स्मृतियाँ
जीवन की गुल्लक में.
आँखों से चुराकर सहेजे गये
इन सिक्कों पर
जितनी चढ़ती जाती है
समय की धूसर परत
उतनी ही कम होती जाती है
इनकी खनक.
एक अदृश्य रात में
जब कोई टूटा हुआ तारा
टकरा जाता है इस गुल्लक से
तो बज उठते हैं
हमारे सबसे अश्पृश्य राग.
जीवन के अंकगणित में
शेषफल होता है यह धन
जिसे अब और
विभाजित किया जाना
नही होता संभव.
अपने सबसे गाढ़े दिनों मे
घर के
किसी विस्मृत कर दिए गए कोने से
हम निकालते हैं गुल्लक
और झाड़-पोंछ कर
फिर रख आते हैं
विस्मृति के उसी कोने में.
और प्रतीक्षा करते हैं
किसी तारे के टूटने की ।।
2 comments:
http://www.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_780.html
बेहतरीन रचना.....
गहन भाव समेटें हैं विमलेन्दु जी...
बहुत सुन्दर!!
अनु
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