विचित्र संयोग था कि जब मैं हिटलर की आत्मकथा पढ़ रहा था तो बार-बार गांधी याद आ रहे थे. मेरे लिए यह बड़ी उलझन पैदा करने वाली बात थी. ख़ासतौर से हिटलर की आत्मकथा के उन हिस्सों को पढ़ते हुए, जहां उन्होने विवाह,दाम्पत्य और संतानोत्पत्ति की सार्थकता और निरर्थकता के बारे में लिखा है, गांधी का याद आना दुर्निवार हो गया था. अंततः मैने गांधी के हस्तक्षेप को स्वीकार कर लिया. शायद यह अक्षम्य होगा कि गांधी और हिटलर की तुलना की जाये, उनमें समानता ढूढ़ने की कोशिश तो अपराध की श्रेणी मे आ जाता है. गांधी और हिटलर में समानता सिद्ध करने की मंशा भी नहीं है, लेकिन कुछ विशेष संदर्भों में दोनों को समानान्तर रखने का दुस्साहस मैं करना चाहता हूँ.
इस देश और हमारे जीवन में गांधी जी की सांस्कृतिक उपस्थिति इतनी सहज और स्वाभाविक है कि मुझे गांधी अपने परिवार के किसी बुजुर्ग की तरह लगते हैं. घर का ऐसा सयाना जो हमारे हर क़दम पर नज़र रखता है, खीझता है, ज़िद पर अड़ जाता है. एक ऐसा अनुभव और संघर्ष से तपा हुआ बुजुर्ग जो निरंतर भविष्य की चेतावनी देता रहता है और उपेक्षित तथा दरकिनार हो जाता है. गांधी की उपस्थिति हमारे बीच ऐसी ही है. गांधी अपने जीते जी ही किंवदन्ती बन गये थे, तभी तो आइंस्टीन को कहना पड़ा था कि आने वाली पीढ़ियाँ ये कैसे विश्वास कर पायेंगी कि हाड़-मांस का एक ऐसा भी प्राणी इस धरती पर था....
गांधी और हिटलर, दोनो ही आधुनिक विश्व के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे. दोनों ने ही विशव को बदला, अपनी अलग-अलग प्रविधियों से. हिटलर ने अपनी जातीय श्रेष्ठता के आग्रह के चलते जहाँ पूरी दुनिया को विनाश के मुहाने पर खड़ा कर दिया था, वहीं गांधी ने सत्य और अहिंसा को मनुष्य का सबसे मारक हथियार बना दिया. हिटलर अपने व्यक्तित्व की समस्त संश्लिष्टताओं के बावजूद अपनी अभिव्यक्ति में एकदम स्पष्ट था, तो गांधी अपनी पूरी सरलता के बाद भी एक अबूझ पहेली बने रहे. अँग्रेज हुक्मरानों से लेकर गांधी के अनन्य सहयोगी भी यह अनुमान नहीं लगा पाते थे कि बापू कब-कौन सा निर्णय ले लेंगे. गांधी अपने सारे फैसले अपनी आत्मा की आवाज़ को सुनकर लेते थे. उनकी विचार प्रणाली में विमर्श को बहुत कम गुंजाइश मिली थी. हिटलर भी अपनी अतःप्रज्ञा से निर्णय लेता था. हिटलर की अंतःप्रज्ञा का निर्माण उसकी वंशगत-श्रेष्ठताबोध से हुआ था तो गांधी की आत्मा सत्य के बल से बोलती थी. अंततः दोनों की ही आवाज़ें, उनकी निजी आवाज़ें थीं और यह मानना चाहिए कि ये आवाज़ें पराभौतिक आवाज़ें नहीं थीं. दोनों ही व्यक्तित्वों का निर्माण विशुद्ध रूप से मानवीय रचना-प्रकिया से गुजरकर हुआ. अतः गांधी और हिटलर--दोनों के ही सत्य को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता....लेकिन दोनों ने ही अपने सत्य को दुनियां पर आरोपित किया, भले ही परिणाम अलहदा रहे हों !
यद्यपि गांधी और हिटलर दोनों की चरम उपलब्धियां राजनीति में ही रही हैं , लेकिन इनके जीवन को देखने पर यह साफ हो जाता है कि इनकी राजनीतिक चेतना का विकास जीवन के अन्य क्षेत्रों में की गई गहन साधना का प्रतिफल है. अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन को गांधी और हिटलर ,दोनों ने प्रयोगशाला बनाया. एक बात जो दोनों में समान थी, वो यह कि दोनों ही साधारण और परंपरावादी परिवारों से थे और दोनो ने ही जीवन का अधिकांश समय प्रतिकूल परिस्थितियों में बिताया. गांधी और हिटलर बहुत साधारण मेधा वाले लोग थे, लेकिन दोनों की ही उपलब्धियां असाधारण थीं. जीवन के संघर्षों ने जहाँ दोनो को अथाह आत्मबल दिया, वहीं दोनों के अन्दर कुछ ग्रंथियां भी पैदा कीं.
प्रेम-विवाह-दाम्पत्य और संतानोत्पत्ति संबन्धी मान्यताओं में गांधी और हिटलर काफी करीब दिखते हैं. बहुत आश्चर्य होता है कि प्राणिमात्र के लिए दया और प्रेम की बात करने वाले गांधी, वैयक्तिक जीवन के सर्वाधिक प्रभावकारी तत्व प्रेम के विरोधी नहीं तो उदासीन अवश्य दिखाई पड़ते हैं. आत्मा की खोज में गांधी इतने दूर चले गये कि शरीर को भूल ही गये. प्रौढ़ावस्था तक आते-आते तो एक तरह से शरीर का निषेध ही करने लगे. अपनी आत्मकथा में गांधी ने कुछ दुराचरणों का भी उल्लेख किया है. जिनमें सहपाठी मेहताब के साथ वेश्यालय जाना और दक्षिम अफ्रीका की पहली यात्रा के दौरान जहाज़ के कप्तान द्वारा नीग्रो वेश्याओं के कोठों पर ले जाया जाना शामिल है. यद्यपि गांधी जी इन अवसरों पर बिना मैले हुए सुरक्षित निकल आये थे , लेकिन उन्हें बचपन और जवानी के इन ' पापों ' का जीवन भर पश्चाताप रहा.
दरअसल गांधी जी का यौन-जीवन कुछ ज़्यादा ही संक्षिप्त था. तेरह वर्ष की आयु में विवाह होने और अठारह वर्ष की आयु मे में इंग्लैण्ड जाने के बीच उनकी पत्नी कस्तूरबा मुश्किल से तीन महीने ही उनके साथ रहीं. बैरिस्टर बनकर 1891 में भारत लौटने के बाद आजीविका के लिए इधर-उधर घूमते रहना पड़ा और नतीज़तन छः महीने ही वो अपने परिवार के साथ रह पाये थे. 1891 में ही उन्हें अफ्रीका जाने का निमंत्रण मिला. गांधी जी लिखते हैं----" दक्षिणी अफ्रीका के बुलावे के समय ही मैंने स्वयं को शरीर की भूख से मुक्त पाया." 1906 में तो गांधी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ही ले लिया था. कस्तूरबा के लिए यह स्थिति सहज स्वीकार्य नहीं थी लेकिन उन्होने भी अपनी सहमति दी. ब्रह्मचर्य की यह शपथ गांधी जी ने जुलू-विद्रोह के समय अफ्रीका में इस तर्क के साथ ली थी कि सार्वजनिक कार्यों के प्रति समर्पित होने के योग्य बनने के लिए पारिवारिक सुखों का त्याग और बच्चे पैदा करने से तौबा करनी पड़ेगी.
यौन-क्रिया से सन्यास लेने के चालीस सालों बाद भले ही गांधी यह कहते हों कि वैवाहिक जीवन का 'सच्चा आनन्द ' इस सन्यास के बाद ही मिला, जब हमारा साहचर्य प्रस्फुटित हुआ, लेकिन कस्तूरबा ने इस ' आनन्द ' की पुष्टि कभी नहीं की. गांधी विवाह को तो पवित्र संस्कार मानते थे, लेकिन उसमें शरीर-सम्बन्ध को न्यूनतम महत्व देते थे. वे कहते थे कि " जब तक बच्चे पैदा करने का प्रकट प्रयोजन न हो,तब तक यौन-जीवन शारीरिक दृष्टि से हानिकर और नैतिक दृष्टि से पापपूर्ण है." हो सकता है गांधी का यह सोच उनके प्रिय लेखक टाल्सटॉय के इस विचार से बना हो कि--" लोग भूचाल, महामारी, रोग और हर प्रकार की यातना से बच निकलते हैं, लेकिन प्रखरतम त्रासदी सदा ही शयनकक्ष में घटित हुई है, होती है, और होती रहेगी." गांधी जी गर्भ-निरोधकों के प्रयोग का विरोध इसलिए करते थे कि " यदि अपने कार्य के परिणाम भुगतने के खतरे से मुक्त होकर स्त्री और पुरुष संभोग कर सकेंगे , तो वे आत्म-नियंत्रण की अपनी शक्ति खो देंगे."
दाम्पत्य और यौन-विषयक अपनी स्थापनाओं को गांधी ने न सिर्फ अपने ऊपर लागू किया, बल्कि इन्हें वो अपने साथ काम कर रहे सहयोगियों पर भी आरोपित करते थे. उनके सामने असहमत होने का कोई अर्थ नहीं होता था. अपनी बातों को मनवाने के लिए गांधी आत्मपीड़न का सहारा लेते थे.
इसी बिन्दु पर हिटलर की याद आती है. थोड़े अलग संदर्भों में, लेकिन ठीक इसी तरह हिटलर भी दाम्पत्य, यौन-जीवन और संतानोत्पत्ति को लेकर विशेष आग्रही था. यद्यपि उसकी मान्यताएँ जातिगत श्रेष्ठता और धार्मिक विद्वेष पर आधारित थी, लेकिन उसमें भी प्रेम और स्त्री-जीवन के प्रति ' उपेक्षा ' के जो भाव थे, वो गांधी की ' उदासीनता ' के समकक्ष ही थे. ब्रह्मचर्य का प्रबल समर्थक हिटलर इसलिए था कि उसके राष्ट्रवादी अभियान को सफल बनाने वाले बलिष्ट और एकाग्र युवा उसे मिल सकें. जैसे गांधी अपने नस्लभेद-विरोधी और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए ' आत्मबल से युक्त ' सहयोगी ब्रह्मचर्य के मार्फत तैयार करना चाह रहे थे. हिटलर चाहता था कि " राज्य यह तय कर दे कि स्वस्थ्य दम्पति को ही संतानोत्पत्ति का अधिकार है, तथा उनके बीमार या वंशानुगत दोष होने पर प्रजनन न करना अति सम्माननीय होगा........ऐसे लोगों को प्रजनन के अयोग्य घोषित कर, व्यावहारिक गतिविधियों को तीव्र करना होगा." हिटलर कहता है कि " यह विचारणीय तथ्य है कि क्या धर्म के नाम पर असंख्य लोगों द्वारा अपनी इच्छा से ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त को, धार्मिक विधान के अलावा किसी दूसरे साधन से लोगों तक पहुँचाया जा सकता है ?"-----इस दूसरे साधन की खोज ने ही हिटलर को 'हिटलर' बना दिया, जिसने उच्च जाति के व्यक्तियों द्वारा निम्न जाति के लोगों से वैवाहिक संबन्धों और संतानोत्पत्ति का प्रबल विरोध किया क्योकि इससे संतति पतित होती है.
दरअसल गांधी और हिटलर ने विश्व मानवता को क्या दिया, इस पर कोई विवाद नहीं है. दोनों के सपनों में दुनिया की जो शक्लें थीं वो एकदम जुदा थीं. दुनिया में आज भी दोनों के सिद्धान्तों के विकट अनुयायी मौजूद हैं. लेकिन इस सवाल पर सोचना लाज़मी है कि अपने लक्ष्य और आत्मा की आवाज़ों को सुनने के लिए इन्होंने जीवन की नैसर्गिक आवाज़ों को दबा दिया. भले ही यह सायास न रहा हो, लेकिन गांधी और हिटलर की दाम्पत्य और यौन-जीवन सम्बन्धी मान्यताओं ने स्त्री और प्रेम को समाज में दोयम दर्जे पर स्थापित करने के प्रयासों को बल दिया. क्या आपको नहीं लगता कि कम से कम इस देश में, स्त्री की स्वायत्तता का संघर्ष गांधी के समय में ही मुखर हो सकता था, अगर उन्होंने कुछ ज़्यादा व्यापक और उदार नज़रिया अपनाया होता ?
इस देश और हमारे जीवन में गांधी जी की सांस्कृतिक उपस्थिति इतनी सहज और स्वाभाविक है कि मुझे गांधी अपने परिवार के किसी बुजुर्ग की तरह लगते हैं. घर का ऐसा सयाना जो हमारे हर क़दम पर नज़र रखता है, खीझता है, ज़िद पर अड़ जाता है. एक ऐसा अनुभव और संघर्ष से तपा हुआ बुजुर्ग जो निरंतर भविष्य की चेतावनी देता रहता है और उपेक्षित तथा दरकिनार हो जाता है. गांधी की उपस्थिति हमारे बीच ऐसी ही है. गांधी अपने जीते जी ही किंवदन्ती बन गये थे, तभी तो आइंस्टीन को कहना पड़ा था कि आने वाली पीढ़ियाँ ये कैसे विश्वास कर पायेंगी कि हाड़-मांस का एक ऐसा भी प्राणी इस धरती पर था....
गांधी और हिटलर, दोनो ही आधुनिक विश्व के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे. दोनों ने ही विशव को बदला, अपनी अलग-अलग प्रविधियों से. हिटलर ने अपनी जातीय श्रेष्ठता के आग्रह के चलते जहाँ पूरी दुनिया को विनाश के मुहाने पर खड़ा कर दिया था, वहीं गांधी ने सत्य और अहिंसा को मनुष्य का सबसे मारक हथियार बना दिया. हिटलर अपने व्यक्तित्व की समस्त संश्लिष्टताओं के बावजूद अपनी अभिव्यक्ति में एकदम स्पष्ट था, तो गांधी अपनी पूरी सरलता के बाद भी एक अबूझ पहेली बने रहे. अँग्रेज हुक्मरानों से लेकर गांधी के अनन्य सहयोगी भी यह अनुमान नहीं लगा पाते थे कि बापू कब-कौन सा निर्णय ले लेंगे. गांधी अपने सारे फैसले अपनी आत्मा की आवाज़ को सुनकर लेते थे. उनकी विचार प्रणाली में विमर्श को बहुत कम गुंजाइश मिली थी. हिटलर भी अपनी अतःप्रज्ञा से निर्णय लेता था. हिटलर की अंतःप्रज्ञा का निर्माण उसकी वंशगत-श्रेष्ठताबोध से हुआ था तो गांधी की आत्मा सत्य के बल से बोलती थी. अंततः दोनों की ही आवाज़ें, उनकी निजी आवाज़ें थीं और यह मानना चाहिए कि ये आवाज़ें पराभौतिक आवाज़ें नहीं थीं. दोनों ही व्यक्तित्वों का निर्माण विशुद्ध रूप से मानवीय रचना-प्रकिया से गुजरकर हुआ. अतः गांधी और हिटलर--दोनों के ही सत्य को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता....लेकिन दोनों ने ही अपने सत्य को दुनियां पर आरोपित किया, भले ही परिणाम अलहदा रहे हों !
यद्यपि गांधी और हिटलर दोनों की चरम उपलब्धियां राजनीति में ही रही हैं , लेकिन इनके जीवन को देखने पर यह साफ हो जाता है कि इनकी राजनीतिक चेतना का विकास जीवन के अन्य क्षेत्रों में की गई गहन साधना का प्रतिफल है. अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन को गांधी और हिटलर ,दोनों ने प्रयोगशाला बनाया. एक बात जो दोनों में समान थी, वो यह कि दोनों ही साधारण और परंपरावादी परिवारों से थे और दोनो ने ही जीवन का अधिकांश समय प्रतिकूल परिस्थितियों में बिताया. गांधी और हिटलर बहुत साधारण मेधा वाले लोग थे, लेकिन दोनों की ही उपलब्धियां असाधारण थीं. जीवन के संघर्षों ने जहाँ दोनो को अथाह आत्मबल दिया, वहीं दोनों के अन्दर कुछ ग्रंथियां भी पैदा कीं.
प्रेम-विवाह-दाम्पत्य और संतानोत्पत्ति संबन्धी मान्यताओं में गांधी और हिटलर काफी करीब दिखते हैं. बहुत आश्चर्य होता है कि प्राणिमात्र के लिए दया और प्रेम की बात करने वाले गांधी, वैयक्तिक जीवन के सर्वाधिक प्रभावकारी तत्व प्रेम के विरोधी नहीं तो उदासीन अवश्य दिखाई पड़ते हैं. आत्मा की खोज में गांधी इतने दूर चले गये कि शरीर को भूल ही गये. प्रौढ़ावस्था तक आते-आते तो एक तरह से शरीर का निषेध ही करने लगे. अपनी आत्मकथा में गांधी ने कुछ दुराचरणों का भी उल्लेख किया है. जिनमें सहपाठी मेहताब के साथ वेश्यालय जाना और दक्षिम अफ्रीका की पहली यात्रा के दौरान जहाज़ के कप्तान द्वारा नीग्रो वेश्याओं के कोठों पर ले जाया जाना शामिल है. यद्यपि गांधी जी इन अवसरों पर बिना मैले हुए सुरक्षित निकल आये थे , लेकिन उन्हें बचपन और जवानी के इन ' पापों ' का जीवन भर पश्चाताप रहा.
दरअसल गांधी जी का यौन-जीवन कुछ ज़्यादा ही संक्षिप्त था. तेरह वर्ष की आयु में विवाह होने और अठारह वर्ष की आयु मे में इंग्लैण्ड जाने के बीच उनकी पत्नी कस्तूरबा मुश्किल से तीन महीने ही उनके साथ रहीं. बैरिस्टर बनकर 1891 में भारत लौटने के बाद आजीविका के लिए इधर-उधर घूमते रहना पड़ा और नतीज़तन छः महीने ही वो अपने परिवार के साथ रह पाये थे. 1891 में ही उन्हें अफ्रीका जाने का निमंत्रण मिला. गांधी जी लिखते हैं----" दक्षिणी अफ्रीका के बुलावे के समय ही मैंने स्वयं को शरीर की भूख से मुक्त पाया." 1906 में तो गांधी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ही ले लिया था. कस्तूरबा के लिए यह स्थिति सहज स्वीकार्य नहीं थी लेकिन उन्होने भी अपनी सहमति दी. ब्रह्मचर्य की यह शपथ गांधी जी ने जुलू-विद्रोह के समय अफ्रीका में इस तर्क के साथ ली थी कि सार्वजनिक कार्यों के प्रति समर्पित होने के योग्य बनने के लिए पारिवारिक सुखों का त्याग और बच्चे पैदा करने से तौबा करनी पड़ेगी.
यौन-क्रिया से सन्यास लेने के चालीस सालों बाद भले ही गांधी यह कहते हों कि वैवाहिक जीवन का 'सच्चा आनन्द ' इस सन्यास के बाद ही मिला, जब हमारा साहचर्य प्रस्फुटित हुआ, लेकिन कस्तूरबा ने इस ' आनन्द ' की पुष्टि कभी नहीं की. गांधी विवाह को तो पवित्र संस्कार मानते थे, लेकिन उसमें शरीर-सम्बन्ध को न्यूनतम महत्व देते थे. वे कहते थे कि " जब तक बच्चे पैदा करने का प्रकट प्रयोजन न हो,तब तक यौन-जीवन शारीरिक दृष्टि से हानिकर और नैतिक दृष्टि से पापपूर्ण है." हो सकता है गांधी का यह सोच उनके प्रिय लेखक टाल्सटॉय के इस विचार से बना हो कि--" लोग भूचाल, महामारी, रोग और हर प्रकार की यातना से बच निकलते हैं, लेकिन प्रखरतम त्रासदी सदा ही शयनकक्ष में घटित हुई है, होती है, और होती रहेगी." गांधी जी गर्भ-निरोधकों के प्रयोग का विरोध इसलिए करते थे कि " यदि अपने कार्य के परिणाम भुगतने के खतरे से मुक्त होकर स्त्री और पुरुष संभोग कर सकेंगे , तो वे आत्म-नियंत्रण की अपनी शक्ति खो देंगे."
दाम्पत्य और यौन-विषयक अपनी स्थापनाओं को गांधी ने न सिर्फ अपने ऊपर लागू किया, बल्कि इन्हें वो अपने साथ काम कर रहे सहयोगियों पर भी आरोपित करते थे. उनके सामने असहमत होने का कोई अर्थ नहीं होता था. अपनी बातों को मनवाने के लिए गांधी आत्मपीड़न का सहारा लेते थे.
इसी बिन्दु पर हिटलर की याद आती है. थोड़े अलग संदर्भों में, लेकिन ठीक इसी तरह हिटलर भी दाम्पत्य, यौन-जीवन और संतानोत्पत्ति को लेकर विशेष आग्रही था. यद्यपि उसकी मान्यताएँ जातिगत श्रेष्ठता और धार्मिक विद्वेष पर आधारित थी, लेकिन उसमें भी प्रेम और स्त्री-जीवन के प्रति ' उपेक्षा ' के जो भाव थे, वो गांधी की ' उदासीनता ' के समकक्ष ही थे. ब्रह्मचर्य का प्रबल समर्थक हिटलर इसलिए था कि उसके राष्ट्रवादी अभियान को सफल बनाने वाले बलिष्ट और एकाग्र युवा उसे मिल सकें. जैसे गांधी अपने नस्लभेद-विरोधी और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए ' आत्मबल से युक्त ' सहयोगी ब्रह्मचर्य के मार्फत तैयार करना चाह रहे थे. हिटलर चाहता था कि " राज्य यह तय कर दे कि स्वस्थ्य दम्पति को ही संतानोत्पत्ति का अधिकार है, तथा उनके बीमार या वंशानुगत दोष होने पर प्रजनन न करना अति सम्माननीय होगा........ऐसे लोगों को प्रजनन के अयोग्य घोषित कर, व्यावहारिक गतिविधियों को तीव्र करना होगा." हिटलर कहता है कि " यह विचारणीय तथ्य है कि क्या धर्म के नाम पर असंख्य लोगों द्वारा अपनी इच्छा से ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त को, धार्मिक विधान के अलावा किसी दूसरे साधन से लोगों तक पहुँचाया जा सकता है ?"-----इस दूसरे साधन की खोज ने ही हिटलर को 'हिटलर' बना दिया, जिसने उच्च जाति के व्यक्तियों द्वारा निम्न जाति के लोगों से वैवाहिक संबन्धों और संतानोत्पत्ति का प्रबल विरोध किया क्योकि इससे संतति पतित होती है.
दरअसल गांधी और हिटलर ने विश्व मानवता को क्या दिया, इस पर कोई विवाद नहीं है. दोनों के सपनों में दुनिया की जो शक्लें थीं वो एकदम जुदा थीं. दुनिया में आज भी दोनों के सिद्धान्तों के विकट अनुयायी मौजूद हैं. लेकिन इस सवाल पर सोचना लाज़मी है कि अपने लक्ष्य और आत्मा की आवाज़ों को सुनने के लिए इन्होंने जीवन की नैसर्गिक आवाज़ों को दबा दिया. भले ही यह सायास न रहा हो, लेकिन गांधी और हिटलर की दाम्पत्य और यौन-जीवन सम्बन्धी मान्यताओं ने स्त्री और प्रेम को समाज में दोयम दर्जे पर स्थापित करने के प्रयासों को बल दिया. क्या आपको नहीं लगता कि कम से कम इस देश में, स्त्री की स्वायत्तता का संघर्ष गांधी के समय में ही मुखर हो सकता था, अगर उन्होंने कुछ ज़्यादा व्यापक और उदार नज़रिया अपनाया होता ?
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