Thursday, 21 July 2011
अहा और आह के बीच ग्राम्य जीवन !
जिन दिनों एक कवि के कण्ठ से फूट पड़ा था—“ अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है “—उन दिनों भारत के गांव इतने हीनताबोध से ग्रस्त नहीं रहे होंगे जितने आज हैं. वह समय ऐसा था जब देश में शहरों की संख्या भी कम थी और उनके मायालोक की सूचनाएँ भी गांवों तक बहुत कम ही पहुँचती थीं. यह बात भले ही बहुत पुरानी न हो लेकिन इस समय भी गांवों के आर्थिक स्वाबलंबन के भग्नावशेष मौजूद थे. तब से लेकर आज तक में भारतीय गांवों के चित्र और चरित्र दोनो ही बहुत बदल गये हैं. हमारी बुजुर्ग और अधेड़ पीढ़ी जिस पीपल की छाँव और धानी चूनर के नास्टेल्जिया में जी लेती है, उसकी हकीकत बेहद दिल-शिकन है.
अभी हाल ही में सरकार ने जनगणना-2011 के अस्थाई आंकड़े जारी किये जो यह बताते हैं कि 121 करोड़ की आबादी के इस महादेश में 83 करोड़ लोग यानी लगभग 70 फीसदी लोग गांवों में ही रहते हैं. जब यह कहा जाता है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है, तो यह कथन अलंकारिक होने के बावजूद सच के बेहद करीब ठहरता है. भारत की आत्मा जिन गांवों में बसती है उनकी खुशहाली का अंदाज़ा लगाने के लिए यह जान लेना ठीक रहेगा कि पिछले एक दशक (2001-2011) में 3.5 फीसदी लोगों ने गांव छोड़ दिया और शहरों में जा बसे. 121 करोड़ की आबादी में साढ़े तीन प्रतिशत, सुनने मे चाहे भले ही छोटा लगे लेकिन हल करने में जो आँकड़ा सामने आता है वह इतना समझने के लिए पर्याप्त है कि इतनी जनसंख्या जब शहरों में पहुँची होगी तो उन शहरों पर दवाब कितना बढ़ गया होगा ?
लेकिन मैं यहाँ मैं सिक्के के दूसरे पहलू को देखना चाहता हूँ. मेरी दिलचस्पी इसमें है कि वो कौन से हालात हैं जिनकी वज़ह से इतनी बड़ी तादात में गांवों से शहर की ओर लोगों का पलायन हो रहा है, इस पर विचार करने से पहले यह भी जानते चलें कि पिछले दस सालों में भारत की आबादी में 18.14 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है, जिसमें गांवों में 9.04 करोड़ और शहरों में 9.10 करोड़ लोग बढ़ गये हैं. और यह भी ध्यान मे रखना ठीक रहेगा कि इसी बीच केवल म.प्र. में ही लगभग 82 शहर बढ़ गये हैं और लगभग 500 गांव खत्म हो गये हैं.
नये शहरों की पैदाइश और पुराने गांवों की की मृत्यु चिन्ता की बात नहीं है. इसको लेकर भावुक होने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि यह विकास की एक सहज प्रक्रिया है. असल चिन्ता की वज़ह वह खाई है जो भरत के शहरों और ग्रामीण इलाकों के बीच बनी हुई है.
देश की अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्रों की हिस्सेदारी कम होते होते ऐसी दयनीय अवस्था में पहुँच गई है कि जो गांव पहले खुदमुख्तार हुआ करते थे वो आज आज शहरी उत्पादन-इकाइयों के टुकड़ो पर पलने के लिए मज़बूर हो गये हैं. इस देश की अर्थव्यवस्था इतनी तेजी से एकांगी हुई है कि अब भी अगर कोई इसे मिश्रित अर्थव्यवस्था कहता है तो उसका भ्रम बहुत जल्दी ही टूट जाएगा. उत्पादन और वितरण के लगभग सभी साधनों पर पूँजीवादी संस्थाओं का नियंत्रण हो चुका है. सार्वजनिक क्षेत्र की सभी इकाइयाँ बीमार होकर दम तोड़ रही हैं. ऐसी दशा में यह तो तय था कि नियंत्रण की डोर उन्हीं के हाथों में रहनी है जिनके पास पूँजी है.
जाहिर है कि पूँजी के सभी केन्द्र भारत के नगरों में स्थानान्तरित हो चुके हैं. गांव से कुम्हार,जुलाहे, तेली, मोची,दर्जी,दरवेश,बनिए,लोहार आदि विलुप्त हो चुके हैं. ये गांव की उत्पादन इकाइयां थीं. औद्योगीकरण की विक्षिप्त नीतियों के चलते ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ये सभी स्तम्भ ध्वस्त हो चुके हैं. जनगणना के जब और आँकड़े सामने आयेंगे तो निश्चित ही यह पता चल जायेगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ने की दर, शहरी क्षेत्रों से बहुत अधिक होगी.
गांवों के पास उत्पादन की केवल एक इकाई रह गई है, वह है-कृषि. और यही उनकी दुर्दशा का भी कारण है. हमारे देश में तमाम प्रयासों के मायाजाल के बाद भी कृषि प्रकृति की कृपा पर ही निर्भर है. पिछले दो दशकों में प्रकृति का मिजाज़ कुछ इस तरह से बिगड़ा है कि गांव के बड़े-बड़े ज़मींदारों तक की मूँछों का पानी उतर गया है.आज से बीस साल पहले गांव के लोग जितनी ज़मीन और जितनी खेती में जिस रौब के साथ अपने परिवार को रखते थे , उतनी ही ज़मीन वाले कृषक आज दरिद्रता में जी रहे हैं.
इस दरिद्रता के आने की वज़ह भी साफ हैं. गांवों में दूरदर्शन पहुँचा, मोबाइल फोन पहुँचा. इनके साथ कुरकुरे,पेप्सी और अंकल चिप्स पहुँच गये. कारखानों में बनी पैकेट-बन्द चीज़ों ने गांव-घर की हस्तकला को समूल नष्ट कर दिया. लोगों की आकांक्षाओं को नागर पंख तो मिल गये, लेकिन आय के हाथ-पैर काट लिए गये. नगरों के दृश्य और महत्वाकांक्षाएं तो गांवों में पहुच गईं, लकिन उत्पादन और आय की विधियाँ वहाँ तक नहीं पहुँची. ऐसे में दरिद्रता के अलावा गांवों में और हो भी क्या सकता था.
दरिद्रता गांवों का भाग्य नही थी. इस इबारत को हमारे नीति-निर्माताओं ने लिखा है. मैने जिन गांवों को देखा है उनमे से अधिकांश में दूरदर्शन और मोबाइल के नेटवर्क तो मिल जाते हैं, लेकिन बिजली, पानी और सड़कें नहीं मिलतीं. जहां बिजली पहुँच भी चुकी है वहां कुछ इस तरह से पहुँची है कि पचास प्रतिशत लोग ही उसका उपयोग कर पाते हैं, वह भी चौबीस में से छः या आठ घंटे ही. पानी के लिए लोगों को दो-तीन मील दूर जाना पड़ता है. जिन गांवों तक सड़कें पहुँची भी हैं तो उनकी दशा पगडंडियों से बेहतर नहीं है.
सबसे खराब दशा शिक्षा और स्वास्थ्य की है. ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का जो बुनियादी ढाँचा और स्तर है, उसकी तुलना शहरी शिक्षण संस्थाओं से करने पर भारत के गांवों की दरिद्रता के सारे राज़ खुल जाते हैं. दो झोपड़ीनुमा कमरों या किसी पेड़ के नीचे दो किसाननुमा मास्टरों के आगे उछल-कूद करते ढाई-तीन सौ बच्चे. पेट में दर्द होने पर किसी तलैया या घर की तरफ भगते बच्चे...स्कूल के साथ-साथ खेत की निदाई-गहाई भी निपटाते मास्टर जी—अमूमन यही है हमारे गांवों की शिक्षा व्यवस्था का विहंगम दृश्य. इन विद्यालयों से पढ़कर निकले बच्चे सिर्फ इतनी ही योग्यता हासिल कर पाते हैं कि वो शहरी बच्चों की दासता कर सकें. इन्टरमीडियट तक की शिक्षा के लिए इन्हें 10 से 15 किमी दूर जाना पड़ता है तथा उच्चशिक्षा के लिए कम से कम 50 किलोमीटर. ऐसे में आधे छात्रों की पढ़ाई इन्टर के बाद बन्द हो जाती है.
स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल यह है कि गांव के हर घर के पिछवाड़े में नसबन्दी और पोलियो उन्मूलन के नारे तो पोत दिए गये हैं, लेकिन गांव के किसी व्यक्ति का मलेरिया भी ज़रा बिगड़ जाये तो कोई इलाज़ करने वाला नहीं मिलता. आस-पास के स्वास्थ्य केन्द्रों में जो चिकित्सक तैनात हैं वो कभी वहां जाते ही नही. हालांकि सरकार ने इन्हें खूब धमकाया भी और प्रलोभन भी दिया.
ऐसा भी नहीं है कि सरकार गांवों की दशा के प्रति बिल्कुल ही असंवेदनशील है. हर वर्ष केन्द्रीय और प्रादेशिक बजट में भारी भरकम राशि ग्रामीण विकास के लिए समर्पित की जाती है. रोज़गार से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए एक से बढ़कर एक योजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास चलता रहता है, लेकिन गांवों की छाती पर पड़ी दरिद्रता की शिला टस से मस नहीं होती. ऐसे में जो लोग भाग सकते हैं वो शहर भाग जाते हैं. शहर पहुँचकर उनका क्या हाल होता है, इसकी चर्चा फिर कभी करेंगें.
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1 comment:
hamare neeti nirdharko ke kano par to joo bhi nahi rengti.bhale hi gaon is asamanta ki shila ke neeche dabe cheekh cheekh kar dam tod de.
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