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Friday 16 September 2011

रहने-सहने की अवसादी चट्टान..!


 मध्यप्रदेश के शहडोल जिले का सीताराम द्विवेदी....पत्नी को  मायके से बुलाकर ला रहा था.रास्ते में उसने अपने दो महीने के दुधमुहे बच्चे को पत्नी की गोद से छीना और बहती हुई सोन नदी में फेंक दिया.पत्नी के साथ बैठे हुए तीन साल के दूसरे बेटे को भी नदी में फेंकने की कोशिश की लेकिन आसपास के लोगों ने उसे बचा लिया.सीताराम अब जेल पहुँच गया है. .....इसी तरह मध्यप्रदेश के ही सीहोर जिले के एक व्यक्ति ने अपनी पांच बेटियों को कुल्हाड़ी से काटकर मार दिया. इस व्यक्ति का अपने भाइयों से ज़मीनी विवाद चल रहा था. पत्नी  उसे गैरवाज़िब विवाद करने से रोकती थी और उसके भाइयों के समर्थन में तर्क देती थी. पत्नी के इस रवैये ने उसे इतना आवेशित कर दिया कि उसने अपने पांचों मासूम बच्चों को मार दिया.निचली अदालत ने उसे मौत की सज़ा सुनाई, जिसे हाईकोर्ट ने भी बरक़रार रखा है.

ये दोनो घटनाएँ अभी हाल की ही हैं, जो हमारे विकसित हो रहे समाज की छवियों,मनोविज्ञान,सहिष्णुता और पारिवारिक संरचना की नई तस्वीरें पेश करती हैं.इन घटनाओं के कारण और निहितार्थ बहुत पेचीदा हैं.इन्हें सिर्फ क्षणिक आवेश का परिणाम नहीं माना जा सकता.ये मानव जीवन की क्रूरतम घटनाएँ है. जीवन ओर समाज में यह क्रूरता कैसे आती गई ? वह कोन सी पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां हैं जो हमारे भीतर इतनी क्रूरता पैदा कर रही हैं ? वो कौन सी चीज़ें हैं जिनकी अनुपस्थिति हमें इतना असहिष्णु बनाये जाती है ? हमारे संवेगों का यह नकारात्मक प्रवाह हमारी किस हताशा का परणाम है ?

इस तरह की घटनाएँ अब आए दिन पढ़ने-सुनने-देखने को मिलने लगी हैं.कुछ लोगों का मानना यह भी है कि मीडिया के बढ़ते जाल की वज़ह से अब ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आने लगी हैं. ऐसे लोग जीवन-समाज में हुए बदलाव को स्वीकार  करने में हिचकिचा रहे हैं. ये कौन लोग हैं, इसकी चर्चा कभी बाद में करेंगे, क्योंकि यह चर्चा इस लेख के मूल अभिप्रेत को बदल सकती है.

सामान्य तौर पर अगर ऐसी घटनाओं के पीछे के मनोविज्ञान को देखा जाये तो यह हमारे जीवन में सघन होते अवसाद की परिणति है. अवसाद एक छोटे अवधि का ही सही किन्तु स्थाई भाव होता है. इसका प्रभाव व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर देता है. हमारे जीवन में अवसाद की उत्पत्ति नहीं होती, बल्कि निर्माण होता है. अवसाद हमारे जीवन के अनेकांगिक क्रिया-कलापों, आस-पास के परिवेश और रिश्तों की अंतर्क्रिया से पैदा हुए रसायन से बनता है. हमारी अक्षमता,असफलता,अविश्वास,निराशा,संदेह,रिश्तों की टूटन,प्राकृतिक संवेगों के दमन आदि लौकिक दुर्घटनाओं से जो सत् निकलता है, उसी के जमते जाने से हमारे भीतर अवसाद बनता है. इससे ग्रस्त व्यक्तियों की परिस्थिति के मुताबिक इन तत्वों की उपस्थिति अलग-अलग हो सकती है.

यह अवसाद का भाव-पक्ष है. इसका एक अभाव-पक्ष भी होता है. जीवन से उल्लास के क्षण और तत्व गायब होते जा रहे हैं. समाज और परिवार से सहकारिता की भावना का लोप होता जा रहा है. दुनिया इतनी विविधवर्णी और बहुमुखी होती जा रही है कि  निजी और सार्वजनिक जीवन में अब आदर्शों का निर्माण बन्द हो चुका है. आदर्शविहीन जीवन अराजक तो हो ही जाता है, भले ही उसमें उत्तेजना ज़्यादा हो. कुछ प्रतिभाशाली पाठकों को आदर्श की ज़रूरत पर आपत्ति हो सकती है. इसमें परंपरावाद, पुरातनपंथ और प्रतिभा के संकोच की गंध भी आ रही होगी. यह कैसे भूला जा सकता है कि हमारे इसी आधुनिक समाज में आदर्शों को नकारने, तोड़ने और उन्हें निरर्थक साबित करने के बौद्धिक प्रयास भी किये जाते रहे हैं. इन प्रयासों का सामान्य जन-जीवन में कितना असर हुआ, इसको लेकर निश्चित तौर पर ठीक से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कम से कम भारतीय समाज में बौद्धिक आन्दोलनों की पहुँच बहुत सीमित दिखाई पड़ती है.

पारिवारिक विखण्डन के बाद बढ़ते आर्थिक दबाव ने स्थिति को और ज़्यादा गंभीर बना दिया है. परिवारों के टूटने और आर्थिक दबाव के बीच बहुत सूक्ष्म किन्तु बहुत प्रभावकारी सम्बन्ध है. इसी सम्बन्ध के दुष्परिणाम की शक्ल में जीवन में अवसाद का निर्माण भी होता है.. यद्यपि कई बार मनोदैहिक सम्बन्धों की विफलता से भी निराशा और हताशा पैदा होती है, लेकिन उन स्थितियों में भी परिवार एक महत्वपूर्ण कारक होता है. अर्थशास्त्र ने समाजशास्त्र का गणित बिगाड़ दिया है.

उत्पादन और आय के स्रोतों के रंग-रूप में क्रांतिकारी बदलाव हो चुके हैं. आय के अवसर बड़े शहरों में केन्द्रित होते गये. गांवों, कस्बों और छोटे शहरों के अर्थतंत्र पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो चुके है. रोज़गार की तलाश और सीमित आय ने संयुक्त परिवारों को खत्म कर दिया. आर्थिक सर्वेक्षण कहते हैं कि देश की 70 प्रतिशत आबादी की औसत आय बीस रुपये प्रतिदिन है. इनस्थितियों में एकल परिवार हमारी विवशता है. इन एकल परिवारों के सदस्यों के आपसी मतभेद कभी-कभी इतने वीभत्स रूप ले लेते हैं, जिनका अंत ऊपर बताई गई घटनाओं जैसा होता है. संयुक्त परिवारों की यद्यपि अपनी दिक्कतें होती हैं, लेकिन उनमें आपसी विवादों के इस त्रासद ऊँचाई तक पहुँचने का अवकाश कम होता है. बड़े बुजुर्गों के हस्तक्षेप से ऐसी अमानवीय दुर्घटनाएँ बचा ली जाती हैं.

कुछ समय पहले तक ऐसी क्रूर घटनाएँ शहरीकरण का परिणाम मानी जाती थीं. शहरी ज़िन्दगी की अजनबीयत, एकाकीपन और मूल्यहीनता को ही इस अराजक मनोदशा का मूल कारण माना जाता था. शहरों की भाग-दौड़, जीवन को जीने और समझने का अवसर कम ही देती है. गांवों से पलायन कर लोग शहर की जीवन-शैली के लिए लालायित हैं. शहर अन्धी दौड़ों के मैदान बनते जा रहे हैं. महंगी शिक्षा, खर्चीली जीवन-शैली, घरों का हुलिया बिगाड़ देती है. बच्चे अकेलेपन और अनैतिकता के जंगल में छूट जाते हैं. ये बच्चे अपनी मौलिक सेस्कृति, अपने भूगोल और संस्कार से अलग एक कृत्रिम देशकाल में बड़े होते जाते हैं. अब किसी को आश्चर्य नहीं होता कि 15-16 वर्ष के किशोर अवसाद से ग्रस्त हो जाते है और उन्हें इलाज़ के लिए मनोचिकित्सकों के पास ले जाना पड़ता है. यौवन की देहरी पर कदम रखने वाले युवा, प्रेम-जनित अवसाद में में हत्या जैसे अपराधों में लिप्त हो जाते हैं. कुछ महीने पहले इन्दौर में इंजीनियरिंग की पढ़ायी कर रहे एक छात्र ने अपनी सहपाठी छात्रा को कार से रौंदकर मार डाला था.

ऐसी नृशंस घटनाएँ बताती हैं कि हमारे जीवन से सहिष्णुता जा रही है. हमारी मौजूदा सामाजिक संरचना हमें अतिवाद की ओर धकेलती है. कभी यह दमन की अति होती है, तो कभी उन्मुक्तता की, और अति सर्वत्र वर्जयेत ! स्थिर और स्थायी के लिए कोई ज़गह, इच्छा और हौसला दिखता ही नहीं. हमें एक क्षण में सब कुछ चाहिए. एक क्षण में ही हम आदि-अनन्त की दूरी तय करना चाहते हैं. एक क्षण का प्रेम--एक क्षण में अलगाव. एक क्षण का आरोह--एक क्षण का अवरोह.....इसके बीच रहना -सहना और कहना-सुनना.......ज़िन्दगी वहीं खत्म हो जाती है, जहाँ उसके खत्म होने की सबसे कम उम्मीद होती है. उम्मीद के लिए एक ज़िन्दगी की ज़रूरत होती है, और उम्मीद की एक ज़िन्दगी होती है.ज़िन्दगी की अपनी भी उम्मीद होती है. इन सबके बीच एक क्रिया चलती है अनवरत....अभीष्ट है एक ताप...हवा के उचित दबाव की भी खोज चल रही है...ज़िन्दगी साम्यावस्था में आना चाहती है.

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