चार नवंबर को इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल के
बारह साल पूरे हो गये. किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए यह अनुपम शर्म की बात होनी
चाहिए. इस तरह की नज़ीर तो शायद पाँच साल पहले के मिस्र, सीरिया, युगांडा आदि के
निजाम में भी शायद ही मिले. अगर हम इरोम की मागों की वैधता और औचित्य की बात को न
भी करें , तो भी उनकी दीर्घकालीन हड़ताल कई सवाल पैदा करती है. उनकी हड़ताल सरकार
की क्षेत्रीय भेदभाव की नीति, भारतीय राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी और देश के
बौद्धिक वर्ग के चरित्र को उजागर करती है. एक तरफ हमारे देश में आये दिन होने वाली
हड़तालें और आन्दोलन हैं, तो दूसरी तरफ एक साधारण व्यक्ति भी जानता है कि ये
आन्दोलन सिवाय राजनीतिक विलास के कुछ नहीं हैं. इन आन्दोलनों की संस्कृति के आलोक
में इरोम शर्मिला के आन्दोलन को देखें तो यह हमारे नागरिक अधिकारों पर एक त्रासद
टिप्पणी नज़र आती है.
हमें यह सोचना चाहिए कि एक ऐसे देश में जहाँ
संविधान में गहरी आस्था है और जहाँ विकट से विकट समस्याएँ लोकतांत्रिक तरीकों से
सुलझा ली जाती हैं, उसी देश में एक महिला को सरकार बारह सालों से मृत्यु जैसी
परिस्थितियों में रखे हुए है. इतने सालों में सरकार ने उनकी भूख हड़ताल को खत्म
कराने का कोई गंभीर प्रयास क्यों नही किया ! पूर्वोत्तर के राज्यों
के प्रति केन्द्र सरकारों का रवैया हमेशा उपेक्षापूर्ण रहा है. इसकी वज़ह शायद इन
राज्यों की राजनीतिक अनिश्चितता, और सांस्कृतिक-भौगोलिक भिन्नता रही होगी.
अरुणांचल, मणिपुर, नागालैण्ड, असम आज भी इतने पिछड़े राज्य हैं कि देश के दूसरे
राज्यों से इनकी तुलना भी शर्मनाक होगी. जबकि यही राज्य देश के प्राकृतिक संसाधनों
के सबसे के सबसे बड़े स्रोत हैं. औद्योगिक विकास और विलासिता की बात सोचना तो दूर,
यहाँ के लोग रोटी-कपड़ा-मकान के बुनियादी सूत्र को भी अभी तक ठीक से हल सके हैं.
भूखों और नंगों की बात कौन सुनता है. दूसरी बात यह भी कि आज़ादीके पहले से ही ये राज्य देश के संघीय स्वरूप पर एक प्रश्न-चिन्ह की तरह रहे हैं, और आज़ादी के बाद भी कई वर्षों तक इनकी राजनीतिक निष्ठा पर संदेह जताया जाता रहा है. केन्द्र सरकारों का आत्मविश्वास डगमगाया रहा है. देश का यही इलाका है जहाँ सबसे अधिक विदेशी घुसपैठिए हैं. यही इलाका है जहाँ राष्ट्रीय राजनीतिक दलो का प्रसार और प्रभाव सबसे कम है. इन प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक वर्चस्व रहा है. राष्ट्रीय महत्म के मुद्दों पर इन राज्यों की सहभागिता भी अत्यन्त न्यून है, और चिन्ता की बात तो बहुत दूर है. यहाँ के क्षेत्रीय क्षत्रपों की चीन और बांग्लादेश के शासनतंत्र के साथ अघोषित सम्पर्क की चर्चा भी होती रही है. और केन्द्र सरकारों से भी यह बात छुपी हुई नहीं है.
भूखों और नंगों की बात कौन सुनता है. दूसरी बात यह भी कि आज़ादीके पहले से ही ये राज्य देश के संघीय स्वरूप पर एक प्रश्न-चिन्ह की तरह रहे हैं, और आज़ादी के बाद भी कई वर्षों तक इनकी राजनीतिक निष्ठा पर संदेह जताया जाता रहा है. केन्द्र सरकारों का आत्मविश्वास डगमगाया रहा है. देश का यही इलाका है जहाँ सबसे अधिक विदेशी घुसपैठिए हैं. यही इलाका है जहाँ राष्ट्रीय राजनीतिक दलो का प्रसार और प्रभाव सबसे कम है. इन प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक वर्चस्व रहा है. राष्ट्रीय महत्म के मुद्दों पर इन राज्यों की सहभागिता भी अत्यन्त न्यून है, और चिन्ता की बात तो बहुत दूर है. यहाँ के क्षेत्रीय क्षत्रपों की चीन और बांग्लादेश के शासनतंत्र के साथ अघोषित सम्पर्क की चर्चा भी होती रही है. और केन्द्र सरकारों से भी यह बात छुपी हुई नहीं है.
यद्यपि ये राज्य गरीब और साधन-विहीन हैं
लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत की सबसे कमज़ोर कड़ी बन जाते हैं. आज़ादी
के बाद भारतीय संघ में विलय को लेकर जो अनमनापन इन राज्यों में था वो शायद अभी तक
बना हुआ है. सरकारों ने भी इसे दूर करने की कोशिश नहीं की. राजनीतिक विश्लेषकों का
तो यहाँ तक मानना है कि भारत सरकार इस बात को लेकर कभी भी आश्वस्त नहीं रही कि
पूर्वोत्तर के ये राज्य कब तक देश का हिस्सा रह पायेंगे. इसीलिए इनके विकास की तरफ
कभी भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया. पूर्वोत्तर में इसीलिए अलगाववादी संगठनों
का ज़ोर ज़्यादा रहा. सरकार ने इन्हें काबू में रखने के लिए विशेष सुरक्षा कानूनों
का सहारा लिया और इसी से पैदा हुई इरोम शर्मिला की त्रासदी.
4 नवंबर 2000 को जब इरोम ने भूख हड़ताल शुरू
की थी, उस समय वो 28 साल की युवा थीं. शुरू में ऐसा लगा था कि यह भावुकता में
उठाया गया एक कदम है, और इसका अंजाम भी देश में आये दिन होने वाली भूख हड़तालों
जैसा ही होगा. इस बात का अंदाज़ा किसी को न रहा होगा कि यही इरोम चानू शर्मिला
हमारे लोकतंत्र की नौकरशाही और सैनिक तंत्र पर इतना बड़ा सवाल बन जायेगी.
जैसे-जैसे समय बीतता गया लोगों को यह समझ मे आने लगा कि इरोम का संघर्ष किसी
भावुकता की उपज नहीं था, बल्कि यह मणिपुर के दमितों-उत्पीड़ितों की स्वतंत्रता के
लिए उठी जायज़ आवाज़ है. 2 नवंबर 2000 को मणिपुर की राजधानी इम्फाल के पास मलोल
में इरोम एक बैठक कर रही थीं. यह बैठक शान्ति रैली के सन्दर्भ में थी. उसी समय
सैनिक बलों ने मलोल बस स्टैन्ड पर ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाईं. दरअसल मणिपुर में
सशस्त्रबल विशेष अधिकार अधिनियम—आफ्सपा लागू है, जिसके तहत सैनिकबलों को ऐसा
विशेषाधिकार प्राप्त है, जिसके अन्तर्गत वे संदेह के आधार पर, बगैर वारंट के कहीं
भी घुसकर तलाशी ले सकते हैं, किसी को भी गिरफ्तार कर सकते है, तथा लोगों के समूह
पर गोली चला सकते हैं.
मलोम में हुए इस गोलीकांड में करीब दस लोग
मारे गये थे. इनमे 62 वर्षीय वृद्ध महिला ले संगबन इबेतोमी और बहादुरी केलिए
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चन्द्रमणि भी शामिल थीं. इस हादसे ने इरोम को
इतना अधिक आहत कर दिया कि सत्ता की दमनात्मक कार्यवाइयों का शान्तिपूर्ण विरोध उन्हें
बेमानी लगने लगा. उन्होंने शासन से माग की कि इस बर्बर कानून-अफ्सपा को राज्य से
समापत किया जाय. इसके लिए उन्होंने नैतिक युद्ध का सहारा लिया. 4 नवंबर से इरोम ने
भूख हड़ताल शुरू कर दी.
भूख हड़ताल के तीसरे ही दिन सरकार ने इरोम को
गिरफ्तार कर लिया. उन पर आत्महत्या के प्रयास का आरोप लगाकर धारा 309 के तहत
न्यायिक हिरासत में बेज दिया गया. चूँकि धारा 309 के तहत किसी भी व्यक्ति को एक
वर्ष से ज़्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता, इसलिए एक साल पूरा
होते ही उन्हें रिहा किए जाने की सरकारी नौटंकी की जाती है और फिर गिर्फ्तार कर
लिया जाता है. सरकार ने इरोम की ज़िन्दगी को भौत से भी ज़्यादा कष्टकर बना दिया
है. जवाहरलाल नेहरू अस्पताल के उस वार्ड को जहाँ इरोम भर्ती हैं, जेल की शक्ल दे
दी गई है. भूख हड़ताल के चलते जबरन उनकी नाक के रास्ते तरल पदार्थ डाला जाता है ताकि
उनकी सांस न टूटने पाये. इस तरह पिछले बारह सालों से इरोम को ज़िन्दा रखने की यह
लोकतांत्रिक ट्रैजडी सरकार द्वारा मंचित की जा रही है.
अब सवाल कई उठते हैं. इरोम शर्मिला न तो कोई
आतमकवादी हैं, न कोई राष्ट्रद्रोही. वो एक ऐसे कानून का नैतिक विरोध कर रही हैं,
जो अँग्रजी हुकूमत के दौरान उपयोग किया गया था, और जिसका विरोध करने वाले राजनीतिक
संगठनों की विरासत पर ही हमारे आज के राजनीतिक दल खड़े हैं. सरकार ने आज तक इरोम
की मागों पर विचार करने की कोई राजनीतिक कोशिश क्यों नहीं की ? बारह वर्षों तक
सरकार के किसी कानून का विरोध चलते रहना क्या हमारी लोकतांत्रिक और संवैधानिक
विफलता नहीं है ? सवाल यह भी उठना चाहिए कि क्या मणिपुर जैसे राज्यों के लिए इस तरह के कानून
की ज़रूरत है ? अगर सरकार का जवाब हाँ
हो, तो फिर उससे यह भी पूछा जाना चाहिए कि आज़ादी के पैंसठ सालों मे वह इन राज्यों
के नागरिकों में यह विश्वास क्यों नहीं पैदा कर सकी कि यह देश उनका भी है ??
पैंसठ साल की केन्द्रीय सरकारों में
पूर्वोत्तर से देश को एक भी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या कोई कद्दावर नेता नहीं
मिला. शायद इसीलिए केन्द्र ने पूर्वोत्तर के राज्यों की समस्यायों के प्रति
उदासीनता दिखाई. आये दिन निरर्थक मुद्दों पर पूरे देश को आन्दोलनों से हिला देने
वाले किसी बी राजनीतिक दल ने इरोम शर्मिला द्वारा उठाये गये मुद्दे को राष्ट्रीय
बहस का मुद्दा बनाने की कोशिश क्यों नहीं की ? इसी से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कि आज के राजनीतिक माहौल में
जन-आंदोलनों की हैसियत क्या है ??
ध्यान से देखें तो पता चलता है कि आन्दोलनों
के सफल और असफल होने की भी एक राजनीति होती है. पिछले एक दशक की सरकारो (केन्द्र व
राज्य दोनों) को देखें तो उनका चरित्र निरंकुश ही दिखाई देता है. सरकार आंदोलनों
के पीछे की जनभावना को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखती. आंदोलनो के दौरान देश को
होने वाली क्षति की भी उसे परवाह नहीं है. किसी आंदोललन को कब तक चलने देना है या
उस पर क्या निर्णय लेना है, यह इस बात से तय होता है कि उसका कितना राजनीतिक फायदा
सत्तापक्ष को और नुकसान विपक्ष को हो सकता है. लोकपाल को लेकर पहले अन्ना हजारे और
भ्रष्टाचार को लेकर अब केजरीवाल के आंदोलनों से इस बात को समझा जा सकता है. देश के
अलग-अलग हिस्सों में होने वाले आंदोलनों में अधिकांश, महत्वाकांक्षी नेताओं के
प्रचार-प्रसार का जरिया बन गये हैं. इनमें से ज़्यादातर आंदोलन अव्यवहारिक और
अविवेकपूर्ण होते हैं.
दुर्भाग्य यह है कि कि देश में चल रहे नकली
आंदोलनों में इरोम शर्मिला जैसों का संघर्ष दब जाता है. इरोम के संबन्ध में सरकार
को कोई ठोस पहल करनी चाहिए. केवल इसलिए नहीं कि एक स्त्री को नारकीय जीवन से
मुक्ति मिल सके, बल्कि इसलिए भी कि इस बहाने (अगर सरकार को बहाने की ही ज़रूरत हो)
सरकार देश के एक अहम, अंतर्राष्ट्रीय और संवेदनशील इलाके की समस्याओं को हल करने
की पहलकदमी कर सकती है, और कुछ हद तक उऩ दरारों को भी भर सकती है जो अखण्ड भारत के
पूर्वोत्तर में उभर आयी हैं ।
1 comment:
उत्तर पूर्व के राज्यों को वरीयता मिलनी चाहिए
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