होली और ईद, भारत के दो ऐसे धार्मिक पर्व हैं, जिनमें धार्मिक आग्रह
बहुत कम, और उल्लास एवं कुंठाओं के निरसन का भाव ज्यादा होता है। होली के साथ
प्रहलाद-होलिका की कथा को अगर हम धर्म-तत्व से जोड़ कर देखें तो भी होली की पहचान
इस कथा से नहीं बल्कि उसके रंगों से है। होली अनादि काल से मनुष्य की श्वेत-श्याम
ज़िन्दगी में रंग भरती रही है। द्वापर के किशन कन्हैया से लेकर आज के माडर्न
गोप-गोपियों तक होली रंग बिखेरती चली आई है। होली के रंगों में छुपा मनोविज्ञान,
कला-माध्यमों के लिए एक अनुकूल पृष्ठभूमि देता है। इस देश का कोई भी कला-माध्यम
होली के रंग और रंगीनियों से अछूता नहीं रह सका है।

भारतीय सिनेमा और होली का, चोली-दामन का साथ रहा है। हिन्दी फिल्मों ने होली के सीक्वेन्स को बार बार दिखाया है। होली का पर्व सिनेमा में हमेशा गीतों और नृत्य के जरिए आता रहा है। फिल्मों में होली का आगमन 1944 में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ में हुआ। निर्देशक अमिय चक्रवर्ती ने फिल्म में होली का सीक्वेंस फिल्माकर एक इतिहास की नीव रखी। यह श्वेत-श्याम फिल्मों का ज़माना था। यह भी एक संयोग है कि रंगीन फिल्मों में जब होली को उसका असली रंग मिला तब भी दिलीप कुमार ही थे। पहली टेक्नीकलर फिल्म ‘आन’ में दिलीप कुमार और निम्मी होली खेलते नज़र आए। फिर तो यह सिलसिला चल निकला। 1958 में आई मशहूर फिल्म ‘मदर इंडिया’ में शमशाद बेगम का गाया गीत “होली आई रे कन्हाई...” आज भी बेहद लोकप्रिय है और होली के दिन गाया-बजाया जाता है। उसके अगले ही साल वी. शान्ताराम की फिल्म ‘नवरंग’ में भी होली का एक गीत था। “जा रे हट नटखट....”, महिपाल और संध्या पर फिल्माया गया। इस फिल्म में महिपाल, दिवाकर नाम के कवि की भूमिका में हैं। आपको याद होगा कि इस फिल्म में काव्य के नौ रसों की अलग-अलग स्थितियों के माध्यम से अभिव्यक्ति की गई है।
सत्तर के दशक में भी कुछ अच्छे होली दृश्य
हिन्दी फिल्मों में देखने को मिले। खासतौर पर 1970 में आई राजेश खन्ना की फिल्म ‘कटी पतंग’ का गीत “आज न छोड़ेंगे हम हमजोली...” अविस्मरणीय गीत बन गया। राजेश खन्ना उस समय सुपर स्टार
थे। इस फिल्म में वो कमल की भूमिका में थे और आशा पारेख विधवा माधवी के किरदार
में। इस फिल्म में यह गीत निर्देशक ने उस सामाजिक वर्जना को तोड़ने के लिए रखा,
जिसमें एक विधवा स्त्री को जबरन जीवन के सभी रंगों से बेदखल कर दिया जाता है।
माधवी के संकोच और सामाजिक प्रतिबंध को कमल सार्वजनिक रूप से तोड़ देता है और
विधवा माधवी को रंगों से सराबोर कर देता है। इसके पहले सत्तर के दशक में कुछ और
फिल्मों में सुन्दर होली गीत फिल्माए गए। ‘कोहिनूर’ का गीत “तन रंग लो जी आज मन रंग लो...” बहुत लोकप्रिय हुआ। ‘गोदान’ में भी एक होली गीत फिल्माया गया।



होली गीतों का यह
सिलसिला अब कुछ ठहरा हुआ सा है। यद्यपि 2005 में बनी अक्षय कुमार-प्रियंका चोपड़ा
की फिल्म ‘वक्त-द रेस अगेन्स्ट टाइम’ में “डू मी ए फेवर लेट्स प्ले होली...” गीत और 2013 की फिल्म ‘ये जवानी है दीवानी’ का गीत “बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी...” खूब लोकप्रिय हुए,
लेकिन इन्हें विशुद्ध होली गीत नहीं कहा जा सकता। एक और बात आश्चर्य में डालती है
कि होली का त्यौहार फिल्मों में गीतों तक
ही सीमित रह गया, कभी कहानी का हिस्सा नहीं बन सका। जबकि रक्षाबंधन,
दीवाली, ईद आदि त्यौहारों पर फिल्में बनी हैं। हाँ, अब तक ‘होली’ नाम से दो फिल्में, ‘होली आई रे’ नाम से एक फिल्म, और ‘फागुन’ नाम से दो फिल्में जरूर बनी हैं। 1967 में ‘भक्त प्रहलाद’ नाम से एक हिन्दी फिल्म बनी थी। सिने जगत और होली का रिश्ता सिर्फ फिल्मों
तक ही महदूद नहीं रहा है। आर. के. स्टूडियो की स्थापना के समय से ही राजकपूर
स्टूडियो में होली खेलने का आयोजन करते थे। यह परंपरा आज भी जारी है। इसी तरह
मेगास्टार अमिताभ बच्चन भी अपने बंगले पर होली का आयोजन करते थे। कुल मिलाकर
सिनेमा और होली की संगत ने होली के रंगों थोडा और रंगीन और अमिट ही बनाया है।
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