जो, पान के पत्ते की तरह कोमल
बड़ी मुश्किल से सम्भाले
अपने ही भार को.
शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा
धीरे-धीरे बड़ा होता हुआ.
उसका चलना
कि किसी उस्ताद ने
उमंग में बजाया हो-रूपक ताल
मध्यम लय में.
उसका हँसना
कि किसी ने खोल दी हो
अनारदाने से भरी मुट्ठी
एकाएक.
आत्म-विस्मृति के इन क्षणों में
मेरा अनुमान है
कि ईश्वर को
इसी हँसी के आस पास ही
होना चाहिए कहीं.
--विमलेन्दु
1 comment:
बहुत सुन्दर. क्या खूब चित्र खींचा है आपने
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