में पहली वाली मान्यता ही अधिक प्रचलित और ग्राह्य है. नास्तिकता
सिर्फ भारत का ही मसला नहीं रहा है, यह वृहत्तर दुनिया का एक वैचारिक प्रत्यय है.
इस्लाम में ऐसे लोगों को क़ाफ़िर कहा जाता है. क़ाफ़िर वह होता है जो इसलाम की
मान्यताओं के विपरीत आचरण करे. इसी तरह पश्चिमी देशों यानि इसाइयत में भी नास्तिक
वही है जो चर्च की नियमावली का उल्लंघन करे. यानि अगर हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में
देखें तो तो नास्तिकता का सीधा समीकरण धर्म के साथ बनता है.
भारत के हिन्दू समाज में नास्तिकता को लेकर
अपेक्षाकृत उदार रवैया रहा है. यह उदारता किसी सदाशयता से नहीं आई है. बल्कि यह
नास्तिकता की लोकमान्य अवधारणा और शास्त्रीय परिभाषा से उत्पन्न हुई दुविधा का
नतीज़ा है. केवल भारत का हिन्दू समाज ही ऐसा है, जिसके पास नास्तिकता की अपनी
विशिष्ट परिभाषा है. यानि, वेदों में आस्था न रखने वाला नास्तिक होता है. सच यह है
कि अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं होता कि नास्तिकता की ऐसी कोई परिभाषा है. सच
यह भी है कि हिन्दू समाज के अधिसंख्य
लोगों ने वेदों के सिर्फ नाम सुन रखे हैं. कम लोगों नें उन्हें देखा है, और बहुत
कम लोंगों नें उन्हें पढ़ा है. इसीलिए हिन्दू समाज में वेदों पर आस्था और अनास्था
का प्रश्न बस औपचारिक ही है. यह प्रश्न कभी भी भयावह और हमारे मानवाधिकारों का
दुश्मन नहीं बना. जबकि इस्लाम में देखिए तो कुफ्र करने वाले क़ाफ़िर यानि नास्तिक
को उसके अधिकांश मानवाधिकारों से वंचित कर दिया जाता है.
इसे हिन्दू समाज का सौभाग्य मानना चाहिए कि
हिन्दू धर्म का संचालन किसी एक ग्रन्थ से नहीं होता. वेदों, पुराणों, उपनिषदों,
स्मृतियों, गीता, रामायण, महाभारत के अलावा भी अनेक ग्रन्थ हैं जो हिन्दुओँ को
मार्गदर्शन करते हैं. इसी तरह हिन्दुओं की आस्था में करोड़ों देवी-देवता हैं.
इसीलिए हिन्दू धर्म की मूल प्रवृत्ति में कभी अधिनायकवाद नहीं रहा. इसीलिए हिन्दू
धर्म में कभी फतवा जारी करने की परंपरा नहीं रही. किसी व्यक्ति का आचरण अगर राम के
आदर्शों के प्रतिकूल हुआ तो वही कृष्ण के सिद्धान्तों के अनुकूल पाया गया. कृष्ण
से विपरीत हुआ तो उसकी संगति शिव से बैठ गई. इस तरह वह धार्मिक रहा आया. इतना ही
नहीं, अगर उसकी संगति किसी देवी-देवता से नहीं बैठती, और वह धार्मिक कर्मकाण्डों
से निर्लिप्त रहता है, तो भी उसे धर्म और समाज से बहिष्कृत नहीं किया जाता.
यही वो प्राणी है जिसे हिन्दू समाज में
नास्तिक माना जाता है. अब तक यह नास्तिक
प्राणी निरापद माना जाता रहा है. यह किसी का कुछ नुकसान नहीं करता. किसी के
धार्मिक आचरण और विश्वास में दख़ल नहीं देता. इसलिए ऐसे प्राणी से किसी को कोई
दिक्कत नहीं. हमने तो यह देखा है कि हमारे हिन्दू समाज में नास्तिकों को घृणा या
उपेक्षा की दृष्टि से नहीं, बल्कि कौतुक की दृष्टि से देखा जाता है. नास्तिकों का
प्रति आस्तिकों की यह उदारता, आस्तिकों की एक कमज़ोरी से भी निकलती है. आस्तिक
कहते हैं कि ईश्वर है, और वही जगत का नियंता है. नास्तिक ईश्वर के अस्तित्व को
नकार देते हैं. लेकिन अपनी अवधारणा को अब तक न आस्तिक सिद्ध कर पाए हैं और न
नास्तिक. तर्कशास्त्र का एक सामान्य शिष्टाचार यह है कि सिद्ध उसे करना होता है जो
मंडन करे. यानि जो ‘अस्ति’ की बात करे. जो किसी चीज़ का ‘होना’ बताए. खण्डन या ‘नास्ति’ कहने वाले को तब तक प्रमाण नहीं देने पड़ते जब तक मंडन करने वाला अपनी बात
सिद्ध न कर दे. इसीलिए अब तक हिन्दू समाज के आस्तिक, नास्तिकों से उलझने से कतराते
रहे हैं.क्योंकि नास्तिकों के सवालों के जवाब देने में उन्हें पसीना छूट जाता है.
आस्तिक ले-देकर अनुभूति को प्रमाण की तरह प्रस्तुत करने की दयनीय कोशिश करते हैं,
लेकिन तर्कशास्त्र अनुभूति को प्रमाण नहीं मानता. दूसरी तरफ, नास्तिक के पास भी अब
तक संसार की इस लीला की कोई तर्कसंगत वैज्ञानिक व्याख्या नहीं है. इसलिए दोनों ही
एक दूसरे से बच-बचाकर सुखी रहते हैं.
आस्तिकों-नास्तिकों के इस विवशतापूर्ण
सह-अस्तित्व में कुछ दिन पहले अचानक लहरें उठनी शुरू हो गईं, जब वृंदावन के एक
नास्तिक बुद्धिजीवी बालेन्दु स्वामी ने मथुरा में नास्तिकों का एक सम्मेलन आयोजित
करने की घोषणा कर दी. यद्यपि उन्होंने यह खुलासा नहीं किया कि सम्मेलन में किन
मुद्दों पर विमर्श होगा, लेकिन सम्मेलन की घोषणा मात्र से कट्टर और जड़ हिन्दूवादी
संगठन भड़क गए. ये ऐसे संगठन हैं जिनकी न तो कोई वैचारिकी है और न ही अपनी
ज्ञान-परंपरा का ज्ञान. इनका अस्तित्व विरोध पर टिका हुआ है. पूरे देश में इस
आयोजन को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया. सोशल मीडिया पर हर ऐरा-गैरा भारतीय
ज्ञान-मीमांशा और दर्शन का आधिकारिक विद्वान बन बैठा. भारी विरोध को देखते हुए
स्थानीय प्रशासन ने नास्तिकों के आयोजन को दी गई मंजूरी निरस्त कर दी.
अब सवाल ये पैदा होते हैं कि नास्तिकों का
सम्मेलन करने का नवाचार करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी ? अभी तक नास्तिकता किसी
व्यक्ति का निजी मामला हुआ करती थी, जैसे प्रेम, जैसे घृणा. अब नास्तिकता को
सांगठनिक रूप देने के पीछे क्या उद्देश्य है ? नास्तिकों के संगठित हो
जाने से कौन डर रहा है, और क्यों डर रहा है ? क्या भारत जैसे
धर्म-भीरु समाज में नास्तिकों के सवाल कोई असर पैदा कर पाने की ताकत रखते हैं ?
ऐसा नहीं है कि पहली बार नास्तिकता एक
सामूहिक स्वरूप में नज़र आ रही है. अगर हम अपने देश की धार्मिक परंपरा में देखें
तो बौद्ध और जैन धर्म नास्तिक थे. ये दोनों धर्म भले ही सनातन(हिन्दू) धर्म से प्रतिक्रिया-स्वरूप निकले हों, लेकिन दोनों की आस्था न तो वेदों
में है और न ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास.
बौद्ध और जैन धर्म का खूब विस्तार हुआ.
सह-अस्तित्व का यह अविश्वसनीय उदाहरण देखिए कि हिन्दू धर्म ने बुद्ध और महावीर को
अवतार का दर्ज़ा दे दिया. मुझे तो लगता है कि अगर कुछ मुगल बादशाहों ने हिन्दुओं पर
इतना अत्याचार न किया होता तो पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहब को भी अवतार घोषित कर
दिया जाता.
भारत की दार्शनिक परंपरा के षड्-दर्शनों में
सांख्य और योग दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते. लेकिन दोनों ही समादृत हैं.
सांख्य दर्शन तो सीधे तौर पर ईश्वर को नकार देता है. जबकि योग दर्शन
ईश्वर-प्रणिधान की बात तो करता है लेकिन ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता के रूप में
स्थापित नहीं करता. वह ईश्वर को एक भाव के रूप में निरूपित करता है, जिसे योगी को
अपने प्राणों में धारण करना चाहिए. अब आप देखिए कि बौद्ध, जैन, सांख्य, योग पर ऐसे
आक्रमण कभी नहीं हुए, भले ही दार्शनिक स्तर पर इनसे मतभेद रहा हो.
प्राचीन काल में नास्तिकता का सबसे मुखर रूप
चार्वाकों, लोकायतों और आजीवकों की वैचारिकी और जीवनशैली में दिखता है. इनके बारे
में ऐतिहासिक जानकारी इतनी अपर्याप्त है कि इनके भौतिकवादी-देहवादी दर्शन को,
दर्शन की परंपरा में शामिल भी नहीं किया जा सका. लेकिन नास्तिकों के ऊपर हमेशा
चार्वाकों का वह मशहूर कथित सिद्धान्त आरोपित किया जाता है, जिसमे कहा गया है- “जब तक जियो, सुख से जियो. चाहे ऋण लेकर घी पीना पड़े, घी पियो. यह नश्वर
शरीर दुबारा न मिलेगा.” यह जुमला नास्तिकों से चिपका कर, उन्हें निहायत दुराचारी, देहवादी, भोगी,
विलासी और सामाजिक रूप से गैर-ज़िम्मेदार व्यक्ति साबित करने का दुराग्रह किया
जाता है. हमारे देश में नास्तिकों को प्रगतिशीलों और वामपंथियों से जोड़ा जाता है
और उनके ऊपर भी उपरोक्त विशेषणों को आरोपित किया जाता है. यह सरासर अन्याय है. अगर
हम सृष्टि की ईश्वरवादी व्याख्या को नहीं मानते तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम
अनैतिक और दुराचारी हो गए.
मैने शुरुआत में कहा था कि इस देश में
नास्तिकों की पहचान करना बड़ा मुश्किल काम है. बहुत से ऐसे लोग हैं जो ईश्वर और
कर्मकाण्ड में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते लेकिन वेदों में ज्ञान-विज्ञान और
संस्कृति के अनूठे तत्वों को खोजते हैं. बहुत से ऐसे लोग हैं जिनको वेदों का कुछ
अता-पता नहीं है लेकिन ईश्वर में अदम्य आस्था है. अब आप इनमें से किसे नास्तिक
कहेंगे और किसे आस्तिक ? मैने ऐसे कुछ लोग भी देखे हैं जिन्हें ईश्वर और पूजा-पाठ से परहेज है,
लेकिन जो करुणा, दया और औदार्य से भरे हुए हैं. वहीं ऐसे भी लोग देखे हैं जो
दिन-रात ईश्वर की माला जपते रहते हैं, लेकिन भीतर से क्रूर, दुराचारी और मनुष्य
विरोधी हैं.
अब उस मूल प्रश्न पर आते हैं कि वो कौन लोग
हैं जो नास्तिकों के एकजुट होने और उनके आपसी संवाद से डरते हैं ? क्या ये वही लोग नहीं हैं जो इस देश को एक कट्टर धार्मिक देश बनाना चाहते
हैं ! धार्मिक कट्टरता की आड़ में दुनिया में किस तरह का आतंक और काला कारोबार
किया जा सकता है, इसका उदाहरण तो हम कई इस्लामिक देशों में देख ही रहे हैं. ऐसे
लोग दिन-रात इसी जुगत में रहते हैं कि अधिक से अधिक लोगों को धर्मान्ध बनाया जा
सके. इसके लिए अब देश में एक विस्तृत और सशक्त तंत्र बन गया है. यही लोग हैं जो
नास्तिकों की एकजुटता और संवाद से घबराए हुए हैं. नास्तिक, जो अब तक निरापद थे,
अगर उन्होंने धर्मान्धों के तंत्र के समानान्तर कोई तंत्र विकसित कर लिया तो फिर
धर्म की जय कैसे होगी और अधर्म को नाश कैसे होगा. एक प्रतिप्रश्न यह भी था कि आखिर
नास्तिकों का सम्मेलन करने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी ? क्या एक तरह के अंधत्व
का मुकाबला, दूसरे तरह के अंधत्व से ही किया जा सकता है ? क्या हमारे देश की
प्रगतिशील वैचारिकी, धर्मान्धता का प्रतिरोध कर पाने में अक्षम साबित हो रही है ?
नास्तिकता को लेकर मेरी जो समझ है, उसके
मुताबिक दुनिया का कोई जीवित इंसान पूरी तरह से नास्तिक कभी हो ही नहीं सकता. ठीक
उसी तरह जैसे हर इंसान कुछ अंशों में प्रगतिशील होता है. ईश्वर में, धर्म में, और
वेदों में आस्था न भी हो, अगर मानव मूल्यों में हमारी आस्था है तो हम आस्तिक हुए.
अगर हमें प्रेम, दया, करुणा, रूप, रस, गंध में भी आस्था है, तो हम आस्तिक हुए.
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