14 सितंबर 1989 को जब मैं उन्हें बोलते हुए सुन रहा था, तो पहली बार मुझे लगा कि मेरे पिता से भी ज़्यादा ज्ञानी और पराक्रमी कोई व्यक्ति इस धरती पर है.....ये वक्ता थे प्रो. कमला प्रसाद, जो कुछ ही दिनों बाद मेरे ताऊ जी बन गये थे. सुर्ख चेहरा, करीने से कढ़े हुए बाल, तेजस्वी ललाट, बोलती आँखें और होठों पर सम्मोहित कर देने वाली मुस्कान.......स्कूल में हिन्दी दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के इसी सम्मोहन के बीच मुझे मेरे ताऊजी यानी प्रो. कमला प्रसाद मिले थे....हिन्दी साहित्य इन्हें वापंथी आलोचक की तरह जानता है, तो प्रगतिशील लेखक संघ के साथी इन्हें कमाण्डर कहते थे.
एक ऐसा योद्धा जिसने पराजित होना सीखा ही नहीं था. एक अथक पथिक जो तलवार की धार पर चलते हुए रोमांचित होता था. यात्रा ही जिनकी ज़िन्दगी थी. मेरे एक मित्र ने कहा था कि अगर कोई पूछे कि इस देश के सबसे बड़े पुल का नाम क्या है, तो इसका ज़वाब होगा--कमला प्रसाद. पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण, कमला प्रसाद यात्राएँ करते रहे और संस्कृति-कर्मियों को जोड़ते रहे. हज़ारों नौजवान-प्रौढ़ लेखक-कलाकार उनसे होकर गुज़रते हुए अपने मुकाम तक पहुँचते रहे. देश भर में साहित्य-कला शिविरों, संगोष्ठियों की झड़ी लगा दी थी कमाण्डर कमला प्रसाद ने. थकान और हताशा कभी उनके पास तक आयी नहीं. स्कूल के उस दिन से उनकी मृत्यु तक, मैने उनको जब देखा- उनकी धज में ज़रा भी बदलाव नहीं आया. उन्हें उत्साह में देखा पर कभी क्रोध में नहीं देखा...उन्हें प्रेम में देखा पर कभी भावुक नहीं देखा....उन्हें दुख में देखा पर कभी टूटन में नहीं देखा..
ताऊजी का जन्मदिन 14 फरवरी को होता है. इसी दिन पूरी दुनिया वैलेन्टाइन्स डे को प्रेम के उत्सव के रूप मे मना रही होती थी. हम लोग इसी बात पर उनसे ठिठोली किया करते. उनसे जानने की कोशिश करते कि क्या उन्होने भी प्यार किया था. वो बैठे मुस्कुराते रहते. बहुत छेड़ने पर कह देते कि तुम लोग हो तो, क्या तुम तक मेरा प्रेम नहीं पहुँच रहा ! ताऊजी के भीतरका यह प्रेम ही उनकी ताकत और सबसे बड़ा हथियार भी था. वो अपने दुश्मनों पर भी प्रेम लुटाने के लिए मशहूर थे.
कोई यह सोच सकता है कि ऐसे आदमी के दुश्न कैसे हो सकते हैं ! पर उनके दुश्मन कई थे. मेरे ताऊजी देश के बड़े आलोचकों में शुमार किए जाते थे. रीवा विवि में केशव शोध संस्थान के निदेशक और हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे. प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव, वसुधा के संपादक, कला परिषद के निदेशक, राष्ट्रीय स्तर की अनेक समितियों के संयोजक-सदस्य, और असंख्य आयोजनों के कर्ता-धर्ता थे. अब कहिए, ऐसे आदमी के दुश्मन न हों, क्या यह संभव है. यश और प्रतिभा के स्वाभाविक दुश्मन होते हैं. कमला प्रसाद के भी थे. और कमला प्रसाद इन दुश्मनों पर प्यार, पुरस्कार और सम्मान लुटाते रहते थे. सुबह जिसने उन्हें पानी पी-पी कर गालियाँ दी, शाम को उसे ही अपने कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बना देते थे. जिन लोगों ने उन्हें दोयम दरजे का आलोचक साबित करने की मुहिम चलाई, उन्हीं की किताबें छपवा देते, किसी अकादमी में रखवा देते या किसी विवि में व्याख्याता बनवा देते.
मैने उनसे एक बार पूछा कि ताऊजी, आप ऐसे लोगों को क्यों उपकृत करते हैं, जो आपकी जड़ खोदते रहते हैं. उन्होने कहा--" विमलेन्दु , मार्क्स कहते थे कि अगर आप सबको साथ लेकर चलना चाहते है, संगठन को मजबूत करना चाहते हैं, तो विरुद्धों का सामंजस्य करना सीखिए." यही मेरे लिए मार्क्सवाद का पहला पाठ था. कमला प्रसाद के साथ रहते हुए मार्क्सवाद को अलग से पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. भारतीय मिट्टी,हवा, पानी,रिश्ते-नातों,जनम-मरण,लोकरीतियों के बीच मार्क्सवाद अधिकतम जितना संभव हो सकता है, वह कमला प्रसाद की दिनचर्या का हिस्सा था. कोई छद्म नहीं था. वह सिद्धान्तों की बात उतनी ही दूर तक करते थे, जितना जीवन में उतारना संभव हो सकता था. कामरेड थे तो कामरेड की तरह जीते थे इसलिए. कभी छोटे-बड़े का या पद-प्रतिष्ठा का अहंकार या भेदभाव करते उन्हें किसी नें नहीं देखा.
जिस वर्ष कमला प्रसाद रीवा विवि में आये उसी वर्ष कवि-मित्र आशीष त्रिपाठी ( इस वक्त BHU में रीडर हैं) भी रीवा आये. आशीष ने उसी मॉडल स्कूल में दाखिला लिया जिसमें मैं पहले से पढ़ रहा था. हम दोनो एक ही कक्षा में थे. आशीष ने साहित्य में अपनी प्रतिभा दिखाई , तो मेरा प्रभाव संगीत में था. हम दोनो को अच्छा मित्र बनने में ज्यादा देर नहीं लगी. स्कूल में कमला प्रसाद को पहली बार सुनने के बाद आशीष ने ही मुझे उनसे घर ले जाकर मिलवाया. आशीष के पिता श्री सेवाराम त्रिपाठी, कमला प्रसाद के शिष्य भी थे और पारिवारिक मित्र भी. आशीष पर कमला प्रसाद जी का विशेष स्नेह था, जो जीवन पर्यन्त बना रहा. कमला प्रसाद द्वारा आयोजित प्रलेस के शिविरों में आशीष ने तब से भाग लेना शुरू कर दिया था, जिस उम्र में बच्चे गुल्ली-डंडा खेल रहे थे. आशीष की साहित्य की दीक्षा यहीं से शुरू हुई थी.
इस पहली मुलाकात के बाद उनसे मेरा पिता-पुत्र का एक ऐसा अटूट नाता बना, जो मेरे सपनों में था. कमला प्रसाद लगभग बारह-तेरह वर्ष रीवा में रहे. इन वर्षों में लगभग रोज़ ( जब वे रीवा में होते थे ) शाम के एक-दो घंटे उनके साथ ही बीतते थे. वो किसी बड़े आयोजन की रूपरेखा बना रहे होते तो हमारी भी राय लेते. फिर कोई काम हमारे जिम्मे छोड़कर निश्चिन्त हो जाते. अदभुत विश्वास था उन्हें लोगों पर. नये लोगों को तैयार करने का यह उनका अपना तरीका था. वह नये से नये नौजवान पर भी पूरा भरोसा जताते थे. उनके समय में रीवा विवि में महीने में एक-दो राष्ट्रीय स्तर के आयोजन होते ही रहते थे. एक से एक लोग रीवा आने लगे थे, जिनके बारे में कभी हमने सोचा भी नहीं था. नामवर सिंह,केदारनाथ सिह,चन्द्रकांत देवताले,राजेन्द्र यादव,काशीनाथ सिंह,रमेश कुंतल मेघ,विश्वनाथ त्रिपाठी ज्ञानेन्द्रपति,कुमार अंबुज,भगवत रावत,राजेश जोशी,अशोक वाजपेयी,हवीब तनवीर,अलखनन्दन,त्रिलोचन,ज्ञानरंजन,जैसे नामचीन लोगों के साथ हमने हमजोलियों जैसा समय बिताया और कविताएँ सुनाईँ.
तब तक हिन्दी विभाग में कवि दिनेश कुशवाह भी आ गये थे. ताऊजी के काम करने का निराला अंदाज़ था. विवि में कविता पर तीन दिन की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की. केदारनाथ सिंह, देवताले जी, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति आदि लोग उसमें आये. 12 बजे उद्घाटन सत्र था. 9 बजे ताऊजी ने हम लोगों ( दिनेश कुशवाह, मैं, आशीष, विवेक श्रीवास्तव ) को घर पर बुला लिया. वहां से सबको लेकर विवि के सभागार पहुँच गये. बोले, चलो हम लोग मंच वगैरह ठीक कर लेते हैं. हम लोगों ने कुर्सियाँ झाड़ीं, मंच पर दरी बिछायी, माइक दुरुस्त किया, फूल-माला वगैरह तैयार किए. कमला प्रसाद भी बराबर साथ में लगे रहे. दो-ढाई घंटे की मेहनत के बाद सभागार तैयार और 12 बजे से कविता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी शुरू......गज़ब तो तब हुआ जब 4 बजे दूसरा सत्र शुरू होना था. हम लोग अतिथियों को भोजन करा रहे थे कि ताऊजी खोजते हुए मेरे पास पहुँचे. पास आकर बोले--" विमलेन्दु, इस सत्र का संचालन तुम कर लो !" थोड़ी देर के लिए मैं सन्न रह गया. कोई तैयारी नहीं. विमर्श का सत्र था. इतने धुरंधर वक्ताओं के बीच मैं ! तब तक उन्होने मुझे अपनी छाती से लगा लिया था. और मैं इस परीक्षा के लिए तैयार हो गया था. यह बात तब की है जब मैं एम.ए. दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी था.
मुझसे मिलने का उनका यही अंदाज़ था. जब भी मैं उनके सामने पहुँचता वो हाथ बढ़ाकर मुझे अपनी छाती से लगा लेते. खाना खा रहे होते तो दो रोटी अपनी थाली से निकाल कर मुझे दे देते. मुझे अपना मानस पुत्र कहते थे. जब भी किसी से मिलवाते तो कहते--'' ये विमलेन्दु है, मेरा मानस पुत्र. कविताएँ लिखता है. थोड़ा बदमाश है, बीच-बीच में गायब हो जाता है तो इसे खोजना पड़ता है. " दरअसल मेरा कविता लिखना भी उन्हीं के कारण शुरू हुआ था. जिन दिनों मैं बी.ए. प्रथम वर्ष में था, उन्हीं दिनों कवि भगवत रावत ने भोपाल में एक युवा कवियों की कार्यशाला संयोजित की. इसमें अलग-अलग शहरों से एकदम नये कवियों को शामिल करना था. दो-दो कविताएँ मगाई गई थीं, जिनके आधार पर चयन होना था. ताऊजी ने कहा कि तुम भी दो कविताएँ भेज दो. तब तक मुझे यह भी नहीं मालूम था कि मैं कविताएँ लिखता हूँ. कुछ कवितानुमा प्रेमपत्र लिखे थे , और कुछ ग्रीटिंग कार्ड्स बनाये थे. खैर उन्हीं को आशीष की मदद से कविता की शक्ल देकर भेज दिया. चयन भी हो गया.रीवा से मैं, आशीष त्रिपाठी, क्षितिज विवेक और अंकुर पाण्डेय उस कार्यशाला में शामिल हुए. तभी से हम कवि हो गये.
ताऊजी मेरे गुणों को पता नहीं कितना जानते थे, पर मेरे अवगुण सारे उन्हें पता थे. थियेटर करने के दौरान जब हम बीड़ी का सुट्टा लगाकर कभी उनके सामने फँस जाते, तो छाती से लगाते ही मुस्काते हुए कह देते कि आज तो विमलेन्दु बहुत महक रहा है भाई ! मेरी खुशी और उदासी को झट पहचान लेते. मुझे भी जब रोना होता तो मैं उनके पास पहुँच जाता और जी भर के रोता......पर क्या किसी ने कमला प्रसाद को रोते देखा था कभी ? मैने देखा था...एक दिन रात के आठ बजे मैने उन्हें फोन करके बताया कि ताऊजी मैने एक कहानी लिखी है. उन्होने कहा, लेकर फौरन चले आओ. मैं पहुँच गया. उस समय दिनेश कुशवाह भी उनके घर पर ही बैठे थे. ताऊजी ने कहा सुनाओ कहानी. वह कहानी मेरे साथ घटी कुछ घटनाओँ की कहानी थी, जिनकी कुछ जानकारी उन्हें थी. मैं कहानी सुनाता रहा....ताऊजी बीच-बीच में तौलिए से अपनी आँखें पोछते रहे. पहली और आखिरी बार मैने उन्हें इतना भावुक देखा था. यह शायद मेरे लिए उनका स्नेह था जो आँखों से उमड़ पड़ा था.
विवि से रिटायर होने के बाद कमला प्रसाद भोपाल चले गये. कुछ साल म.प्र. शासन की कला परिषद के निदेशक रहे. बीच-बीच में रीवा आते . आने से पहले फोन कर देते. मुझसे ये भी कहते कि नयी कविताएं सुनूंगा. कुछ निजी परेशानियों के चलते मेरा लिखना पढ़ना ठप्प होता जा रहा था. मैं फोन करता तो पूछते कि क्या नया लिखा. मैं उनसे कतराने लगा. वो ऱीवा आते तो मुझे ढुढ़वाते. मैं छुपता रहता. वो भी थोड़ा नाराज़ रहने लगे थे मुझसे. या शायद यह मेरा भ्रम था. मैं इस मुगालते में था कि जब नयी कविता लिखूँगा , तो उन्हें सुनाकर मना लूँगा. कहां जायेंगे विमलेन्दु से रूठकर....पर उन्हें मनाने का मौका नहीं मिला. पिछली फरवरी में कैंसर ने उनकी जान ले ली.......उनकी दर्जनों किताबें हैं. देश के कोने-कोने में उनकी ध्वनियों हैं. पन्ने-पन्ने पर उनकी छवियाँ हैं......पर जिन कमला प्रसाद को मैं अब खोजता हूँ, वो यहाँ नहीं मिलते मुझे.
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