यह देश इस कदर उत्सव-प्रिय देश है, कि बाहर से देखने पर अधिकांश समय
उत्सव-ग्रस्त नज़र आता है. हमारे यहाँ जन्म से मरण तक हर गतिविधि, उत्सव का विषय
है. हमारी उत्सव-प्रियता सिर्फ उल्लास और आनन्द से ही नहीं उपजती, बल्कि इसमें
हमारे आत्मसंघर्ष का गौरव, आपराध-बोध का तर्पण और पीड़ा का निरसन भी लक्ष्य होता
है. इन्हीं उत्सवों के भीतर भारतीय समाज के विकास की यांत्रिकी भी छुपी हुई है.
ऐसा देखा होगा आपने कि भारतीय समाज जैसे समाजों के लोग मनोरोगों से कम ग्रस्त होते
हैं, क्योंकि उनकी दमित इच्छाओं की अभिव्यक्ति के लिए इन्हीं उत्सवों में अवकाश
मिल जाता है.
भारत में लोग भूख और जुक़ाम से भले
मर जाते हों पर मनोरोगों से कम ही लोगों को मरना पड़ा होगा. भारतीय परिस्थितियों
में हमारी उत्सव-प्रियता, इस देश के नागरिक जीवन की अदम्य जिजीविषा का सबसे
प्रामणिक प्रतीक है. यहाँ की गरीबी, भुखमरी को सरकार जितना ही चाँदी के बर्क से ढँकती है, उतनी ही
हमारी दयनीयता अपने पूरे वैभव के साथ उछल कर बाहर आ जाती है. यही गरीब और भूखे
लोग, आधे पेट और फटे कपड़ों में, इस महान देश की अनादि संस्कृति को सुरक्षित और
गतिमान बनाए हुए हैं.
यह उत्सवों का मौसम है.
दस दिनों तक गणेश उत्सव की धूम के बाद पन्द्रह दिन पितरों की सेवा. नौ दिनों तक
नवरात्रि की जगमग के बाद दशहरे के दिन रोशनी का विस्फोट. उत्सवों का यह कारवां
दीपावली से होता हुआ छोटी दीपावली पर जा कर ख़त्म होगा. इस बीच हमारे रोजमर्रा के
सुख-दुख, हानि-लाभ अनवरत चल रहे हैं. इन्हीं के साथ हम उत्सवों में शामिल हो रहे
हैं अपने अद्वितीय रंग और ढंग से.
हमारे ज़्यादातर
त्यौहार और उत्सव सामूहिक होते हैं.अब समूहों की प्रकृति और चर्या बदल रही है. अभी
गणेश उत्सव और नवदुर्गा उत्सव सम्पन्न हुए तो हमारा पूरा शहर आक्रान्त हो
गया.प्रभात-वेला से अर्धरात्रि तक अनथक बजते, फिल्मी गीतों की पैरोडी वाले गीतों
ने ईश्वर का खयाल तक नहीं आने दिया. इस बार ‘मुन्नी बदनाम हुई ‘ ‘शीला की जवानी’ ‘ टिन्कू जिया ‘ की तर्ज़ पर बने गीतों का जलवा था.शहर के सारे पंडित इस बार संगठित हो
गए थे. उन्होंनें घोषणा कर दी थी कि पांच हज़ार से कम में इस बार कोई पंडित पंडाल
में नहीं बैठेगा. नवरात्रि के मौके पर पंडितों की भारी कमी हो जाती है. पंडाल
आयोजकों को कई बार वैकल्पिक रास्तों की भी खोज करनी पडती है.
हमारे पड़ोस वाले
मोहल्ले के युवाओं ने इसी जुगत के चलते एक नाई को धोती-कुर्ता पहना कर पंडित बना
दिया. देवी की आरती तो उसे याद ही थी, संस्कृत के दो-चार श्लोक भी उसने रट लिए.
मेरी नज़र उस पर पड़ी तो मैने व्यवस्थापकों से पूछा कि भाई ये क्या माज़रा है. उन
लोगों ने अपनी लाचारी बताई कि पंडितों ने अपना रेट बढ़ा दिया है और इतना चन्दा इस
बार इकट्ठा नहीं हो पाया कि दे पाते, तो महेश को ही बैठा दिया.मुझसे इस राज़ को
किसी से न कहने का आग्रह किया, जिसे मैने मान लिया.
इस उत्सव के दौरान
पंडितों की एक नई जमात ही अवतरित हो जाती है. शहर से लगे गावों से सैकड़ों युवक और
बुजुर्ग धोती-कुर्ता धारण कर शहर आ जाते हैं. पहले तो ये जुगाड़ करते हैं कि कुछ
सम्पन्न घरों की धर्म-परायण महिलाओं की दृष्टि इन पर पड़ जाये और घर में ही पूजा-पाठ
कराने का ठेका मिल जाये. यह बड़ा आरामदायक रहता है. मेहनत कम पड़ती है.
दान-दक्षिणा भी बढ़िया मिल जाता है और अप्रत्याशित विनोद का भी पर्याप्त अवसर रहता
है.
यद्यपि विनोद के अवसर
पंडालों में भी कम नहीं होते. सुन्दर भक्तिनों को पंडित जी पूरे विधान से हवन
करवाते हैं. अक्सर तो किसी सुन्दरी को अपना सहायक ही बना लेते हैं. प्रसाद बनाना, हवन
की तैयारी करना आरती का संचालन आदि काम उसके जिम्मे होते हैं. अर्थात उस
भक्तिन-विशेष को सबसे पहले पंडाल में आना होता है और सबसे बाद में जाना होता है.
मूलतः यह उत्सव युवाओं
का होता है. शहर के जितने भी गंजेड़ी-भंगेड़ी-शराबी-लड़कीबाज़ युवक हैं, दुर्गा
स्थापना की महती ज़िम्मेदारी वही अपने कंधों पर उठाते हैं. इस महाआयोजन के लिए धन
की आवश्यकता होती है, जिसके लिए चंदा उगाहा जाता है. चंदा उगाहना एक बेहद रोमांचक
उपक्रम है. इन दिनों यह संभव ही नहीं की शहर के मार्गों से कोई टैक्सीवाला, ट्रकवाला,
रिक्शेवाला बिना चंदा दिए गुज़र जाये. डंडों और पत्थरों से लैस युवा देवी भक्त इस
कार्य में बहुत निपुण होते हैं. शाम को युवतियों की उमंग देखते ही बनती है. दरअसल
यही इस उत्सव की असली रौनक होती हैं. ये पूरे श्रृंगार और बन-ठन के साथ घरों से
निकलती हैं. अक्सर टोलियों में होती हैं. इनका उत्साह वैसा ही होता है जैसे सिनेमा
देखने के लिए निकलते समय.
जिस पंडाल में युवतियों
की भीड़ ज्यादा पहुंचती है, वह उतना ही बड़ा हिट माना जाता है. उसी अनुपात में
वहां पुरुष भक्तों की भीड़ भी पहुँचती है. जो युवक होते हैं वो दो-तीन घंटे में कई
पंडालों का चक्कर लगा आते हैं. उन्हे पता रहता है कि किस ज़गह कब जाना है.इन दिनों
ये कला पारखी भी होते हैं.इनके मोबाइल युवतियों की आड़ी-तिरछी कलाओं को रिकॉर्ड
करते ज़रा भी नहीं थकते. जो कुछ बुजुर्ग भक्त होते हैं वो पॉपकार्न या मूगफली का
पैकेट लेकर किसी एक ही पंडाल पर अड्डा जमा लेते हैं.
पन्द्रह-बीस साल पहले
शहर में केवल एक ही दुर्गा पंडाल सजता था. इसे शहर का बंगाली समाज बनाता था. लोग
वहीं पहुच कर दर्शन करते थे. धीरे-धीरे पंडालों का स्वरूप भी बदलता गया और भक्तों
का भी. इस साल शहर में जिन समूहों ने पंडाल सजाये उनके नाम देखिए—सर्राफा व्यापारी
दुर्गा उत्सव समिति, तरुण वैश्य समाज, रेवांचल व्यापार मंडल, किराना व्यापारी
दुर्गोत्सव समिति, ट्रक ऑपरेटर्स समिति.......यही हाल गणेश उत्सव के समय भी था.
हमारी आस्था, पर्व,
त्यौहार सब अब दूकानदारों के हवाले है. अब वही तय करते हैं कि होली कैसे खेलनी है,
तीजा-राखी-करवांचौथ कैसे मनाना है और दीवाली-दशहरा कैसे करना है. होली पर चीन के
बने रंग और पिचकारियों और राखी पर चीन की ऱाखियों से बाज़ार भर जाता है. स्थितियां
कुछ ऐसी हो गयी हैं कि अब हम उत्सवों में शामिल कर लिए जाते हैं, उत्सवों का उत्स
हमारे भीतर नहीं होता. हमारी हस्तकलाओं की अकालमृत्यु हो चुकी है. हम एक नकली
सामूहिकता में जी रहे हैं. हम समूह में तो होते हैं लेकिन सहकारिता का बोध नहीं
होता.
नवदुर्गा उत्सव का शोर दशहरे के दिन रावण-वध के
साथ समाप्त होगा. पता नहीं दशहरे के
दिन रावण-वध की प्रथा कब और कैसे शुरू हो गयी, जबकि रामचरित मानस
या बाल्मीकि के रामायण में कहीं भी रावण के मारे जाने की तिथि का उल्लेख नहीं है.
राम-कथा के दूसरी भाषाओं के जो ग्रंथ हैं, उन सब
का आधार रामायण ही है. अतः वहां से प्रमाण खोजना प्रासंगिक नहीं होगा.
हां, निराला ने अपनी लम्बी कविता ' राम की शक्तिपूजा ' में
ज़रूर उल्लेख किया है कि आश्विन(क्वांर) मास की दशमी तिथि को राम ने रावण का वध किया.
रावण पर जब राम के सारे अस्त्र-शस्त्र बेअसर हो रहे थे तो हताश राम ने शक्ति की
आराधना शुरू की. यह आश्विन मास की प्रतिपदा(प्रथम) तिथि थी. लगातार नौ दिनों तक
कठिन आराधना चली. अपना एक जाप पूरा करने के बाद राम कमल का फूल देवी को चढ़ाते थे.
एक दिन देवी ने फूल ही चुरा लिए. राम असमंजस में पड़ गये. तब राजीव-नयन (कमल जैसी
आँखों वाले) राम ने देवी को अपनी आँखें चढ़ाने का निश्चय किया. ऐन वक्त पर शक्ति
ने प्रकट होकर राम को रोक लिया और रावण पर विजय का वरदान दे दिया. दसवें दिन राम
ने रावण का वध कर दिया.....निराला की इस कथा में रावण वध की जो तिथि बतायी गयी है
उसका आधार क्या हो सकता है..? कदाचित निराला ने
लोक-परंपराओँ को ही आधार बनाया हो..!!
वैसे भी लोक-भाषा में
दशहरा को ' दसराहा ' कहा
जाता है, खासतौर से हिन्दी क्षेत्र में. मान्यता है
कि रावण की मृत्यु के बाद, इस दिन से शुभ
कार्यों के लिए दसों दिशाएँ खुल जाती हैं. चार महीने वर्षाकाल में ज़्यादातर काम
बन्द ही रहते हैं. दशहरे के आस-पास से ही नयी फसल का आना शुरू होता है. मौसम भी
खुशनुमा होने लगता है.नवरात्रि की पूजा से ही उल्लास का वातावरण बनने लगता है.
बड़ी विचित्र बात है
कि हज़ारों पर्वों-त्यौहारों के इस देश के नागरिकों का जीवन एकाकी, नीरस और
अवसादग्रस्त होता जा रहा है. इतने रंगों के बावजूद लोगों की रंगत गायब होती जा रही
है. कारण साफ हैं. हमें अपने उत्सवों को व्यापारियों से वापस लेना होगा. हमें
गुझिया-खुरमी-सलोनी-खीर-सेवइंयाँ बनाने की अपनी कला को पुनर्जीवित करना होगा. केले
के पत्तों और आम की टेरी से बनदनवार सजाने होंगे. हमें अपने घरों को बचाना है तो
हल्दी भरे हाथों की छाप फिर लगानी होगी दीवारों पर !!
1 comment:
यूं पंडाल पंडाल डोलना कित्ना हास्यास्पद सा लगता है
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