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Friday, 15 July 2011

हमारी निरुपायता का कोई जवाब नहीं

आप भी महसूस तो कर ही रहे होंगे की दिल्ली सरकार का रथ एक अर्से से लड़खड़ाया हुआ है. न तो उसकी दिशा समझ में आ रही है,न ही उसकी गति का कोई अंदाज़ा मिल पा रहा है. इस रथ के कुछ घोड़े कभी सरपट दौड़ लगाते हैं तो कुछ चलने को तैयार ही नहीं हैं. जो सारथी है वह कभी बेचारा तो कभी अनाड़ी नज़र आता है.


भारत की राजनीति में ऐसे अवसर कम ही नज़र आये होंगे जब न तो पक्ष के पास कोई दिशा हो,न विपक्ष के पास. सत्तापक्ष में जहाँ कोई नेतृत्व ही नही दिख रहा है, तो विपक्ष के पास मुद्दों का टोटा पड़ा है. विपक्षी दलों की सारी मेधा मिलकर भी एक अदद ऐसे मुद्दे की तलाश नहीं कर पा रही है, जिसे वो पूरे आत्मविश्वास के साथ देश की जनता के सामने रख सकें और कह सकें कि हमको इस बिनाह पर सत्ताधारियों से अलग समझा जाये. आत्मविश्वास की कमी का ही परिणाम है कि विपक्ष को दूसरों के मुद्दों में सेंध लगानी पड़ती है. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलनों में बिना बुलाए मेहमान की तरह जाना पड़ता है और धक्के खाने पड़ते हैं.

राजनीतिक स्वप्न-शून्यता की यह स्थिति तब है जब देश अनेक स्तरों पर गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है. बेतहाशा बढ़ती मंहगाई के बीच सरकार के कण्ठ से एक लाचार आश्वासन के अलावा कुछ नहीं फूटता है. आम जनता न तो अर्थशास्त्र की सैद्धान्तिकी समझती है और न ही उसे सेन्सेक्स की उत्तेजना से कोई फर्क पड़ता. दशमलव के इर्द-गिर्द, मुद्रा-स्फीति किस तरह से ठुमके लगाती है, आम जनता का मन इससे भी नहीं बहलता. दावा तो नहीं पर विश्वास है कि देश की अस्सी फीसदी जनता तो जानती भी नहीं है कि यह मुद्रा-स्फीति किस बला का नाम है, और सेन्सेक्स की उत्तेजना किस वियाग्रा को खाने से बढ़ती है !!

यही अस्सी फीसदी जनता है जो सरकार के भरोसे नहीं, भगवान के भरोसे जी रही है. जिन माई-बापों को चुनकर उसने दिल्ली-भोपाल भेजा, उन्हें न तो इस जनता से कोई लेना देना है और न ही देश चलाने का शऊर है. आप अगर ध्यान से इन रहनुमाओं के बयान और हरकतें देखते होंगे तो अपना माथा ज़रूर ठोंकते होंगे कि इन जाहिलों को उस गद्दी तक पहुँचाने में एक वोट आपका भी है. आपका एक वोट आपको कितनी चोट पहुँचाता है, यह सिर्फ आप ही बेहतर जानते हैं.

लेकिन सत्ता के गलियारों में बे-खौफ़ घूमते ये सफेदपोश सचमुच इतने जाहिल भी नही हैं. हमारे भारत नाम के इस राष्ट्रीय-उद्यान के ये राष्ट्रीय प्रतीक हैं. यह देश इनके लिए आरक्षित है. इन्हें यह विशेषाधिकार है कि अब ये अपनी जनता खुद चुन लें.


जिन नेताओं को पहले हमने चुना, उन्होने अब अपनी जनता चुन ली है. सौ में अस्सी घटाने के बाद जो बीस फीसदी लोग बचते हैं-यह देश उनका है. तरक्की के सारे रास्ते उनके हैं. सारे राग-रंग, रोशनी के सभी झरोखे इसी बीस फीसद जनता के हैं. यहीं अंबानी-टाटा, कलमाणी,राजा और सत्यसाँईं जैसे लोग पैदा होते है, जिनकी सम्पत्तियों का कोई हिसाब नहीं. सरकार का सारा खाद-पानी इन्हीं पौधों को पोषने में खत्म हो जाता है. इसी हरियाली को दुनिया को दिखाकर सरकार वाहवाही लूटती है. अमेरिका और चीन के सामने खड़े होकर ताल ठोकने वाली सरकार को क्या पता नहीं होगा कि देश की सत्तर प्रतिशत आबादी बीस रुपये प्रतिदिन की औसत कमाई में क्या खाती और क्या पहनती होगी ?

पता तो है.पता तो यह भी है कि ए.राजा, राजा कैसे बने. पता तो यह भी है कि कलमांड़ी, कनुमोझी के दरवाज़े किधर खुलते हैं और किधर बंद होते हैं. सरकार को पता तो यह भी है कि स्विटजरलैण्ड कौन जाता है और वहाँ के बैंकों में किसका पैसा है. हम और आप, जिन्होंने स्विटजरलैण्ड का नक्शा तक ठीक से नहीं देखा है, वहाँ पैसा जमा करने तो जा नहीं सकते. हमारी ज़ेबों में जो पैसा होता है वह शाम को घर लौटते समय किराने की दूकान और सब्ज़ी के ठेलों पर जमा हो जाता है.

तो बोलें जितने अन्ना-बाबा बोलते हों....सरकार ने कान में रुई ठूंस लिया है. सुप्रीम कोर्ट का यह कहते-कहते दम फूलने लगा है कि भाई काला धन जमा कराने वालों का नाम जाहिर करिए. कौन बताएगा ? पक्ष या विपक्ष ?? किसका दामन साफ है. जो सरकार में हैं, सारे संसाधनों पर उनका कब्ज़ा है. कमाई के अनन्त मनोरम स्रोत हैं. जो विपक्ष में हैं वो कभी सत्ता में थे या आगे कभी होंगे. तो कौन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा भला !

लोकपाल और काले धन को लेकर सरकार और विपक्ष दोनो ने जिस तरह का चूहे-बिल्ली का खेल शुरू किया है वह बेहद शर्मनाक है. यह पहली बार हुआ था कि देश की जनता ने अपने प्रतिनिधियों पर गंभीर अविश्वास जताते हुए सीधा सवाल पूछा था कि क्यों न आपके ऊपर भी निगरानी रखी जाये ? इस सवाल पर सिब्बल-दिग्विजय की तिलमिलाहट को सारे देश ने देखा. उनके बेशर्मी भरे बयानों को हर कान ने सुना. भ्रष्टाचार के खिलाफ इस सशक्त जनचेतना को निश्चेत करने के लिए सरकार ने जो रवैया अपना रखा है, उसे देखकर ऐसा लगता ही नहीं कि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं.

दरअसल हमारा लोकतंत्र एक बहुत बड़ा भ्रम है. एक इन्द्रजाल है. अपनी सारी मनमोहक अवधारणाओं के बावजूद इस देश में लोकतंत्र शोषण, भ्रष्टाचार,अनैतिकता और शक्ति-प्रदर्शन की एक वैधानिक व्यवस्था बन गया है. बड़ा हास्यास्पद और शर्मनाक लगता है यह उल्लेख करना कि इस देश में चपरासी जैसे सबसे छोटे पद के लिए भी बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण होना न्यूनतम योग्यता है, लेकिन देश का राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री-नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं है !!

और यही वज़ह है कि हमारे ये नियति-नियन्ता आज देश की चुनौतियों के सामने असहाय नज़र आ रहे हैं. दिल्ली में जो सरकार है, वह सरकार कम, जानवरों का एक बाड़ा ज़्यादा लगती है. कहले को एक प्रधानमंत्री हैं, पर वो देश के अहम् सवालों पर चुप रहते हैं. अपने सहयोगी मंत्रियों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं दिखता और न ही उनसे कोई संवाद है. मंत्रीगण अपने-अपने अहंकार में इस तरह मस्त हैं कि सामूहिकता की कोई भावना कहीं दिखती ही नहीं. यह देश जब उनके सामने कोई सवाल रखता है तो उसका जवाब देने की जगह या तो चुप रह जाते हैं या सवाल पूछने वाले की ज़बान काट लेते हैं. इस समय यह देश एक बड़े नक्कारखाने में तब्दील हो गया है और जनता की आवाज़ तूती की तरह गुम हो जाती है.

यह ऐसा समय है जब न तो ठीक से विलाप किया जा सकता और न ही पूरी तरह से आशावादी हुआ जा सकता. उम्मीद बूमरेंग की तरह लौटकर अपने ही पास आ जाती है. बदलाव की ज़रूरत तो लगती है, लेकिन उसके लिए न हौसला है, न समय. हमारी निरुपायता का कोई जवाब नहीं.

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