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Tuesday, 3 January 2012

न गुल खिले, न तुमसे मिले, न मय पी है...!



   कुछ इसी अंदाज़ में पुराना साल गया और नया आ गया. न पुराने के जाने का कोई ग़म, न नये के आने की कोई उत्सुकता. जश्न के अनेक रंग-ढंग बिखरे थे पर लुभा नहीं पायें. ये कैफ़ियत कोई आज की  नहीं है, कई सालों से साल ऐसे ही आते जातेहैं. अब न तो वो लोग आस पास हैं जिनमें मन रमता था, न तौर-तरीके. लोगों की ज़बान पर एक मशीनी हैप्पी न्यू इयर था और उत्सव के नाम पर डीजे के शोर में नाच और शराबखोरी. हमें भी इन्हीं के बीच अपने उत्सव और उमंग को खोजना था.
      तो हमने अपनी उमंग अपनी रजाई और  कविता में खोजी. रजाई की तरफ ठंड ने प्रेरित किया तो दिन भर सहकर्मियों-साथियों से चली चर्चा ने कविता के लिए. नया साल शुरू होने के हफ्ता भर पहले से लोग उत्साहित थे. चेहरे पर एक बेदम सी चमक उठती थी नये साल के ज़िक्र के साथ और फिर कहीं गुम हो जाती थी. मुझे लगता कि  किसीके पासकोई योजना नहीं है. हर कोई दूसरे से पूछ रहा था कि पार्टी की तैयारी कैसी है ! जब उनसे पूछा जाता तो यही जवाब ता कि अरे भाई, हम तो कहीं आते-जाते नहीं, बस एक जनवरी को हनुमान जी का दर्शन कर आते हैं.
      उत्सव मनाना भी एक कला है, जो सबके पास नहीं होती. कुछ लोग उत्सवों के आयोजन में पारंगत होते हैं, तो उत्सव में शामिल होकर अपनी भूमिका की तलाश करना भी एक कला है. कुछ ही वर्ष पहले कि बात है, जब हमारा मित्र-समूह उत्सवों के एक से एक नायाब युक्तियों से लैस होता था. हमारे समूह में रंगकर्मी, कवि, गायक, चित्रकार थे. कुछ ऐसे लोग भी थे जिनके पास इनमें से कोई हुनर नहीं था. ये लोग वित्तीय व्यवस्था और विघ्नसंतोषियों से निपटने का काम देखते थे. इस मित्र-मंडली के साथ किसी भी आम मौके पर खास महफिल सजा लेना बड़ा सहज था. छोटा मोटा ड्रामा तैयार कर लिया जात, कविता पोस्टर, ग्रीटिन्ग कार्ड्स वगैरह हाथ से तैयार कर लिए जाते. ग़ज़लों और लोकगीतों की महफिल सज जाती. घर की महिलाएँ और प्रशंसिकाएँ खाने-पीने का इंतजाम कर ही देतीं. धीरे-धीरे समय बदलता गया. रोजी-रोटी के चक्कर में मित्र दूसरे शहरों में बस गये तो समूह टूट गया. फिर जब से उत्सवों को मनाने का जिम्मा टीवी चैनलों,होटलों और ट्रैवल एजेंसियों ने ले लिया तो हम जैसे लोग अप्रासंगिक होते गये. सच पूछिए तो उत्सवों के इन उत्तर आधुनिक तौर तरीकों को हम वितृष्णा से देखते हैं.
      अप्रत्याशित ढंग से शहर में इस बार होटलों, रेस्तराओं, विवाहघरों में होने वाले कार्यक्रम नदारत थे. इस बार नव वर्ष के ज़्यादातर कार्यक्रम मंदिरों में आयोजित हुए. कहीं अखण्ड मानस, कहीं भण्डारा. यह शायद माया कलेण्डर की भविष्यवाणी का असर रहा होगा. माया कलेण्डर के मुताबिक दुनिया के प्रलय की तारीख निकली है 21 दिसंबर 2012 . हमारे देश की जनता का जैसा मानस है, उसे देखते हुए यह कहना अविश्वसनीय नहीं होगा कि प्रलय का का भय लोगों के मन में कहीं न कहीं होगा ज़रूर. इसीलिए लोग शराबखानों से ज़्यादा मंदिरों की ओर गये. टुटपुजिए ज्योतिषियों की बहार थी. हर कोई दूसरों का भविष्य बांच रहा था. प्रणय, दाम्पत्य, नौकरी-पेशा से लेकर खेती-बाड़ी तक का भविष्यफल छप रहा था.जितने अखबार-चैनल-ज्योतिषी, उतनी तरह की भविष्यवाणियां. एक ज्योतिषी जिसे राजा बना रहा था, दूसरा उसे रंक बनाने पर आमादा था.
      इन्हीं कौतुकों के बीच पुराना साल जा रहा था, तभी गाँव से राजबली आ गया. राजबली कोई नामचीन आदमी नहीं है. वह हमारी बड़ी मौसी के गाँव का है. उनके यहाँ किसानी का काम-काज देखता है. पर है अद्भुत आदमी. हम लोगों के यहां का कोई आयोजन राजबली के बिना पूरा नहीं हो सकता. नौजवान है और गज़ब का मेहनती. भूत की तरह काम करता है. एक तरफ दस आदमी लगा दीजिए और दूसरी तरफ राजबली को. राजबली भारी पड़ेगा. पढ़ा-लिखा नहीं है, पर लढ़ा बहुत है. कोई भी काम सौंपिए, ऐसी तरतीब से करता है कि देखने वाले दंग रह जायें.
        राजबली आया तो घर में सर्वसम्मति से तय किया गया कि पुराने साल की विदाई और नये साल के स्वागत में आलू-बैगन-टमाटर का भरता और हाथ की पोई रोटी खाई जाये. राजबली इस देसी हुनर के उस्ताद थे.बाकी सामग्री तो थी ही, धनिया की पत्ती और अदरक खत्म थी तो मगा ली गई. घर में लगे पेड़ों से निकली सूखी लकड़ी इकट्ठी की गई और सहेजकर रखे गए उपले निकाले गये. घर के बाहर पेड़ों के नीचे ईटों को जोड़कर राजबली ने चूल्हा बनाया. लकड़ी उपले लगाकर आग बनाई. गोल वाले बैगनों में लहसुन और हींग खोंसकर भूना गया. साथ में आलू और टमाटर भी.आटे में आजवाइन और थोड़ा बेसन मिलाकर रोटी को ज़रा अलग रंग और स्वाद देने की कवायद की गई. इस पूरी प्रक्रिया में राजबली का केवल एक सहयोगी था—शहज़ादा खुर्रम उर्फ ढाई वर्षीय नन्दन. इन हजरत की फितरत है कि ये किसी काम में जब तक हाथ न बटायें, इन्हें चैन नहीं मिलता. लगभग दो घंटे की मेहनत के बाद भरता-रोटी तैयार हुआ. राजबली गरम-गरम रोटियां सेंक कर दे रहा था और हम लोग पुराने साल की विदाई कर रहे थे.
       पहली जनवरी को मेरी वर्षों पुरानी एक साध पूरी होते-होते रह गई. मेरे मन में एक दुर्निवार इच्छा जमी बैठी है कि मैं काले रंग का एक देसी कुत्ता पालूँ. साल के पहले दिन भोर से ही झमाझम बारिश हो रही थी जो रात तक चलती रही. शाम को बारिश थोड़ा कम हुई तो हवा-पानी के लिए चौराहे की तरफ निकले. लेकिन बारिश फिर तेज़ हो गई, तो PWD ऑफिस के शेड के नीचे छुपना पड़ा. उसी शेड के एक कोने में पानी में भीगा हुआ काले रंग का एक पिल्ला दुबका हुआ था. ठंड से ठिठुरते हुए पिल्ले को देखकर दया भी उपजी और आँखों में चमक भी. एक-डेढ़ घंटे तक, जब तक पानी बरसता रहा मैं उसके साथ खेलता-बतियाता रहा. पानी रुकने पर मैने पिल्ले को एक पॉलीथिन पैकेट में डाला और घर लेकर आ गया.
       आशंका के विपरीत घर में पिल्ले का ज़ोरदार स्वागत हुआ. ठंड से बचाने के लिए उसके शरीर पर कपड़े लपेटे गए. तुरन्त दूध और  बिस्किट दिया गया. नन्दन ने उसे पढ़ाने का जिम्मा उठाते हुए झटपट क्लास भी शुरू कर दी. A से D तक जितना उसे आता था, पिल्ले को पढ़ा दिया. पिल्ले के आराम का इंतज़ाम पोर्च से लगी गैलरी में किया गया. लेकिन दस मिनट में ही उसने चिल्लाना शुरू कर दिया. तब मैने उसका बिस्तर अपने कमरे में लगवा दिया. उसके बाद पूरी रात मेरी वो दुर्गति हुई कि कुछ पूछिए मत. हर पन्द्रह मिनट में पिल्ला ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता. बार-बार भाग कर माताजी के कमरे के पास जाकर रोने लगता. अम्मा का व्लडप्रेशर तीन-चार दिनों से बिगड़ा हुआ था.उनकी नींद में खलल बहुत महगा पड़ता. इसी तरह पूरी रात मैं उसे पकड़-पकड़ कर चुप कराता रहा, और वह मुझे पराजित करता रहा. सुबह मैने नन्दन की नज़रें बचाकर उसी पॉलीथिन पैकेट में उसे फिर से डाला र उसी ज़गह पर ले जाकर छोड़ दिया जहां से उठाया था.
         इस तरह एक नन्हीं सी इच्छा के लिए प्रतीक्षा की फिर उसी राह पर आ गये. इस तरह की न जाने कितनी छोटी-छोटी हसरतें होती हैं हमारी, जिनके लिए समय के साथ हमारी होड़ चलती रहती है. और हाँ, ज्योतिषियों ने जिन तीन राशियों के लिए यह साल अशुभ बताया है, उन्हीं में से एक मेरी भी है.

1 comment:

Onkar said...

kabhi kabhi hasraten ji ka janjal ban jaati hain