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Wednesday, 17 August 2011

देखो तो !

अक्षांशों और देशांतर के जाल में
मेरी स्थिति
इन दिनों कुछ इस तरह है
कि लोग मुझे
पराजित और उदास कहते है.

मैं यहां एक निर्द्वन्द्व प्रतीक्षा में
बीत रहा हूँ
और वहाँ तुम
एक दुर्निवार व्याकुलता में गतिशील हो.

हमारे पास समय और
दूरी का
एक सीधा सा सवाल है
चुनौती सिर्फ इतनी है
कि इसे हल करने के लिए
हमें अपने गुरुकुलों को छोड़ना होगा.

इस समय यहाँ रात के
ग्यारह बजकर पैंतालीस मिनट हुए हैं
आकाश साफ है
और सप्तऋषि अपनी जगहों पर अटल
न जाने किस मंत्रणा में लीन हैं.

यह कर्क रेखा
जो मेरे शहर के थोड़ा बांये से गुजरती है
तुम्हारे शहर से बस ज़रा सा ही दायें तो है.

यहां मेरे चारों तरफ
हवा है,आकाश है, अकेलापन और उम्मीद है.

अगर यही चीज़ें
तुम्हारे आस पास भी हैं
तो देशकाल और वातावरण के तर्क से
हम कितने पास हैं...
देखो तो...!

1 comment:

saroj mishra said...

बहुत अच्छी कविता लिखी /फिर एक कविता जो आगे मील का पत्थर बनेगी / मेरी पढ़ी कविताओं में यह तुम्हरी दूसरी कविता है जिसका जबाब नहीं /