गांधीजी की सांस्कृतिक उपस्थिति इतनी ज़बरदस्त है हमारे बीच कि एक आम
भारतीय भी, जिसने गांधी को व्यवस्थित ढंग से नही भी पढ़ा है, उन पर बोलने का हक
रखता है. गांधीजी की व्याप्ति जन-मानस में इतनी वृहद है कि उन्हें जानने के लिए
उनके बारे में ज्यादा पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती. लेकिन गांधी के इस लोकव्यापीकरण
की वजह से ही उन पर सोचने और उनको समझने के कम से कम दो नज़रिए हर वक्त रहे हैं.
लेकिन गांधीजी को समझा नहीं गया. जा मार्क्स को नहीं समझा गया. या यह कहना ज़्यादा सही होगा कि उन्हें गलत समझा गया.
दरअसल विकास के क्रम में—चाहे वो गांधी हों या मार्क्स—उनके दर्शन के पूरे
स्वरूपों को समझने के लिए हम एक विश्व-समुदाय की तरह विकसित नहीं हुए हैं.
गांधीवाद और साम्यवाद के जो स्वरूप हमें बीसवीं सदी में दिखाई दिए थे, वे विकास के
क्रम में ऐसा लगता है कि प्री-मेच्योर सामाजिक प्रयोग थे. जो इतिहास में अपनी गलत
जगह उपस्थिति के कारण सफल नहीं हो पाये.
हम प्राणी जगत के विकास की प्रक्रिया को
देखें तो पायेंगे कि बहुत सी प्रजातियां, जो अपने समकालीनों से हर दृष्टि से अधिक
विकसित और श्रेष्ठ थीं, वे विकास के कालक्रम में समयपूर्व आ गयीं और नष्ट हो गयीं.
उसके बाद जब उपयुक्त काल आया तो वे प्रजातियां सर्वाधिक सफल हुईं जो अपनी
पूर्ववर्ती श्रेष्ठ और लुप्त प्रजातियों की नकल सी दिखाई देती थीं और कई बार उनसे
हीन भी. इसके अतिरिक्त एक और बात भी किसी चीज़ के सफल या असफल होने की नियंता होती
है.
इसे हम Law Of Randomization से समझ सकते हैं. कई बार बहुत सी कमतर जातियाँ
भी सफल हो जाती हैं, और कुछ बेहतर प्रजातियाँ भी असफल रह जाती हैं. इसके पीछे
अकारण ही एक संयोग का तत्व काम करता है. विचारों या दर्शन के क्षेत्र में भी ऐसी
ताकतें लगातार काम करती रहती हैं. मसलन गांधी या मार्क्स जैसे प्रयोग ही सौ बार
हों, तो हो सकता है कि सत्तर बार कामयाब हो जायें और तीस बार नाकामयाब हों. जिन
प्रयोगों को हमने देखा, वे हो सकता है पहले प्रयोग थे जो तीस प्रतिशत असफल के खाते
में चले गये. ऐसी कारगर वैज्ञानिक ताकतों की हम अनदेखी नहीं कर सकते, जो अधिकांशतः
मानव-निरपेक्ष चलती हैं.
किसी महापुरुष का उसके जीवनकाल में मूल्यांकन करना अथवा इतिहास में
उसके स्थान का निर्धारण करना आसान काम नहीं होता. गांधीजी ने एक बार कहा था—“ सोलन को किसी
व्यक्ति के जीवनकाल में उसके सुख के विषय में निर्णय देने में कठिनाई हुई थी, ऐसी
सूरत में मनुष्य की महानता के विषय में निर्णय देना तो और कठिन काम है.” गांधी की मृत्यु
पर पूरी दुनिया ने ऐसा शोक मनाया, जैसा मानव इतिहास में किसी अन्य मृत्यु पर नहीं
मनाया गया था. जिस तरह से उनकी मृत्यु हुई उससे यह दुख और बढ़ गया था.
गांधीजी के वे कौन से गुण हैं जो उन्हें महान
बनाते हैं. इतिहास इस बात को भी दर्ज़ करेगा कि इस छोटे से दिखने वाले आदमी का
अपने देशवासियों पर इतना ज़बरदस्त प्रभाव था कि उसकी मिसाल नहीं मिलती. यह आश्चर्य
की ही बात है कि इस प्रभाव के पीछे कोई अलौकिक शक्ति या अस्त्र-शस्त्रों का बल
नहीं था. गांधीजी की इस गूढ़ पहेली का रहस्य, लार्ड हैलीफेक्स के मतानुसार है-उनका
श्रेष्ठ चरित्र और स्वयं को मिसाल के रूप में रखने वाला उनका आचरण था. लार्ड हैलीफेक्स
नमक-सत्याग्रह के दिनों में भारत के वायसराय थे और गांधी के काफी नज़दीक आये थे.
लेकिन गांधीजी के अभूतपूर्व उत्कर्ष के पीछे
केवल ये ही कारण नहीं थे. रेजिनॉल्ड सोरेनसन का मानना था कि गांधीजी का केवल भारत
पर ही नहीं, बल्कि हमारे पूरे आधुनिक युग पर जो व्यापक प्रभाव था उसका कारण यह था
कि वे आत्मा की शक्ति के साक्षी थे, और उन्होंने उसका अपने राजनीतिक कार्यक्रमों
में इस्तेमाल करने का प्रयास किया. अहिंसा
और सत्य के सिद्धान्तों को गांधीजी ने एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल करने की कला
विकसित की थी.
आज़ादी के बाद की पीढ़ी का जो द्वंद्व है, वह
भी गांधीजी ने दिया. गांधी न हों तो यह द्वंद्व न हो. गांधी इस द्वंद्व के मूल
कारण हैं, न कि मार्क्स !
द्वंद्व देने
वाले गांधी हैं, वरना अब तक यह सदी अमेरिका की हो गयी होती. अमेरिका के सामने भी
गांधीजी द्वंद्व खड़ा करते हैं. इस बात पर हो सकता है मार्क्सवादियों को एतराज़ हो. पर
ज़रा ध्यान से देखिए कि द्वंद्वाद के सबसे बड़े सिद्धान्तकार मार्क्स इसे ज़मीनी
हकीकत में नहीं बदल सके. यह सिद्धान्त खूब पढ़ा और समझा गया, लेकिन दुर्भाग्य से
बौद्धिक विमर्श तक ही सीमित रह गया. गांधी ने सिद्धान्त नहीं दृष्टान्त दिए.
उन्होंने विश्व के सामने पूँजी-श्रम, हिंसा-अहिंसा, गोरे-काले, प्रकृति-मशीन,
आत्म-अनात्म का द्वंद्व रखा और विश्वभर के मानव समुदाय का ध्रुवीकरण करने में सफल
रहे. गांधी की इस सफलता ने ही संभवतः मार्क्सवादियों में उनके प्रति ईर्ष्या-भाव
पैदा किया होगा. तत्कालीन हिन्दुस्तानी कम्युनिस्टों ने गांधी को एक चालाक नेता
कहा, जो युवकों की ऊर्जा को ऐसी दिशा में मोड़ देता था ताकि ब्रिटिश
साम्राज्यवादियों और भारतीय पूँजीपतियों के हितों पर आँच न आये.
अलबत्ता उनकी नीतियों की उपादेयता और
प्रासंगिकता पर बहस हो सकती है. गांधी की तरह के लोग विरले होते हैं. गांधीजी
जितने सरल दिखाई देते हैं, उतने वो हैं नहीं. उनका व्यक्तित्व बहुत पेचीदा है.
मसलन उन्होने वर्णवाद को तो बनाये रखने में रुचि दिखाई, मगर दूसरी ओर उन्होंने
चाहा कि हिन्दू समाज से ऊँच-नीच खत्म हो. उन्होंने समतामूलक-समाज की कल्पना की और ट्रस्टीशिप
की बात कही, मगर बिड़ला जैसे पूँजीपतियों को गले लगाये रखा. यह द्वंद्व बहुत
पेचीदा और संश्लिष्ट व्यक्तित्व में हो सकता है.
मुझे लगता है कि गांधीजी की अचानक मृत्यु ने
उनके बहुत सारे प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ दिया. सन् 62 के समय गांधीजी अगर जीवित
होते तो दार्शनिक स्तर पर बहुत अजीब स्थितियों में फंस जाते. उनकी अहिंसा पर बहस
शुरू हो जाती. गांधी का मानना है कि अहिंसा किसी भी सामाजिक अभियंता के लिए एक
बहुत कारगर औजार है—जनचेतना का भी और परिवर्तन का भी. लेकिन हिंस्र पशुओं के बीच
अहिंसा बेकार हो जाती है. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध और इस सदी की शुरुआत में, जब
मानव समाज में ही कई बड़े-बड़े रिश्ते हिंस्र पशुओं जैसा आचरण करने लगें, और विचार कोई मुद्दा न रह जाये तो अहिंसा बेमानी
सी लगती है. अहिंसा विकसित समाजों में ही संभव है.
गांधीजी ने हमारे समय की तीन प्रमुख क्रांतियों
को चाहे आरंभ न किया हो, लेकिन उन्हें उद्दीप्त अवश्य किया. ये क्रांतियां हैं—नस्लवाद
के विरुद्ध क्रांति, उपनिवेशवाद के विरुद्ध क्रांति और हिंसा के विरुद्ध क्रांति.
वे इतना जिए कि पहली दो क्रांतियों में अपने प्रयासों की सफलता को देख सके. लेकिन
हिंसा के विरुद्ध क्रांति अभी चल ही रही थी कि एक हत्यारे ने उन्हें मंच से हटा
दिया.
गांधीजी उस दिन के लिए काम कर रहे थे जब
अन्तर्राज्यीय झगड़ों मे भी हिंसा को उसी तरह अबैध घोषित कर दिया जायेगा, जैसे
राष्ट्र/राज्यों की सीमाओं के भीतर उसे गैरकानूनी कर दिया गया है. यह विरोधाभास ही
है कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रवाद का एक उग्रतम पक्षधर, एक उत्साही
अंतर्राष्ट्रीयतावादी भी था. बहुत पहले 1924 में उन्होंने घोषणा की थी—“ संसार का बेहतर
मस्तिष्क आज ऐसे पूर्ण स्वायत्त राज्य नहीं चाहता जो आपस में लड़ रहे हों, बल्कि
मैत्रीपूर्ण, परस्पर निर्भर राज्यों का एक संघ चाहता है.”
मशीनीकरण की जिन विकृतियों पर हम आज हाय-तौबा
मचा रहे हैं, गांधी ने उनकी तरफ 1909 में
ही इशारा कर दिया था. वे कहते थे—“ ऐसा नहीं होना चाहिए कि मशीनें मनुष्य के हाथ-पैरों को
ही बेजान बना दें.......मुझे आपत्ति मशीनों से नहीं, बल्कि मशीनों के पीछे दीवाना
हो जाने से है. यह दीवानगी तथाकथित श्रम-बचाऊ मशीनों के लिए है. लोग तब तक श्रम
बचाते जाते हैं जब तक कि हज़ारों लोग बेरोज़गार होकर भूखों मरने की स्थिति में
सड़कों पर नहीं आ जाते..........मैं ऐसी मशीनों का कतई हिमायती नहीं हूँ जो या तो
बहुत से लोगों को गरीब बनाकर मुट्ठीभर लोगों को अमीर बनाती हैं, या अनेक लोगों के
उपयोगी श्रम को अकारण विस्थापित कर देती हैं.”
गांधीजी भारत को समझते थे. उनकी परिकल्पना
विकेन्द्रीकरण की ओर उन्मुख थी जहाँ संसाधनों पर और राज्यसत्ता पर एकाधिकार न हो.
यह एक स्वप्नशीलता थी. गांधीजी ने नैतिकता का जो यूटोपिया बनाया, वह महत्वपूर्ण
था. गांधीजी एक तरह से राजनीतिक व्यवहारिकता का प्रतिवाद भी कर रहे थे. गांधीजी
मानते थे कि राजनीतिक सत्ता के जो तमाम अंगोपांग होते हैं, उनसे आक्रान्त होने के
बावजूद नैतिक बने रहना संभव है. यह उनकी सबसे बड़ी ताकत थी और वह पिछली सदी के
सबसे सहिष्णु व्यक्ति थे.
गांधीजी ने अतार्किकता का जो ढांचा बनाया था,
वह एक तरह से आधुनिकता के तर्कवाद का बहुत सक्षम प्रतिवाद था. जिस सादगी और
हिम्मत, निबंधता और स्वतंत्रता की उन्होंने परिकल्पना की, वह दरअसल आधुनिकता और
उसमें छुपी हुई युयुत्सा और युद्धवाद का प्रतिपक्ष थी. मुझे लगता है कि जो
आदिमयुगीनता गांधीजी के दर्शन में है, वह बहुत सारे अत्याचारों के विरुद्ध हमारा
विकल्प बन सकती है.
बुद्ध के बाद गांधी ने ही समाज को एक बहुत
बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा. उन्होंने सिर्फ समाज के साथ मनुष्य के रिश्ते की ही
चिन्ता नहीं की, बल्कि अपनी चिन्ता के दायरे में पर्यावरण को शामिल किया,
मनुष्येत्तर प्राणियों को भी शामिल किया. समाज की सारी चिन्ताओं से अपने को जोड़ने
की गांजीजी की क्षमता अप्रतिम थी. वह इस मायने में वाकई राष्ट्र के पिता की तरह
लगते हैं जो पूरे परिवार का ध्यान रखता है.
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