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Wednesday 1 June 2011

शेर को रोते देखा है आपने..!!

(सफेद शेर मोहन की स्मृति में)

उसका नाम मोहन था.उसने दुनिया को ‘रीवा’दिया.वह शेर था..सफेद शेर ! राजा था जंगल का.ये एक शेर के ही बूते की बात हो सकती है कि वह एक नामालूम सी छोटी जगह को दुनिया के नक्शे में जगमग कर दे.जंगल के इस राजा को दुनिया के सामने लाने वाला भी एक राजा ही था.

ये कारनामा किया था रीवा राज्य के तत्कालीन नरेश महाराज मार्तण्ड सिंह ने. उन्होने रीवा राज्य के बरगड़ी जंगल(वर्तमान मे सीधी जिले के गोपद बनास तहसील में) से सफेद शेरों के वंशज को, 27 मई,1951 को पकड़ा था.उस समय वह 9 माह का था. नाम रखा मोहन.उसे गोविन्दगढ़ किले में रखा गया.महाराजा ने सफेद शेर की वंशवृद्धि के प्रयास शुरू किया...राधा नाम की शेरनी को मोहन के साथ रखा गया...अन्तत: 30 अक्टूबर 1956 को मोहन और रामबाई नामक शेरनी के सम्पर्क से सफेद रंग के एक नर और तीन मादा शावकों का जन्म हुआ...9 अगस्त 1962 को दो सफेद शेर कलकत्ता भेजे गए, 1962 मे ही एक-एक अमेरिका और इंग्लैण्ड के चिड़ियाघर भेजे गये.

मोहन ने 18 दिसंबर 1967 को अंतिम सांस ली.उसका राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार किया गया. मोहन का सिर आज भी बाघेला म्यूजियम,रीवा में संरक्षित है.

रीवा के लोग इस बात पर गर्व करते रहे हैं कि उन्होने दुनिया को सफेद शेर दिया.....तो रीवा के शेर और शेरनियों आज आप जहां भी हों, लोगों को बताइये कि हम हैं...!! यूँ तो रीवा को राष्ट्रीय पहचान देने वाले कुछ और शेरों को आप जानते हैं.तानसेन रीवा राजघराने के गायक थे.बीरबल भी कथित तौर पर रीवा के ही बताये जाते हैं.इन दोनों शेरों को दिल्ली के सम्राट अकबर ने पहले अनुनय-विनय और फिर धमकी देकर अपने दरबार मे बुला लिया था.

लेकिन सफेद शेर मोहन ने रीवा की पहचान विश्वस्तर पर बनायी.वह रीवा वासियों के लिए सिर्फ एक शेर नहीं है.वह रीवा की अस्मिता है.वह यहाँ की पहचान है.मोहन इस छोटे से पिछड़े हुए जनपद का अभिमान है.वह इस अविकसित भू-भाग का अप्रत्याशित विस्तार था.

दरअसल मोहन और उसके वंशज,जिन्हें हम शेर कहते हैं,प्राणिविज्ञान में उन्हे बाघ कहा जाता है.शेर सामान्यत: उन्हें कहा जाता है जिनके सिर और चेहरे पर लम्बे बाल होते हैं.बाघ की बनावट इनसे अलग होती हे.बाघ दुनिया का सबसे ताकतवर प्राणी माना जाता है.रीवा से सफेद शेर चले गये,यह रीवा का दुख है, लेकिन पूरे देश में बाघ खत्म होने की कगार पर हैं-यह एक आपदा के संकेत हैं.

जिस देश के चप्पे-चप्पे से बाघों की दहाड़ सुनाई देती थी,उसी देश में वर्ष 2010 तक केवल 1412 बाघ बचे थे.यह संख्या भी कोई विश्वसनी. नहीं थी.अनुमान की एक छोटी सी रस्सी को इसमें भी पकड़ कर रखा गया है. 19वीं शताब्दी में भारत में लगभग 45,000 बाघ थे.तब उनकी संख्या को लेकर किसी का ध्यान नहीं था.यह स्वाभाविक भी था.आपका पेट भरा हो तो आप रोटियाँ नहीं गिनते.20 वीं शताब्दी में1972 तक आते-आते अचानक पता चला कि पूरे देश में अब केवल 1,827 बाघ ही बचे हैं.

देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की चिन्ता के मद्देनज़र,स्वतंत्र भारत की पहली व्यवस्थित वन नीति बनाने की कवायद चल रही थी.उसी दरम्यान यह तथ्य सामने आया की बाघों की संख्या में डरावनी कमी हो गयी है.1972 में वन्य जीव संरक्षण कानून बना दिया गया,और उसके अगले ही साल 1973 में,बाघों को बचाने के लिए एक अलग दीर्घकालिक योजना ‘प्रोजक्ट टाइगर’ के बनायी गई.बाघों के संरक्षण के लिए भारी भरकम बजट और अधिकार के साथ इसकी शुरुआत के लिए पलामू अभयारण्य को चुना गया.उसके बाद देश के कई अन्य राष्ट्रीय उद्यानो और अभयारण्यों को टाइगर रिज़र्व के नाम से बाघों के लिए आरक्षित कर दिया गया.इन आरक्षित क्षेत्रों में बाघों के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर कठोर सज़ा का प्रावधान रखा गया.प्राणिविज्ञानियों,चिकित्सकों और प्रशासकों का एक अमला बाघों के संरक्षण और संवर्धन के लिए तैनात कर दिया गया.

लेकिन मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा दी.इस पूरी कवायद का नतीज़ा ये निकला कि वर्ष 2010 तक आते-आते बाघों की संख्या इतनी कम हो गयी कि उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है.और यह पक्के तौर पर कहा जाने लगा कि दो-चार सालों में इस देश से बाघ पूरी तरह से खत्म हो जायेंगे.म.प्र.,पूरे देश में सर्वोधिक बाघ हुआ करते थे,वहाँ की सरकार को ठीक-ठीक यह भी नहीं मालूम कि इस प्रदेश मे अब कितने बाघ बचे हैं.शिकारियों और अक्षम प्रशासकों के नापाक गठजोड़ ने इस देश में बाघों के अस्तित्व को लगभग खत्म होने हद तक पहुँचा दिया है.हालांकि वर्ष 2011 में एक सुखद सूचना आयी है कि बाघों की संख्या में लगभग 20 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है,पर यह ख़बर कितनी विश्वसनीय है इसकी पुष्टि नहीं हुई है.

हम गौरव,अस्मिता और पहचान की बात छोड़ दें, तो पर्यावरणीय दृष्टि से भी बाघों का खत्म होना देश के लिए एक भयंकर दुर्घटना होगी.इन्हें बचाने के लिए हमारी रणनीति किसी आपदा से निपटने जैसी ही होनी चाहिए.

आज सफेद शेर मोहन के वंशज दुनिया भर में हैं...नहीं हैं तो सिर्फ रीवा में.जिस धरती से सफेद शेर ने अपनी यात्रा शुरू की वह धरती ही उससे छूट गयी.उसने विश्व को जीत लिया, पर अपनी ही जन्मभूमि को हार गया.वो शेर था तो क्या हुआ..अपनी धरती से निर्वासित होने पर शेर भी रोते होंगे...क्या आपने किसी शेर को रोते देखा है !! कभी सुनी हैं उसकी हिचकियाँ ?? विख्यात कवि केदारनाथ सिहँ की ‘बाघ’ श्रृखला की एक कविता ज़रूर पढ़नी चाहिए----

ये आदमी लोग
इतने चुप क्यों रहते हैं आजकल---
एक दिन बाघ ने लोमड़ी से पूछा
लोमड़ी की समझ में कुछ नही आया
पर उसने समर्थन में सिर हिलाया
और एक टक देखती रही बाघ के जबड़ों को
जिनसे अब भी खून की गंध आ रही थी.
फिर कुछ देर बाद कुछ सोचती हुई बोली
“कोई दुख होगा उन्हें”

“कैसा दुख ?”---
बाघ ने तड़पकर पूछा

“यह मैं नहीं जानती पर दुख का क्या !
वह हो ही जाता है कैसे भी “
लोमड़ी ने उत्तर दिया.

“हो सकता है
उन्हें कोई कांटा गड़ा हो !”
बाघ ने पूछा.

“हो सकता है
पर हो सकता है आदमी ही
गड़ गया हो कांटे को “
लोमड़ी ने धीरे से कहा.

अबकी बाघ की समझ में कुछ नहीं आया
पर समर्थन में
उसी तरह सिर हिलाया
फिर धीरे से पूछा
“क्या आदमी लोग पानी पीते हैं ?”

“पीते हैं---लोमड़ी ने कहा---
पर वे हमारी तरह
सिर्फ सुबह-शाम नहीं पीते,
दिन भर में जितनी बार चाहा
उतनी बार पीते हैं “

“पर इतना पानी क्यों पीते हैं
आदमी लोग ?”
बाघ ने पूछा.

“वही दुख---मैने कहा न !”
लोमड़ी ने उत्तर दिया.

इस बार फिर
बाघ की समझ में कुछ नहीं आया
वह देर तक सिर झुकाए
उसी तरह सोचता रहा.

यह ‘दुख ‘ एक ऐसा शब्द था
जिसके सामने बाघ
बिल्कुल निरुपाय था.

2 comments:

rita mishra said...

..................................................................................................................................................... likha hai keya padhu isko to iska comment bhi ...................... he hai

mayank singh baghel said...

sach me yaar thats interesting