जीवन के कुछ
अनिवार्य युद्ध.
शब्दों का
अपना देश होता है
और अपने लोग
भी होते हैं
जो लगाते हैं
टीका
उनके प्रशस्त
भाल पर
और भेज देते
हैं
एक नये युद्ध
में ।
शब्द निकलते
हैं यात्रा पर
ये उन ज़गहों
के
स्थायी पर्यटक
होते हैं
जो छूट गयी
होती हैं
मानचित्र के
बाहर
या जिनके ऊपर
किसी अभिशप्त
सभ्यता के
टीले उगे
होते हैं ।
शब्द जब
जुड़ते हैं
तो ऋचाएँ
नहीं
एक पुल बनता
है,
जिस पर से
तुम्हारा
होना मुझ तक पहुंचता है
ठीक उसी तरह
जैसे मेरा
होना पहुँचा था
तुम्हारे न
होने तक ।
शब्दों के
गोत्र भी होते हैं
जिनकी पहचान
उन सन्ततियों
से तो
कतई नहीं की
जा सकती
जो किसी ऋषि
के नियोग से
उत्पन्न हुई
हैं ।
इनकी जाति का
पता
इन्हीं की
आत्मा और पीठ पर
खुदी लिपियों
से मिलता है ।
विलाप या
अट्टहास में
होती है
इनकी सबसे
मौलिक पहचान
जब ये
निर्वस्त्र होते हैं ।
इन्हें अगम
कहा गया
और अगोचर कर
देने के
षड़यंत्र भी
कम नहीं हुए.
ऐसे दिनों
में
किसी अछूत के
यहाँ
इन्हें लेनी
पड़ी पनाह
और उस
बेधर्मी ने
इन्हें अपने
बगीचे में
फूल की तरह
खिला दिया ।
हमारे जैसे
नहीं होते
शब्दों के
रिश्ते,
इन्हें बांधने
वाली डोर
या तो आग से
बनी होती है
या पानी से ।
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विमलेन्दु
6 comments:
बहुत सशक्त व्याख्या की है।
bahut prabhavshali rachna
Bhut khubsurat kavita. shabd jab judte hain to richayen nhi ek pul bnta hai............... bhut sunder.
शब्द तुलते हैं ..भावना के तराजू पर ..नाप जोख कर जोड़ लेते हैं गाँठ ..अटूट संबंधों की ...पहचान बनाने को युद्ध करते हैं निरंतर ...जाने कहाँ कहाँ घूम आते हैं .....कहाँ से निकलते हैं ..कैसे बढते हैं ..कहाँ पहुँचते हैं ..ये सब एक शब्द शिल्पी ही लिख सकता है .....सच है ! शब्द स्वयं अपनी कहानी कहते हैं ..जो बिलकुल झूठ नहीं बोलती ....ये कहानी शब्दों को उसका चरित्र देती है ...और पहचान देती है उस शख्स को जो इन शब्दों को व्यवहार में लाता है ....पूरी तरह ठोक पीट कर तराश कर उतरता है आपका कोई भी शाहकार ...इसीलिए नक्श में कोई नुक्स नहीं होता ....ख़ूबसूरती से बहता है भाव का दरिया ....एक और सुन्दर कृति की बधाई स्वीकारें ..
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