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Tuesday, 27 December 2011

ग़ालिब-ए-ख़स्तः के बग़ैर....( प्रसंग : ग़ालिब जयंती, 27 दिसंबर )


    ग़ालिब पितरों की तरह याद आते हैं. मुमकिन होता तो बताया जाता कि दिल्ली निजामुद्दीन इलाके में सुल्तान जी, चौंसठ खम्भा के कब्रिस्तान के एक कोने में जो मज़ार आप देख रहे हैं न ! वो हमारे मरहूम असदुल्लाह खाँ की है. जिन्हें सारा ज़माना ग़ालिब के नाम से जानता है. पर भाई, हमारे खानदान में तो उन्हें लोग मिर्ज़ा नौशः ही कहते हैं तो बस कहते हैं. बड़ा नाम रौशन किया असद ने अपने खानदान का. वरना उनकी पैदाइश (27, दिसंबर 1797) के पचास साल पहले जब उनके तुर्क दादा समरकन्द से हिन्दुस्तान आये थे तो भला कौन जानता था इस खानदान को. और जनाब उस तुर्की क़द-काठी के क्या कहने! लम्बा कद,इकहरा जिस्म, किताबी चेहरा, चौड़ी पेशानी, घनी लम्बी पलकें, बादामी आँखें और सुर्ख-ओ-सुपैद रंग...हाय ! जिसने भी उन्हें देखा, कमबख्त ग़ालिब का ही हो गया.
         दोस्तों, ग़ालिब को हम तब से जानते हैं, जब से दर्द को जानते है. यह वह उमर थी, और उमर का तक़ाज़ा था, जब ग़ालिब के शेर बस ज़रा ज़रा ही समझ में आते थे. तब यह भी कहाँ समझ आता था कि यह जो बेख़ुदी सी छा जाती है अक्सर, उसके परदे में कोई दर्द छुपा बैठा है....तो दिल और मिज़ाज की जब ऐसी कैफ़ियत हो जाती थी, तो हम ग़ालिब की आधी-अधूरी ग़ज़लों और शेरों का मरहम लगाते थे....और अमूमन नतीज़ा ये होता था कि तड़प कम होने की ज़गह और बढ़ जाती थी. तब हम दर्द को इस हद तक गुज़ारा करते थे कि वो दवा हो जाये.
          यही इस बेमिसाल शायर की खूबी थी. ये तो हर अच्छा अदीब करता है कि वह अपने युग की पीड़ा और व्याकुलता को व्यक्त करता है. लेकिन ग़ालिब तब तक ऐसे शायर हुए जिन्होंने नयी व्याकुलताएँ पैदा कीं. ग़ालिब ने अपने समय के सारे बन्धन तोड़ दिए. अपने अनुभवों को उन्होने अपने समय से आगे का मनोविज्ञान दिया. ज़िन्दगी के जितने मुमकिन रंग-ढंग हो सकते हैं, सबके सब ग़ालिब के विशिष्ट मनोविज्ञान में तप कर उनकी शायरी में उतर आये. खुशी का अतिरेक हो या घनघोर निराशा, शक-ओ-सुबहा या कल्पना की उड़ान हो, चुम्बन-आलिंगन की मादकता हो या दर्शन की गूढ़ समस्याएँ---हर ज़गह आप ग़ालिब की शायरी को अपने साथ पायेंगे.
           ग़ालिब को ज़िन्दगी में जो ठोकरें मिलीं वही उनकी असल उस्ताद रहीं. ऐसा ज़िक्र ज़रूर कहीं कहीं मिलता है कि शुरुआती दौर में एक ईरानी उस्ताद, अब्दुस्समद से ग़ालिब ने शायरी के तौर-तरीके सीखे, लेकिन उनके असल उस्ताद उनके अपने तज़ुरबे ही रहे. पाँच वर्ष की उम्र में ही बाप का साया सिर से उठ गया. बाप-दादों की जागीर चली गई. जो कुछ जमां पूँजी घर में थी वो दोस्तों, जुए और शराब की भेंट चढ़ गयी. रोज़ी-रोटी के सिलसिले में ज़्यादातर वक्त इधर से उधर भटकना पड़ा. शायरी का शौक बचपन से ही था. तीस-बत्तीस की उमर तक आते आते उनकी शायरी ने दिल्ली से कलकत्ते तक हलचल मचा दी थी. ग़ालिब की शिक्षा-दीक्षा के बारे में ज़्यादा पता नहीं मिलता, लेकिन उनकी शायरी से यह अन्दाज़ा ज़रूर मिलता है कि वो अपने समय में प्रचलित इल्म के अच्छे जानकार थे. फ़ारसी भाषा पर उनका ज़बरदस्त अधिकार था.
          “ गो मेरे शेर हैं ख़वास पसन्द, पर मेरी गुफ़्तगू अवाम से है “---ये शेर हालाँकि ग़ालिब के पूर्ववर्ती मीर का है पर ग़ालिब पर ज़्यादा मौजूँ है. बादशाहों, ज़मींदारों, नवाबों से लेकर पण्डितो, मौलवियों और अंग्रेज अधिकारियों तक से ग़ालिब की दोस्ती थी. अंतिम मुग़ल शासक बहादुरशाह ज़फर उनकी बड़ी कद्र करते थे. लेकिन ग़ालिब ने अपने स्वाभिमान को कभी किसी के सामने झुकने नहीं दिया. विद्रोह उनके स्वभाव में था. कभी नमाज़ नहीं पढ़ी, रोज़ा नहीं रखा और शराब कभी छोड़ी नहीं. गालिब से पहले किसी शायर ने खुदा और माशूक़ का मज़ाक नहीं उड़ाया था. खुद अपना मज़ाक शायरी में उड़ाने की रवायत भी ग़ालिब की ही देन है.
         अपना मज़ाक उड़ाने का हुनर ही ग़ालिब के ग़मों को भी बड़ा दिलकश बना देता है. ग़ालिब के यहाँ दर्द में जो भरपूर आनन्द है, वह किसी भी दूसरे शायर की शायरी में नहीं मिलता....” दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यूँ. रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यूँ. “ .  वो ज़िन्दगी से लड़ते हैं. जितना लड़ते हैं उतना ही आनन्दित होते हैं.जितनी कड़वाहटें मिलती हैं, उतना ही आनन्द का नशा बढ़ता है. जैसे शराब की कड़वाहट से गुज़रकर ही उसके आनन्द तक पहुँचा जा सकता है....ग़ालिब रस और आनन्द की प्राप्ति के लिए किसी भी हद को नहीं मानते. वह सौन्दर्य को इस तरह आत्मसात कर लेना चाहते हैं कि अपने और प्रेमिका के बीच निगाहें भी उन्हें बाधा पहुँचाती हुई सी लगती हैं. उन्हें माशूक़ की ऐसी नज़ाकत से भी चिढ़ होने लगती कि पास होने पर भी जिसे हाथ लगाते न बने.
          पीड़ा में आनन्द लेने की फ़ितरत ने ग़ालिब को तलाश, इन्तज़ार और कल्पना का एक अद्भुत शायर बना दिया. वह एक क्षण के लिए भी तृप्त नहीं होना चाहते. वो अपने भीतर तलब और प्यास को उसकी पूरी तीव्रता में बनाये रखना चाहते हैं. ग़ालिब मंज़िल के नहीं रास्ते के शायर हैं. इसी तलाश, इन्तज़ार और रास्ते में ही उनका स्वाभिमान भी सुरक्षित है. वो न तो ख़ुदा के सामने कभी नतमस्तक होते और न ही माशूक़ के सामने. उनका आदर्श प्यास को बुझाना नहीं, प्यास को बढ़ाना है---“ रश्क बर तश्नः-ए-तनहा रब-ए-वादी दारम् . न बर आसूदः दिलान-ए-हरम-ओ-ज़मज़म-ए-शाँ. “....ग़ालिब को ईर्ष्या, राह में भटकने वाले प्यासे से होती है. ज़मज़म पर पहुंच कर तृप्त हो जाने वालों से नहीं.
          ग़ालिब का यह जीवन-दर्शन उनके प्रेम के दृष्टिकोण को बिल्कुल अछूते अन्दाज़ में पेश करता है. असीम आकर्षण, समर्पण के बावजूद ग़ालिब का इश्क़ स्वाभिमानी है. वो कहते भी हैं---“ इज्ज़-ओ-नियाज़ से तो वो आया न राह पर, दामन को उसके आज हरीफ़ाना खैंचिए.”......यह संकेत केवल माशूक़ को अपनी ओर हरीफ़ाना(दुश्मन की तरह) खींचने का नहीं है, बल्कि जीवन की हर काम्य वस्तु को इसी अन्दाज़ में पाने की धृष्टता है. ग़ालिब भी खुद को ज़गह-ज़गह गुस्ताख़ कहते हैं. ग़ालिब की इस गुस्ताख़ अदा ने उर्दू शायरी को नया मिज़ाज दिया.
         ग़ालिब की सबसे सहज और प्रभावशाली ग़ज़लें वो हैं जिनमें निराशा के स्वर हैं.लेकिन ग़ालिब का महान व्यक्तित्व और निराला मनोविज्ञान निराशा को बुद्धि और ज्ञान के स्तर पर ले जाता है, जहाँ निराशा व्यंग्य में बदल जाती है----“ क्या वो नमरूद की खुदाई थी, बन्दगी में मिरा भला न हुआ “. व्यंग्य को ग़ालिब ने एक ढाल की तरह अपनाया था ज़माने के तीरों से बचने के लिए. वो अत्यन्त कठिन समय में भी दिल खोल कर हँसना जानते थे. उनका अदम्य आत्मविश्वास ही उनसे कहलवाता है---बाजीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे.....दुनिया को बच्चों के खेल का मैदान समझने की हिमाकत में ग़ालिब का आत्मविश्वास भी है और आत्मसम्मान भी.
         ग़ालिब की शायरी में कई ऐसी बातें हैं जो उनकी प्रसंगिकता को वैश्विक बनाती हैं. जीवन के रहस्यों की खोज़ में वो शम्मा को शाम से सहर तक जलते हुए देखते थे. इस खोज में वो शायरों के लिए वर्जित इलाके मसाइल-ए-तसव्वुफ़ तक जाते हैं. उनके भाव-बोध में तर्क की निर्णायक ज़गह है.बिना तर्क और सवाल के ग़ालिब किसी भी स्थिति को ज़िन्दगी में ज़गह नहीं देते, ये बात और है कि ज़िन्दगी के हर रंग के लिए अपने तर्क है. वह वर्तमान की शिला पर बैठ कर भूत और भविष्य पर बराबर निगाह रखते है. एक तरफ अकबरकालीन वैभव के निरंतर ढहते जाने का दुख भी है उन्हें, तो नए विज्ञान की आमद की तस्दीक भी करते हैं ग़ालिब.
          इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी-उर्दू और हिन्दीवाले-उर्दूवाले जो इतने क़रीब आये, तो उसमें ग़ालिब की शायरी का बड़ा हाथ है. उत्तर भारत की ऐसी कोई ज़ुबान नहीं होगी जिस पर ग़ालिब के शेर न हों. ऐसा कोई इन्सानी दर्द नहीं होगा जिसकी शक्ल ग़ालिब की शायरी में न उतर आयी हो.

3 comments:

Onkar said...

sundar prastuti

Unknown said...

धन्यवाद ओंकार जी...

Mukhar said...

उनके शेर सुने पढ़े बहुत. खुशवंत जी की नोवेल में भी उनका जिक्र पढ़ा. मगर मैंने ग़ालिब को एफ बी पर ही जाना.
शुक्रिया विमलेन्दु जी.