क्रिकेट की असल परीक्षा में भारत एक बार फिर अनुत्तीर्ण हो गया. भारत की हार से जहां ऑस्ट्रेलियाई मीडिया उत्साह के अतिरेक में है, वहीं भारतीय मीडिया और दर्शक अपेक्षाकृत धैर्य रखे हुए हैं. इस समय यह कह पाना कठिन है कि यह ऊब है या उदासी.......देश में कुछ ऐसा माहौल है जैसे कि हमें पूर्वाभास था कि यही होने वाला है. दो-एक लोगों को छोड़ दें तो, उस तरह की उग्र प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिल रही है,जैसी आमतौर पर भारत के हारने पर होती है. हालांकि एक नज़रिए से यह भारतीय क्रिकेट के लिए चिन्ताजनक भी है.
ऑस्ट्रेलिया में उमंग है. हो भी क्यों न ! पिछले दो-तीन सालों से वे पिट रहे थे. दो दशकों की उनकी बादशाहत को इंग्लैण्ड-भारत और दक्षिण अफ्रीका ने खत्म कर दिया था. अब इस जीत के साथ वे खुद को फिर से नम्बर एक के सिंहासन की तरफ जाता हुआ देख रहे हैं. उनके लिए यह जीत कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण है. सबसे पहली बात यह कि भारत को हराने का उनका प्लान-A ही कामयाब हो गया. ऑस्ट्रेलियाई टीम इस बार अपने कुछ प्रमुख खिलाड़ियों के बगैर खेल रही थी. विशेष रूप से उनकी गेंदबाजी बहुत अनुभवहीन थी. मिशेल जॉनसन,बोलिंगर की अनुपस्थिति में उन्होने पैटिन्सन का हौव्वा खड़ा करने की कोशिश की थी, लेकिन पैटिन्सन भी पहले टेस्ट मैच के बाद घायल होकर सीरीज से बाहर हो गये. लेकिन कमाल की गेंदबाजी की उन गेंदबाजों ने जिनसे कोई उम्मीद नहीं थी. हेल्फिनहॉस, सिडल और हैरिस ने भारतीय बल्लेबाजों को एक तरह से दफ़्न ही कर दिया.
इस जीत से सबसे बड़ा फायदा हुआ रिकी पोन्टिंग और कप्तान माइकल क्लार्क को. ये दोनो ही बल्लेबाज़ पिछले दो-ढाई सालों से रनों के लिए तरस रहे थे. पोंटिंग पर सन्यास का दबाव बढता ही जा रहा था. इस सीरीज में उनकी असफलता या तो उन्हें सन्यास के निर्णय तक पहुँचा देती या उन्हें टीम से बाहर ही कर दिया जाता. इस मामले में ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट प्रशासन बहुत निर्मम है.क्लार्क के ऊपर हालांकि इस तरह का खतरा नहीं था क्योंकि पिछले चार पांच वर्षों से उन्हें कप्तान के रूप में तैयार और परिपक्व किया जा रहा था. इन दोनो ही खिलाड़ियों ने इस मौके का खूब फायदा उठाया. इतने रन बटोरे कि हाल की असफलता एक झटके मे ही अदृश्य हो गयी. सीरीज के बीच में ही सुनील गावस्कर ने थोड़ा खिसियाहट में ही कहा था कि जिन टीमों और खिलाड़ियों को अपना रिकार्ड सुधारना हो उन्हें भारत के साथ सीरीज खेलनी चाहिए. कुछ ऐसा संयोग ही रहा है कि जयसूर्या,पोन्टिंग,पीटरसन,लारा आदि दिग्गज जब-जब बुरे दौर से गुजरे, उन्हें भारत ने ही उबारा.
पहला टेस्ट मैच जीतने के बाद ही ऑस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान ने भविष्यवाणी कर दी थी कि भारत यह सीरीज 0-4 से हारेगा. उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई. स्टीव वॉ कोई ज्योतिषी नहीं हैं. लेकिन वो अपने देश की क्रिकेट के मिजाज़ और उसकी रणनीति को समझते हैं. आप भी जानते हैं कि ऑस्ट्रेलिया में क्रिकेट भवना से नहीं, बुद्धि से खेली जाती है. इसीलिए उनके क्रिकेट में सौन्दर्य नहीं होता. आमतौर पर ऑस्ट्रेलियाई, क्रिकेट की अनिश्चितता को खत्म कर देते हैं. उनके यहां अकादमियों में क्रिकेट के हर पहलू पर शोध चलता रहता है. अभ्यास के लिए मशीनों और कम्प्यूटर्स का प्रयोग बहुतायत में होता है. खिलाड़ियों के उपयुक्त शारीरिक गठन के लिए शरीर विज्ञान का सहारा लिया जाता है. हर सीरीज के पहले विपक्षी टीम की क्षमताओं और कमजोंरियों का पूरा विश्लेषण कर लेते हैं.
ऐसी ही तैयारी के साथ ऑस्ट्रेलियाई इस बार भी उतरे थे. स्टीव वॉ नें जब 0-4 से भारत के हारने की घोषणा पहले ही टेस्ट के बाद कर दी तो वो समझ गये थे कि भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया की पहली ही रणनीति में फंस चुकी है. इससे अगर इन्होंने किसी तरह से पार पा भी लिया तो प्लान-B और C से निकलना आसान नहीं होगा. सब जानतें हैं कि ऑस्ट्रेलिया की पिचें दुनिया की सबसे तेज़ पिचें हैं. हालांकि इंग्लैण्ड, अफ्रीका,न्यूजीलैंड,वेस्टइंडीज में भी एक जमाने में बहुत उछाल वाली पिच हुआ करती थीं, लेकिन अब इन पिचों का मिजाज़ बदल गया है. धीरे-धीरे ये पिचे धीमी होती गयीं. लेकिन ऑस्ट्रेलियाई प्रशासन ने अपनी पिचों का ख़याल रखा और उन्हें धीमा नहीं होने दिया. चार मैचों की सीरीज के शुरुआती तीन मैच मेलबर्न, सिडनी और पर्थ की तेज पिचों पर रखे गये. इन तीनों मे से पर्थ की पिच सर्वाधिक तेज़ है, जहां ऑस्ट्रेलिया से मुकाबला करना लगभग असंभव होता है. चौथा मैच एडिलेड की अपेक्षाकृत धीमी पिच पर हुआ. यह पिच उतनी ही धीमी है जितनी हमारे देश की सर्वाधिक तेज़ मोहाली की पिच. एडिलेड को ही माना जा रहा था कि यहां स्पिनरों को मदद मिलेगी. अगर ऐसा हो भी जाता तब भी पिछले तीन मैचों में ऑस्ट्रेलिया ने भारत की वापसी की सभी संभावनाएं खत्म कर दी थीं.
भारतीय उपमहाद्वीप के बल्लेबाज फ्रंटफुट पर ज़ोरदार खेलते हैं, क्योंकि यहां कि पिचों पर उछाल ज्यादा नहीं होती और हवा में गेंद स्विंग भी कम करती है. स्विंग पाने के लिए हमारे गेंदबाज ज्यादातर गुड लेन्थ पर बॉल डालते हैं. ऐसी गेंदों पर फारवर्ड शॉट खेलना या डिफेन्स करना सुरक्षित होता है. इसीलिए हमारे सभी बल्लेबाज फारवर्ड शॉट या डिफेन्स में माहिर होते हैं. बैकफुट पर जाकर कट करने या डिफेन्स करने का उनका अभ्यास हो ही नहीं पाता. यह कमजोरी सचिन समेत हमारे सभी महान बल्लेबाजों में रही है. कुछ हद तक गुन्डप्पा विश्वनाथ,सुनील गावस्कर और राहुल द्रविड़ ही इस मिथ को तोड़ पाये हैं. इस सीरीज में द्रविड़ तो थे लेकिन बढ़ती उम्र ने उके पैरों की मूवमेन्ट को शायद इतना प्रभावित किया है कि वो भी असफल रहे. द्रविड़ आठ में से छः बार क्लीन बोल्ड आउट हुए. हर बार उनके बैट और पैड के बीच में एक ऐसी अवांछित दरार रह जाती थी, जिसने उन्हें अपमानजनक तरीके से सन्यास के बारे में सोचने के लिए विवश कर दिया.
ऑस्ट्रेलिया के मौसम और पिचों में गेंद कम लम्बाई में भी पर्याप्त स्विंग हासिल कर लेती है, और उछाल तो रहती ही है. ऐसी गेंदों को खेलने के लिए ऐसे बल्लेबाज चाहिए जो बैकफुट पर जाकर कट,हुक और पुल शॉट खेल सकें. दुर्भाग्य से हमारे पास एक भी ऐसा बल्लेबाज नहीं था. जबकि ऑस्ट्रेलिया के दसवें और ग्यारहवें क्रम के बल्लेबाज भी ये शॉट आसानी से खेल लेते हैं...एक बात और ...इस पूरी सीरीज में कूकाबुरा गेंदों का इस्तेमाल हुआ. भारतीय उपमहाद्वीप में पूरी क्रिकेट एसजी गेंदों से खेली जाती है.कूकाबुरा गेंदें, एसजी के मुकाबले ज्यादा स्विंग होती हैं. इसका भी फर्क ज़रूर पड़ा होगा. यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इन परिस्थितियों का फायदा हमारे तेज गेंदबाज क्यों नहीं उठा पाए ? पूरी सीरीज में हमारे तेज गेंदबाजों-उमेश यादव,जहीर खान,इशान्त शर्मा-ने शानदार गति प्राप्त की लेकिन सही लंबाई और दिशा उन्हें अंत तक नहीं मिल पाई. गुडलेन्थ पर गेंद डालने के अभ्यासी हमारे तेज गेंदबाज बड़े संकोच के साथ शॉर्टपिच गेंदें डालते थे. उनकी इस दुविधा का फायदा ऑस्ट्रेलिया के बल्लेबाजों ने उठाया और रन बरसाते रहे.
इस दौरे के शुरू होने के पहले मैने एक आलेख में लिखा था कि अब सचिन,द्रविड़,लक्ष्मण के विकल्प खोज लिए जाने चाहिए. उस वक्त जबकि वेस्टइंडीज के साथ इन खिलाड़ियों ने जोरदार प्रदर्शन किया था, इनके विकल्पों की बात करना एक दुस्साहस ही था. मेरा मानना था कि हर मैच में इस त्रिमूर्ति के किसी एक बल्लेबाज को आराम देकर किसी नये खिलाड़ी को प्रत्यारोपित किया जाये. मेरे ज़हन में चार नाम थे—रोहित शर्मा,चेतेश्वर पुजारा,विराट कोहली और बद्रीनाथ. इन खिलाड़ियों के पास टेस्ट क्रिकेट लायक तकनीक और टेम्प्रामेन्ट है.लेकिन भारतीय टीम के थिंक टैंक ने लगातार इस त्रिमूर्ति को बनाए रखा और वे असफल होते रहे.
यह असफलता विशेष रूप से कोच और कप्तान की असफलता है. विपक्षी टीम की रणनीति का तोड़ ढूँढ़ना कोच और कप्तान का काम होता है. हारना तो खेल का एक हिस्सा है, लेकिन हमारी टीम ने ऑस्ट्रेलिया का मुकाबला ही नहीं किया.जब हम लगातार हार रहे थे तो टीम ने अपने तौर-तरीके में कोई बदलाव नहीं किया. न हमने खिलाड़ियों का संयोजन बदला न ही खिलाड़ी बदले. पूरी सीरीज में हमारे खिलाड़ी एक ही जगह पर एक ही तरीके से पस्त होते रहे. धोनी की कप्तानी की जो शैली अभी तक कामयाब होती आई थी वही उनकी नाकामयाबी का कारण बनी. धोनी शान्त चित्त रहकर चीजों के अपने पक्ष में घटित होने की प्रतीक्षा करते हैं. पर कंगारुओं नें ऐसा नहीं होने दिया. टीम लगातार चार मैच हार गयी और एक भी खिलाड़ी बदला नहीं गया. कोच डंकन फ्लेचर का कहीं अता-पता नहीं था. टीम में गुटबाजी की खबरें भी आती रहीं. संभव है कि ऑस्टेलिया से लौटने पर टीम में कुछ बदलाव हों. उम्मीद की जानी चाहिए कि ये बदलाव भारतीय क्रिकेट के भविष्य को बेहतर बनायेंगे.
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