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आदिवासी समाज को निकट से जानने वाले जानते हैं कि यह दुनिया का सबसे निर्दोष समाज है। ऐसे समाज की पीड़ा को देखकर भी न जाने कैसे हम चुप रह जाते हैं। पर यह तय मानिए कि इस बेहद अहिंसक, प्रकृतिपूजक समाज के खिलाफ चल रहा नक्सलवादी अभियान एक मानवताविरोधी अभियान भी है। हमें किसी भी रूप में इस सवाल पर किंतु-परंतु जैसे शब्दों के माध्यम से बाजीगरी दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। भारत की भूमि के वास्तविक पुत्र आदिवासी ही हैं, कोई विदेशी विचार उन्हें मिटाने में सफल नहीं हो सकता। उनके शांत जीवन में बंदूकों का खलल, बारूदों की गंध हटाने का यही सही समय है। बस्तर से आ रहे संदेश यह कह रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र यहां एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है, जहां हमारे आदिवासी बंधु उसका सबसे बड़ा शिकार हैं। उन्हें बचाना दरअसल दुनिया के सबसे खूबसूरत लोगों को बचाना है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारी सरकारों और राजनीति की प्राथमिकता में आदिवासी कहीं आते हैं। क्योंकि आदिवासियों की अस्मिता के इस ज्वलंत प्रश्न पर आदिवासियों को छोड़कर सब लोग बात कर रहे हैं, इस कोलाहल में आदिवासियों के मौन को पढ़ने का साहस क्या हमारे पास है ?
कुछ समय पहले, सर्वहारा की लडाई लडने का दावा करने वाले माओवादियों के संबंध में एक और सनसनीखेज खुलासा हुआ था। बंगलूरू पुलिस ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई व नक्सलियों के बीच सांठगांठ कर देश में आतंकी वारदात को अंजाम देने की साजिश के आरोप में दो लोगों को गिरफ्तार किया है। वैसे तो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा नक्सलियों को सभी प्रकार की सहायता करने संबंधी आरोप पहले से लग रहे थे। लेकिन इस मामले में बंगलुरु पुलिस द्वारा दो लोगों को गिरफ्तार किये जाने के बाद यह और पुख्ता हुआ है। AK-47 और बुलेटप्रूफ गाड़ियों को उड़ा सकने वाली लैण्डमाइन्स इनके पास कहाँ से आती है, क्या यह अंदाजा लगाना कठिन है !
माओवादी दावा करते हैं कि वे एक वैचारिक लडाई लड रहे हैं। उनके प्रवक्ता जब भी मूंह पर काली पट्टी पहने बंदूक के साथ किसी जंगल में किसी टेलीविजन चैनल के सामने बयान देता हैं तो वे इसी बात को कहता हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा है क्या य़ह विचारणीय प्रश्न है। बंगलूरू की घटना के बाद स्थिति और स्पष्ट हुई है और नक्सलियों पर जो नकाब था, वह उतर रहा है।
माओवादी इस्लामी आतंकवादियों से मिले हुए हैं। इस्लामी आतंकवादियों से वे क्यों मिले हुए हैं? क्या इसका कोई वैचारिक आधार है? क्या इस्लामी आतंकियों का और सर्वहारा की लडाई लडने वालों का कोई समान वैचारिक धरातल है जिसके आधार पर दोनों एक दूसरे के साथ दे सकते हैं?
केवल इस्लामी आतंकवाद ही क्यों चर्च प्रेरित आंतकवाद का साथ भी नक्सली दे रहे हैं। इसका खुलासा आज से लगभग तीन साल पूर्व ही हो गया था। कंधमाल के वनवासी इलाके में चार दशकों से कार्य कर रहे हैं स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की जब जन्माष्टमी के दिन अत्यंत नृशंसता से हत्या कर दी गई थी। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या केवल इस लिए की गई थी कि उन्होंने मतांतरण को इलाके में पूरी तरह रोक दिया था। उन्होंने इलाके में गौ हत्या बंद करवा दी थी। इस कारण मतांतरण के कार्य में लगे चर्च के निशाने पर वे थे। इस बात का खुलासा जिला प्रशासन के आला अधिकारियों ने मामले की जांच के लिए बनी न्यायिक कमिशन के सामने भी कहा है। लेकिन हत्या की जिम्मेदारी माओवादियों ने ली है। घटना के कुछ दिनों बाद माओवादी नेता सव्यसाची पंडा ने विभिन्न समाचार पत्रों को इस संबंध में साक्षात्कार दिया था। उसमें उसने यह दावा किया कि स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या माओवादियों ने की है। लक्ष्मणानंद सरस्वती की माओवादियों द्वारा क्यों हत्या की गई इसके बारे में इस साक्षात्कार में उसने कुछ अजीब तर्क प्रदान किये थे, जिसका यहां उल्लेख करना आवश्यक है। इससे चित्र और स्पष्ट हो सकता है। उसने इस साक्षात्कार में बताया कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ईसाई बन चुके हिन्दुओं की घरवापसी करवा रहे थे। इसके अलावा स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती इलाके में गौ हत्या होने नहीं देते थे।
चर्च द्वारा जनजातीय लोगों के मतांतरण करवाने पर इस साक्षात्कार में सव्यसाची ने कोई टिप्पणी नहीं की और न ही किसी पत्रकार ने उससे यह प्रश्न पूछा। उसने एक बात और बतायी कि उसके कैडरों में अधिकतर ईसाई हैं। इस कारण उनका दबाव भी था। उधर इस मामले पर नजर रखने वाले कुछ लोगों का कहना है कि चर्च से भारी पैसे लेकर माओवादियों ने लक्ष्मणानंद की हत्या की है।
अब सव्यसाची के इस साक्षात्कार में कहे गये उत्तर का विश्लेषण करना होगा। सव्यसाची मूल रूप से मार्क्स के शिष्य है। मार्क्स ने कहा है कि चर्च, सर्वहारा की क्रांति में सबसे बडी बाधा है। लेकिन सव्यसाची एक ओर तो मार्क्स के अनुयायी होने तथा सर्वहारा की लडाई लडने का दावा कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर मार्क्स के द्वारा बताये गये सर्वाहारा के दुश्मन चर्च की सहायता भी कर रहे हैं। क्या यह नक्सलियों का वैचारिक अंतर्विरोध नहीं है? क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि नक्सली कोई वैचारिक लडाई नहीं लड रहे हैं बल्कि सर्वहारा की लडाई लडने का पाखंड कर रहे हैं।
नक्सली इस्लामी आतंकवादी व चर्च का साथ क्यों दे रहे हैं? यह एक मुख्य प्रश्न है। इसका उत्तर शायद नक्सलवाडी आंदोलन को प्रारंभ करने वालों में से एक कानू सान्याल ने अपने मौत से पहले एक साक्षात्कार में दिया था। उन्होंने कहा था कि वर्तमान में नक्सलवाडी आंदोलन का जो नया संस्करण माओवाद है उसे मार्कसवादी नहीं कहा जा सकता। इसे अराजकतावादी कहा जा सकता है।
कानू सान्याल ने वर्तमान के माओवादी हिंसा के बारे में स्पष्ट किया है इस आंदोलन का मार्क्स के विचारों से कोई लेना देना नहीं है। माओवादी, अराजकतावादी हैं।

आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी आदिवासियों की दशा सबसे बुरी है। विकास के नाम पर जल-जंगल-जमीन से बेदखल कर देने की पॉलिसी ने ही नक्सलवाद को मजबूत किया है। यदि आप गौर करेगें तो देखेंगे कि नक्सलवाद उन्हीं जगहों पर सबसे ज्यादा मजबूत है जहां विकास के नाम पर सरकार ने इन क्षेत्रों को कॉरपोरेट के हाथों में सौंप दिया है। जिन आदिवासियों ने जमीन के बदले मिलने वाले मामूली मुआवजे को लेने से इंकार किया उन्हें नक्सली समर्थक बताकर न सिर्फ जेलों में बंद कर दिया गया बल्कि उनके घर की इज्जत को भी तार-तार किया गया। इस पूरे परिदृष्य पर गौर किया जाए तो साफ है कि आदिवासी दो बंदूक के बीच फंसकर रह गए हैं। माओवादी उन्हें पुलिस का मुखबिर होने का शक करते हैं तो पुलिस उन्हें माओवादियों का समर्थक मानती है । माओवादियों का साथ देने के आरोपों का सामना कर रहे स्थानीय नौजवानों के सामने दो ही विकल्प रह जाते हैं, या तो वह वास्तव में बंदूक उठाकर उनका साथ दें अथवा गांव छोड़कर चले जाएं। जो इस बात की ओर इशारा है कि शासन धीरे-धीरे स्थानीय जन समर्थन खो सकता है।
पहले से ही उपेक्षा का शिकार आदिवासियों ने अपनी जमीन छिनते देख हथियार उठा लिया और नक्सल बनते चले गए। यहां उन्हें जन अदालत में भले ही जमीन वापस न मिली हो लेकिन इंसाफ जरूर मिला जो शायद भारतीय अदालत में मिलना मुश्किल था क्योंकि इसके लिए पहले पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करानी होती है जो पहले से ही उनपर सरकारी भाषा और लाठी का प्रयोग करती रही है। आदिवासी समाज उन सुविधाओं से भी वंचित है जो एक अति पिछड़े गांव में भी होती है। जल, जंगल और जमीन ही इनकी जीविका का मुख्य स्त्रोत है। जिसका उचित मुआवजा दिए छिनने का विरोध करने पर इनपर ज्यादतियां की जाती हैं। यदि आजादी के बाद केवल एक प्रतिशत ही इन क्षेत्रों पर ईमानदारी से खर्च किया जाता तो 65 सालों में इन क्षेत्रों में 65 प्रतिशत विकास हो गया होता।

केवल सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले पांच वर्षों के दौरान नक्सली हिंसा में 3,000 हजार से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। जिसमें आम नागरिकों के अलावा सुरक्षा बलों की भी एक लंबी फेहरिस्त है। नक्सली हिंसा की सबसे अधिक घटनाएं इससे प्रभावित चार राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और बिहार में हुई है। इस दौरान माओवादियों ने छोटी बड़ी करीब 6,500 से अधिक घटनाओं को अंजाम दिया है। प्रभावित राज्यों के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी नक्सलियों के पांव पसारने की खुफिया रिपोर्ट के बाद सरकार को इससे निपटने के लिए नई रणनीति बनाने पर मजबूर कर दिया है।
नक्सलियों से निपटने के लिए सरकार द्वारा चलाये गये ऑपरेशन ग्रीन हंट से समस्या सुलझने की बजाए और पेचिदा ही हुई है। इस ऑपरेशन में नक्सलियों को जितना नुकसान नहीं पहुंचा उससे अधिक उनके जवाबी हमले में सरकार ने अपने सिपाही खोए हैं। आपको याद होगी दंतेवाड़ा की वह घटना जिसमें अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले में 73 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। बस्तर से लगा दंतेवाड़ा नक्सलियों के लिए सबसे अधिक सुरक्षित क्षेत्र है। जो घने जंगलों के साथ साथ पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। नक्सली इस जंगल के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं जबकि सरकार ने उनसे लोहा लेने वाले वैसे सुरक्षाकर्मियों को मोर्चे पर लगा रखा है जिन्हें क्षेत्र की विशेष जानकारी नहीं होती है। ऐसे में वह माओवादियों द्वारा किए गए अचानक हमलों या गुरिल्ला हमलों का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं। दूसरी ओर नक्सलियों द्वारा सुरक्षा बलों के मांइस प्रोटेक्टिव व्हीकल (एमपीवी) पर हमला कर उसे क्षतिग्रस्त करने के बाद यह साफ जाहिर है कि माओवादियों को आंतकवादियों का समर्थन मिलने लगा है. क्योंकि इतने शक्तिशाली हथियार उन्हीं के पास है.
हमें सभी नक्सल प्रभावित को समवेत कर एक समन्वित अभियान चलाना ही होगा। इस ज्वाइंट आपरेशन के माध्यम से ही इस समस्या से लड़ा जा सकता है। पुलिस और सुरक्षाबलों का मनोबल बनाए रखने के लिए आला पुलिस अफसरों को भी मैदान में उतारने की जरूरत है जो अपने वातानुकूलित कमरों में आराम फरमा रहे हैं। उन्हें पुलिस मुख्यालय से निकाल कर बस्तर को अलग-अलग जोन में बांट कर उनका प्रभार देने और नियमित वाच की आवश्यक्ता है। वरना यूं ही साधारण जवान मौत के शिकार होते रहेंगें और हमारा राज्य बहादुरी से जंग जारी रखने के बयान देते रहेगा। माओवाद प्रभावित राज्यों की छत्तीसगढ़ से लगी 4000 वर्ग किलोमीटर की सीमा पर चौकसी बढ़ाने के साथ-साथ स्थानीय पुलिस बलों और केंद्रीय बलों में और बेहतर समन्वय की आवश्यक्ता है। साथ ही पुलिस बलों को यह भी प्रेरित करने की जरूरत है कि वे आम जनता के मित्र की तरह पेश आएं और जनता के बीच विश्वास बहाली का काम करें। क्योंकि जनसहयोग के बिना यह आपरेशन सफल नहीं हो सकता। पुलिस की छवि अगर अत्याचारी और बलात्कारी की होगी तो इससे नक्सलवाद को ही बढ़ावा मिलेगा।
1 comment:
प्रतीक्षा समाप्त हुई
कल से राह देख रही थी इस अंक की
आद्योपान्त पढ़ी गई आपकी ये दोनो पोस्ट
ये सब सरकार तो जानती ही होगी
फिर क्ये देरी...
सोचने का विषय
सादर
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