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Saturday 27 August 2011

जो तटस्थ हैं...!

हम इन दिनों बेहद संवेदनशील लोकतांत्रिक उथल-पुथल से गुज़र रहे हैं. यह आस्थाओं के दरकने और आत्मविश्वास के पुनर्जागरण का वक़्त है. एक लम्बे अवधि के भ्रष्टाचार ने देश की पूरी व्यवस्था और हम नागरिकों के आचरण को संदिग्ध बना दिया है.एक राष्ट्र और उसके नागरिक होने के नाते हमारी विश्वसनीयता पर इतना ज़बरदस्त संकट कभी नहीं आया था. लोकतांत्रिक ताने-बाने पर इतना अविश्वास पहले कभी नहीं था, और न ही लोकतंत्र की सामर्थ्य पर इतने प्रश्न-चिन्ह पहले कभी लगे देखे गये. सरकारों का चरित्र कब तानाशाही होता गया, इसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया. वो कौन सी वज़हें हैं जिन्होने हमारी सरकारों को तानाशाह जैसा बना दिया, इस पर शायद अब सोचने का वक़्त आ गया है.

ऐसा दिख रहा है कि अन्ना हजारे ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ मिलकर देश की साधारण जनता,खासतौर से महत्वाकांक्षी युवावर्ग को एक वृहद् आंदोलन की राह पर ला दिया है. पूरे देश में लोकपाल विधेयक को पास कराने के लिए धरना-प्रदर्शन हो रहे हैं. काँग्रेस-नीत सरकार महीनों से टाल-मटोल करते हुए रोज़ एक नयी पतली गली ढूँढ़ लेती है. सरकार के इस रवैये का सर यह हुआ कि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की जो एक तार्किक पहल अन्ना और उनके सहयोगियों ने शुरू की, वह अतार्किकता और जड़ता के बियावान में भटक गयी. लोकतंत्र की वैध माग, एक ऐसे संघर्ष में बदल गयी है जहाँ हर पक्ष अपने लक्ष्य और तर्कों से भटक गया है.

एक लोकतांत्रिक देश के लिहाज से, मुझे यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और ख़तरनाक लगता है कि एक छोटी सी जायज़ माग के लिए देश की इतनी ऊर्जा लग रही है. एक लोकपाल के नियुक्त हो जाने से किसे समस्या है भला ? वह भ्रष्टाचार पर निगरानी ही तो रखेगा ! वो कौन लोग हैं जो अपनी निगरानी नहीं चाहते ? अब यह कितना साफ है कि जो लोग महीनों से,या कहें वर्षों से इस लोकपाल पर अड़ंगा लगा रहे हैं, उनका चरित्र क्या है.

चूँकि बहुमत सत्ताधारी दल के पास होता है, इसलिए गतिरोध की पहली ज़िम्मेदारी सरकार पर ही जाती है. लेकिन इस पूरे आंदोलन में दिख रहा है कि कुछ और लोग हैं जो विरोध तो नहीं कर रहे हैं, पर तटस्थ हैं. ये ऐसे लोग हैं जो देश को समय-समय पर बताते रहे हैं कि वही भारत-भाग्य-विधाता हैं. दो दिन पहले दुलिया की एक शीर्ष पत्रिका ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर बताया कि सोनिया गांधी, संसार की सातवें नम्बर की सबसे प्रभावशाली महिला हैं. भारत में आज उनसे बड़ा राजनीतिक कदकिसी का नहीं है. प्रधानमंत्री का पद ठुकराकर उन्होंने बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों को चकित कर दिया था.उनके इस एक कदम ने सबसे बड़े विपक्षी दल भजपा और सदाबहार पी.एम. इन वेटिंग, लालकृष्ण आडवानी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को लक्ष्यमूढ़ कर दिया.

वहीं सोनिया गांधी इस पूरे प्रकरण पर खामोश हैं. यह उनकी रणनीति ही होगी. वह इस आग में अपना हाथ नहीं जलाना चाहतीं. पर उन्हें यह समझ तो होगी ही कि सार्वजनिक जीवन के शिखर पर बैठे लोगों के लिए पीछे लौटने के दरवाज़े बन्द हो जाते हैं. अगर वो निर्णायक स्थिति में हैं तो उन्हें निर्णय लेना पड़ेगा, अन्यथा समय और समाज उन्हें क्षमा नहीं करेंगे. कलावती के शुभचिंतक राहुल गांधी की चुप्पी सवसे ज़्यादा विचलित करने वाली है. ऐसा लगने लगा था कि राहुल देश की बदलती चेतना के मुख्य संवाहक बन सकते हैं. उनकी चिन्ताएँ असली लगने लगी थीं. उनके व्यक्तित्व का करिश्माई तत्व युवाओं को अपनी ओर खींच रहा था. लेकिन अपनी सवसे बड़ी परीक्षा में वह भी फेल हो गये. हमारे देश में राजनेता बनने की आवश्यक योग्यताएँ क्या हैं, यह तो हम सब जानते हैं. पक्ष या विपक्ष में होना तो समय का फेर है.स्थायी चरित्र तो सभी नेताओं का एक ही है. विपक्ष छीके के टूटने का इन्तज़ार कर रहा है. आडवानी-अटल तो चुप ही हैं. जो लोग थोड़ा बहुत बोल रहे हैं, वो सिर्फ अपनी वाक्पटुता का ही प्रदर्शन कर रहे है.

सबसे ज़्यादा हास्यास्पद स्थिति बुद्धिजीवी कहे जाने वाले वर्ग की है. इसमें कवि-लेखक और समाजसेवा से जुड़े लोग माने जाते हैं. इन लोगों ने अपने आत्मबल के बूते चुप्पी साध रखी है. इनका दर्द यह हो सकता है कि जनता ने इन्हें इस आन्दोलन का नेतृत्व करने का आमंत्रण क्यों नहीं दिया. या कम से कम इनसे राय तो ली गई होती.कलम के ये सिपाही ज़मीन की खुरदुरी सतह पर चलने के उतने अभ्यस्त नहीं हों यह समझा जा सकता है. बुढ़ापे में सरकार से मिलने वाले पुरस्कार और सम्मान संजीवनी का काम करते है, इसे भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.आग में हमेशा घी डालने की आदी अरुन्धती राय पहले तो चुप थीं, पर जब उनकी प्रज्ञा जाग्रत हुई तो उन्होने अन्ना के कुछ सहयोगियों के आचरण पर सवाल ठोंक दिए.ऐसा करने वाली वो अकेली नहीं हैं. कई नौजवान बुद्धिजीवी लगातार अन्ना और उनके सहयोगियों का छिद्रान्वेषण कर रहे हैं.ये लोग यह सिद्ध करने में जुटे हुए हैं कि ,चूँकि आन्दोलनकारी बेदाग नहीं हैं इसलिए उनका यह आग्रह औचित्यहीन है.

ऐसा नहीं है कि जो तटस्थ हैं वो कायर लोग हैं.ये अवसरवादी लोग हैं. हम सब देखेंगे कि अगर इस आन्देलन का कुछ सार्थक परिणाम निकलता है तो उसके विजय जुलूस में यही लोग सबसे आगे दिखेंगे. यही इनका कौशल है.इन्हें प्रणाम करिये.

Sunday 21 August 2011

छछिया भर छाछ पर नाचने वाला...!


ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास न होने के बाद भी कृष्ण मेरे प्रिय पात्र रहे हैं. कई बार जब किसी प्रश्न का जवाब ढूढ़ना मेरी सामर्थ्य के बाहर हो जाता है तो मैं कृष्ण की शरण में जाता हूँ. ज़्यादातर ऐसा हुआ है कि बियाबान में कोई राह चमक गई है. कृष्ण से भी ज़्यादा मुझे उन लोगों पर श्रद्धा है जिन्होंने कृष्ण जैसा पात्र रचा है. मुझे नहीं लगता कि कृष्ण किसी एक आदमी की रचना हैं. पौराणिक ऋषियों से लेकर, व्यास, सूर, रसखान और इस देश की जन-जातियों तक ने कृष्ण को गढ़ा है, और कितना अद्भुत गढ़ा है ! कृष्ण के व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं कि उसमें हर किसी के लिए कुछ न कुछ है.

जीवन से थक चुके लोगों के लिए वहाँ वैराग्य है, लड़ने के लिए निकले व्यक्ति के लिए उत्साह है, गृहस्ती के नुस्खे हैं तो प्रेम और विवाह करने वालों के लिए अनुपम दृष्टान्त....सुभद्रा और अर्जुन की प्रेम कहानी बीच में ही खत्म हो जाती अगर भैया कृष्ण उनके भागने का प्रबन्ध न करते. प्रेम की अव्यक्त और विडम्बनात्मक स्थितियों में घिरे लोगों के लिए द्रौपदी-कृष्ण का सम्बन्ध ग्रंथियों को खोलने वाला है.

भारतीय मान्यताओं में कृष्ण अकेले ऐसे देवता हैं जो मनुष्य की तरह जीते-मरते हुए दिखते हैं. लोगों को उनमें सखा-बन्धु-गुरु, सब दिखते हैं. कोई भी व्यक्ति जितनी सहजता से कृष्ण के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है उतना किसी और देवता से नहीं कर पाता. कृष्ण अकेले ऐसे देवता हैं जिनकी उत्पत्ति भय से नहीं, बल्कि प्रेम और साख्य-भाव से हुई है. कृष्ण प्रकट नहीं होते, पैदा होते हैं. उनके जन्म के समय जो स्थितियाँ थीं, वह विशुद्ध रूप से मानवीय धरातल पर थीं. आप आज की उन प्रसूताओं का ध्यान करिए जिनके पास प्रसव की सुरक्षित परिस्थितियाँ ही नहीं हैं.

पैदा होने के साथ ही माता-पिता से वियोग के बाद जो बालक नन्द और यशोदा के संरक्षण में बड़ा हुआ, उसके पास जीवन को समझने और जीने की कुछ विशिष्ट पद्धतियाँ तो होनी ही थीं. मथुरा में गोपियों का जो साथ मिला, उसने कृष्ण को जीवन के अधिकतम विस्तार तक पहुँचाया. कृष्ण का जीवन उत्सव का संदेश बन गया. कृष्ण की लीलाएँ मनुष्य की सहज और संभाव्य आकांक्षाएँ बन गयीं.

कृष्ण, जीवन को उसके पूरे आयतन में देखने का आग्रह करते हैं. एक साधारण मनुष्य की तरह लीला करते हुए वो चमत्कारों का बहुत कम सहारा लेते हैं. अगर कोई चमत्कार किया भी तो उसकी व्याख्या लौकिक धरातल पर करने की कोशिश करते हैं. जब ऐसा करना मुश्किल हो जाता है तो योगेश्वर रूप बना लेते हैं. अपने किसी भी कौतुक को नकारते हुए यह बताने लगते हैं कि ये शक्तियाँ सबके भीतर हैं, जिन्हें जागृत किया जा सकता है.

कृष्ण का जन्म कारागृह में हुआ. अँधेरे में हुआ. दुनिया में हर जन्म अँधेरे में ही होता है. बीज से अंकुर को फूटते कभी देखा है किसी ने ? हमारे भीतर भी जो चीज़ें पैदा होती हैं, वह सब गहरे अंधकार के भाव में ही होती हैं.एक कविता, एक चित्र या एक राग का जन्म मन की जिन गहराइयों में होता है, वहाँ गहन अंधकार ही है. यह अचेतन का अंधकार होता है.


कृष्ण एक ऐसा जीवन हैं जिनके सामने मौत बार-बार और अनेक रूपों में आती है, लेकिन हर बार हार कर लौट जाती है. कभी पूतना बन कर तो कभी कालिया नाग की तरह. कृष्ण के जन्म के साथ ही उनके मारे जाने का डर है. मृत्यु की आवश्यक शर्त है जन्म. जन्म के बाद का एक-एक क्षण मृत्यु की यात्रा है. यही जीवन है. मृत्यु कृष्ण को रोज़ घेरती है. और कृष्ण जीवन की तरह रोज़ जीतते चले जाते हैं. कृष्ण का जीवन मृत्यु को पराजित किए जाने का आख्यान बन जाता है. और इसी बिन्दु पर हमारा जीवन, कृष्ण का जीवन बन जाता है. यही सिरा है जहाँ से हमारा तादात्म्य कृष्ण के साथ शुरू हो जाता है. कृष्ण जैसा व्यक्तित्व जब हमें मिल गया तो उस व्यक्तित्व में हमने अपने आपको खोजना और पहचानना शुरू कर दिया.

हमारी इस आत्म-खोज को कृष्ण थोड़ा सरल बना देते हैं, जब वो कहते हैं—“ सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज “ . यह एकाग्र होने की बात है. जब तक हम दस रास्तों पर नज़र रखेंगे, तो जहाँ हैं वहीं खड़े रह जायेंगे. जड़ हो जायेंगे. गति जीवन है. जड़ता मृत्यु है. कृष्ण इस जड़ता को खत्म करने की बात करते हैं. सभी धर्मों को छोड़कर तू मुझ एक की शरण में आ....सब को छोड़कर एक पर एकाग्र हो जा...यहाँ कृष्ण व्यक्तिवाची नहीं रहते, भाववाची हो जाते हैं—यह द्वैत से अद्वैत की ओर आमंत्रण है.
यह किसी और की शरण में जाने की भी बात नहीं है. यह आत्मशरण में होने की बात है. कृष्ण कहते हैं कि अपने ‘ स्वभाव ‘ में स्थिर होना है. सारी चेतना और शक्तियों का केन्द्र यही ‘स्व’ है. इसी को ठीक-ठीक पहचान लेना है.

बहुत आश्चर्य होता है कि जो कृष्ण माखन चुराता है, गोपियों के वस्त्र लेकर छुप जाता है, वह गीता का गंभीर योगी कैसे हो जाता है ! यही कृष्ण के व्यक्तित्व की निजता है. यही वह विशेषता है जिससे कृष्ण हमारे इतने नज़दीक लगते हैं. विरोधों का समागम हैं कृष्ण. हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी---निदा फाज़ली की इस पंक्ति को कृष्ण के जीवन से भी समझा जा सकता है. हमारा सारा जीवन ही विरोधों पर खड़ा है. लेकिन इन विरोधों में एक लय है. एक प्रवाह है. सुख-दुख, बचपन-बुढ़ापा, रोशनी-अँधेरा, जन्म-मृत्यु----ये सब विरोधी प्रत्यय हैं, लेकिन एक लय में बंधे होते हैं. इसी लय में जीवन संभव होता है.

गोपियों के साथ कृष्ण की काम-लीला से बहुत से शुद्धतावादियों को आपत्ति रही है. कृष्ण के जीवन में काम की सहज स्वीकृति है. मनुष्य के जीवन में ही नहीं, सारी सृष्टि के सृजन में काम-ऊर्जा केन्द्रीय तत्व है. फ्रायड इसे ‘लिबिडो’ कहते है. पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा ने काम से पीड़ित होकर ही जगत् को बनाया है. जीवन के हर उद्यम, हर रचना,हर अभिव्यक्ति के पीछे काम की ऊर्जा होती है. कृष्ण के जीवन में काम का कहीं निषेध नही है. कहीं कोई दमन नहीं है. काम एक निर्बाध प्रवाह है. काम का दमन हमें रोगी बनाता है. पोखर के पानी और नदी के पानी में फर्क देखा होगा आपने ! पोखर में पानी को बांध दिया गया है. नदी में प्रवाह है, उन्मुक्तता है. पोखर का पानी रोग और बीमारियाँ देता है, नदी का पानी जीवनदायी है.

कृष्ण जीवन को एक उत्सव की तरह देखते हैं. वे खुद को जीवन की तरफ मुक्त करते हैं. बौद्धिकों ने संसार और जीवन को बहुत जटिल कर दिया है. कृष्ण सरलता का संदेश देते हैं. कृष्ण हँसते हैं,गाते हैं,नाचते हैं, रास करते हैं. रास उनके लिए ,उस केन्द्रीय काम-ऊर्जा का विखंडन है. कृष्ण एक-एक क्षण को उसकी अधिकतम लब्धता में जी लेने के हिमायती हैं. कृष्ण हमारी आदिम और मौलिक आकांक्षाओं के प्रतिबिम्ब हैं

Wednesday 17 August 2011

देखो तो !

अक्षांशों और देशांतर के जाल में
मेरी स्थिति
इन दिनों कुछ इस तरह है
कि लोग मुझे
पराजित और उदास कहते है.

मैं यहां एक निर्द्वन्द्व प्रतीक्षा में
बीत रहा हूँ
और वहाँ तुम
एक दुर्निवार व्याकुलता में गतिशील हो.

हमारे पास समय और
दूरी का
एक सीधा सा सवाल है
चुनौती सिर्फ इतनी है
कि इसे हल करने के लिए
हमें अपने गुरुकुलों को छोड़ना होगा.

इस समय यहाँ रात के
ग्यारह बजकर पैंतालीस मिनट हुए हैं
आकाश साफ है
और सप्तऋषि अपनी जगहों पर अटल
न जाने किस मंत्रणा में लीन हैं.

यह कर्क रेखा
जो मेरे शहर के थोड़ा बांये से गुजरती है
तुम्हारे शहर से बस ज़रा सा ही दायें तो है.

यहां मेरे चारों तरफ
हवा है,आकाश है, अकेलापन और उम्मीद है.

अगर यही चीज़ें
तुम्हारे आस पास भी हैं
तो देशकाल और वातावरण के तर्क से
हम कितने पास हैं...
देखो तो...!

Sunday 14 August 2011

घिसे-पिटे जुमलों का पर्व


पहले महात्मा गांधी का यह कथन देखिए—“ स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए सोने की ज़ंजीरें भी उतनी ही क्लेशकारी होती हैं जितनी कि लोहे की ज़ंजीरें. दंश ज़ंजीर मे निहित है, उस धातु में नहीं जिससे ज़ंजीर बनाई जाती है.
मेरी दृष्टि में सोने की ज़ंजीरें लोहे की ज़ंजीरों की तुलना में कहीं ज़्यादा बुरी हैं, क्योंकि लोहे की ज़ंजीर की क्लेशकारी प्रकृति मनुष्य आसानी से समझ पाता है, जबकि सोने की ज़ंजीर का दुख प्रायः भूल जाता है. इसलिए अगर भारत को ज़जीरों में बंधे रहना है तो मैं चाहूँगा कि ये सोने या किसी अन्य बहुमूल्य धातु की अपेक्षा लोहे की ही हो. “

कल आज़ादी की वर्षगांठ है. इस मौके पर गांधी का यह कथन याद आ रहा है तो यह बेसबब नहीं है, पर इस पर बात थोड़ा आगे चलकर करूँगा...पहले मेरे ज़हन में वे दृश्य आ रहे हैं, जहां एक गली के स्कूल में बस्ती का एक लुच्चा और दिल्ली के लाल किले पर प्रधानमंत्री हमें आज़ादी का मतलब समझा रहे हैं. हम हाथ में एक रुपये की झंडियां लिए यह दिखाने की कोशिश में हैं कि हम एक आज़ाद देश के नागरिक हैं, और हमें आज़ादी की समझ भी है.

स्वतंत्रता दिवस पर हर सरकारी-गैर सरकारी संस्थान में ध्वजारोहण और भाषण देने की परंपरा है. यह हमारा फ़र्ज़ भी है. इस मौके पर हर वर्ष यह याद किया जाता है कि आज़ादी कितने संघर्ष के बाद मिली है. अंग्रेजों के अत्याचार और भगत सिंह, आज़ाद, बिस्मिल वगैरह की कुर्बानी भी याद की जाती है. लता के गाये कालजयी गीत—“ ऐ मेरे वतन के लोगों...” ---को हर लाउडस्पीकर अपने ही अंदाज़ में सुबह से शाम तक बजाता है.

प्रायः विद्यालयों में आयोजित होने वाले समारोह ज़्यादा रोचक होते हैं. इन समारोहों में, विद्यालय-प्रमुख की यह मज़बूरी होती है कि वह उस इलाके के कुछ सर्वाधिक बदनाम लोगों को बतौर अतिथि आमंत्रित करे. विद्यालय के निरीह शिक्षक उनका माल्यार्पण करें और प्रसाद की प्रतीक्षा में बैठे छात्र, इन महानुभावों के महान उद्गारों पर ताली बजाएँ—जिसकी उन्हें बराबर ताकीद की जाती है. वक्तागण एक मंजे हुए देशभक्त की मुद्रा मे झंडे को सलाम करते हैं, गांधी की जय बोलते हैं, और सीधे विद्यालय के शिक्षकों को उनके कर्तव्य याद दिलाते हुए यह भी चेता देते हैं कि उनके जैसे देशभक्तों के रहते किसी भी शिक्षक को इस देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करने दिया जायेगा.

कल प्रधानमंत्री भी लाल किले पर चढ़ेंगे. वो बड़े आदमी हैं इसलिए उन्हें बड़ा देशभक्त माना जाना चाहिए. उनकी चिन्ता को बड़ी चिन्ता मानना चाहिए. प्रधानमंत्री हर साल चिंतित होते हैं. जब वो चिन्तित होते हैं तो देश की जनता का आह्वान करते हैं. आह्वान करना प्रधानमंत्री का विशिष्ट धर्म होता है, तो कतरा कर निकल जाना उनका अद्भुत कौतुक. हो सकता है कल प्रधानमंत्री कहें कि हमारे पड़ोसी, हमारे ऊपर बुरी नज़र लगाये हुए हैं...पर इस देश की जनता इतनी बहादुर है कि वह उनके मंसूबों पर पानी फेर देगी. इस देश की जनता अपने घर के दुश्मनों का तो कुछ कर नहीं पाती, बाहर वालों से कैसे निपटेगी, यह प्रधानमंत्री ही जानते होंगे. सेना के प्रमुख बार-बार प्रस्ताव भेजते हैं कि सेना के लिए बुनियादी ढाँचा तैयार करने की ज़रूरत है. चीन की सीमा पर जहां चीन अपनी सेनाओं को महज़ दो-तीन घंटे में भेज सकता है, वहां हमारे सैनिकों को पहुंचने में 15 दिन लगते हैं. सेना के प्रस्ताव रक्षा-मंत्रालय में दबे रहते हैं, उन्हे मंजूरी नही मिलती. पाकिस्तान से आतंकवादी घुसते हैं और हमारे जवानों के सिर काटकर ले जाते हैं. बांग्लादेश और नेपाल परोक्ष रूप से पाक-चीन की मदद करते हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री का आशावाद काबिले तारीफ है.

आज़ादी के पर्व पर यह भी याद दिलाया जायेगा कि भारत कभी सोने की चिड़िया था, जिसे अंग्रेजों ने कैद कर लिया था. फिर उसे इंगलैण्ड ले गये....इमानदारी तो इतनी थी कि घरों में लोग ताले नहीं लगाते थे. आज सरकार की नीतियों और उद्यमशीलता के चलते यह देश फिर से सोने की चिड़िया में बदलने लगा हैं. लगभग 75 प्रतिशत बदल चुका है. 2025 तक यह चिड़िया सौ-फीसदी सोने की हो जायेगी. यह उत्साहवर्धक विचार, एक ही साथ सत्य भी है और भ्रामक भी. इसे आप तर्कशास्त्र में अपवाद की तरह भी देख सकते हैं. जिस काल में भारत को सोने की चिड़िया होना बताया जाता है, तब भी सम्पत्ति के सारे भंडार शासकों और व्यापारियों के ही पास थे.उसी की चकाचौंध विदेशियों को खींच लाती थी. आम जनता के घर में कुछ था ही नहीं तो ताले किसके लिए लगाते ? तत्कालीन इतिहास के जितने स्रोत हैं, वे शासकों के नियंत्रण में थे. राजा खुद अपनी निगरानी में इतिहास लिखवाते और स्तम्भ गड़वाते थे. इसलिए उनके विवरण पर भरोसा करना ठीक नहीं. कोई मीडिया तो तब था नहीं. तो यह मानने में कोई हर्ज़ नहीं कि सोने की चिड़िया का चित्र राजा के भाड़े के चित्रकारों ने बनाया था.

अब गांधी जी के उस कथन पर लौटते हैं जिसका जिक्र शुरुआत में किया था. यह कथन उन दिनों का है, जब भारत की आज़ादी लगभग तय हो गयी थी, और शीर्ष स्तर पर आज़ादी का खून चूसने की तैयारियां चल रही थीं. गांधीजी की केन्द्रीय भूमिका अब मात्र एक आवरण थी. संभवतः उन्हें यह आभास था कि अँग्रेजों से मुक्त होकर यह देश किन लोगों के हाथ में जाने वाला है. वो बार-बार कह रहे थे कि स्वराज का अर्थ है कि देश के कमज़ोर से कमज़ोर व्यक्ति को भी उन्नति का अवसर मिले...पर तब तक उनकी बातों को सुनना भावी शासकों ने कम कर दिया था. जब उन्होने यह कहा कि सोने की ज़ंजीर में बंधने से बेहतर है कि हम लोहे की ज़ंजीर में ही जकड़े रहें---तो यह उनकी दूरदृष्टि और गहन हताशा को दिखाता है.

आज 64 साल बाद इस देश के लोग ऐसे पूंजीपतियों के गुलाम हैं जिनकी कोई नागरिकता नहीं है. ये विश्व-नागरिक कहलाते हैं. 15 अगस्त को स्वतंत्रता का जश्न मनाते हुए हमारे पास कोई स्वप्न नहीं हैं. हम कुछ घिसे-पिटे जुमलों और बीस रुपए प्रतिदिन की औसत कमाई में अमर हैं.

Saturday 6 August 2011

सिमोन...


नारी पुरुष को आदर्श का सृजनकर्तो तभी बना सकती है,जब उसके सम्बंध पुरुष के साथ नकारात्मक हों.
नकारात्मक सम्बंध पुरुष को असीमित बना देता है,जबकि सकारात्मक सम्बंध उसे सीमित कर देता है.
नारी तब तक ही आवश्यक है, जब तक वह विचार के रूप मे रहती है....