यह उद्घोषणा गीता के सातवे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में श्रीकृष्ण कर रहे हैं. मेरे भीतर कृष्ण का यह उद्घोष उसी दिन से धीरे-धीरे बजने लगा है, जिस दिन से फगुनहटी हवा चलने लगी. यह वसन्त के आने की मुनादी थी जो हवाओं में बज रही थी. यह मदनोत्सव की ऋतु है, जो सरसो के खेतों में उतर आयी है. यह सृजन का अनुनाद था जो आम और अशोक के पेड़ों में गूँज रहा है. जैसे-जैसे होली नजदीक आने लगी , मन कुछ और का और होने लगा. सिर्फ मेरा ही नहीं, प्रकृति के सभी चर-अचर कुछ और ही रंग में दिखने लगते हैं---
औरैं भाँति कोकिल, चकोर ठौर-ठौर बोले,
औरैं भाँति सबद पपीहन के बै गए ।
औरैं रति, औरैं रंग, औरैं साज, औरैं संग,
औरैं बन, औरैं छन, औरैं मन ह्वै गए ।।
वसन्त की यही असली पहचान है कि हम कुछ और का और हो जाते हैं. यह और हो जाना, जितना बाहर दिखता है, उससे भी ज़्यादा भीतर होता है. इस बदलाव की ठीक-ठीक पहचान भी कहां हो पाती है. बस अभिलाषाओं, आकांक्षाओं का एक ज्वार उमड़ता रहता है गहरे कहीं.कालिदास कहते हैं कि वसन्त आता है तो सुखित जन्तु (चैन से रहने वाला आदमी) भी न जाने किसके लिए पर्युत्सुक (बेचैन ) हो उठता है.जहां भी कुछ सुन्दर दिखा, मन बहक जाता है.
वसन्त 'काम' की ऋतु है और होली उद्दाम काम का उत्सव, प्राचीन भारत में वसन्त उत्सव काम-पूजा का उत्सव था. भारतीय सन्दर्भ में 'काम ', फ्रायड-युंग आदि के ' लिबिडो ' से अलग है. हमारे यहां काम सिर्फ ऐंद्रिक संवेदन नहीं है. हमारा काम दमित वासना की तुष्टि से आगे एक सर्जनात्मक आवेग है. यह हमारे जीवन का केन्द्रीय तत्व है. हमारे काम में थोड़ा मान, थोड़ा अभिमान, थोड़ा समर्पण, विपुल आकर्षण और सर्वस्व दान का भाव है. हमारी समस्त कलाएँ, राग-विराग, ग्रहण-दान, हमारे 'काम' से ही संचालित होते हैं.
हमारे धार्मिक ग्रन्थों में काम को परब्रह्म की एक विधायी शक्ति के रूप में माना गया है. यह परब्रह्म की उस मानसिक इच्छा का मूर्त रूप है, जो संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होती है. इसीलिए कृष्ण कहते हैं---" धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । "---मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला 'काम' हूँ. साफ है कि जो इच्छा धर्म के विरुद्ध जाए वह काम का विकृत रूप है. शास्त्र इसे अपदेवता कहते हैं. ब्रह्मसंहिता कहती है कि धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम साक्षात् विष्णुस्वरूप है. यह प्राणिमात्र के मन में 'स्मर ' या काम के रूप में रहता है. काम का यह रूप हमारे भीतर सत्-चित्-आनन्द पैदा करता है.
काम का दूसरा रूप है जो धर्म के विरुद्ध जाता है. यह रूप व्यक्ति के विवेक को हर लेता है और उसे उद्दण्ड बना देता है. पश्चिम में काम के देवता ' किउपिद् ' माने जाते हैं, जो अन्धे हैं. यह प्रतीक है पश्चिम के उस विचार का जिसमें माना जाता है कि काम मनुष्य को अन्धा बना देता है. हमारे यहाँ इसी कोटि के मदन देवता हैं जो व्यक्ति को इतना कामातुर कर देते हैं कि अन्धा हो जाता है. शिव ने इसी मादक मदन देवता को भस्म कर दिया था. काम को 'मनसिज ' भी कहा जाता है. यह काम का भावात्मक रूप है. इसे पार्वती ने बचा लिया था. मनसिज, उद्दण्ड नहीं है. इसका स्वरूप सृजनात्मक है. यह सृष्टि का कारक है. यह हमारी शक्ति का स्रोत है. हमारे आनन्द की गंगोत्री है. हमारा काम देह की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है. हमारा काम प्रीति का, आह्लाद का, पारस्परिकता का, रसिकता का शिखर है.
वसन्त को कामदेव का सखा माना जाता है. हिन्दुस्तान में वसन्त की कोई निश्चित तारीख नही होती. कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं--" झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की..." नीम के पत्ते जब झड़ने लगें, आम बौरा जाएँ, पलाश पर जब अंगारे दहकने लगें और अशोक के कंधे से जब फूल फूट उठें तो समझिए वसन्त आ गया. प्राचीन ग्रंथों में अशोक में फूल खिला देने के बहुत रोचक अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है.अशोक के फूलों का खिलना मतलब वसन्त का आना होता था. कालिदास के ' मालविकाग्नि मित्र ' और हर्ष की ' रत्नावली-नाटिका ' से पता चलता है कि मदन देवता की पूजा के बाद अशोक में फूल खिला देने का अनुष्ठान होता था. कोई सुन्दरी शरीर में गहने धारण करके, पैरों में महावर लगाकर नूपुर सहित अपने बांयें पैर से अशोक वृक्ष पर मृदु आघात करती थी. इधर नूपुरों की हल्की झनझनाहट होती और उधर अशोक उल्लास में कंधे पर से फूट उठता. आमतौर पर यह अनुष्ठान रानी करती थी.
हमारा कोई प्राचीन काव्य बिना वसन्त के वर्णन पूरा ही नहीं होता. दरअसल हमारा जीवन ही वसन्त के बिना निरर्थक है. विशेष रूप से संस्कृत का कोई काव्य या नाटक उठाइए, किसी न किसी बहाने उसमें वसन्त आ ही जाएगा. ग़ज़ब तो तब हो गया जब कालिदास ने वर्षा ऋतु के काव्य ' मेघदूत ' में भी वसन्त को नहीं छोड़ा. उसमें भी यक्षप्रिया के उद्यान का वर्णन करते हुए, प्रिया के नूपुरयुक्त वामचरणों के मृदुल आघात से कंधे पर से फूट उठनेवाले अशोक और मुख मदिरा से सिंच कर उठने को लालायित वकुल की चर्चा कर ही दी. कालिदास सौन्दर्य और प्रेम के विलक्षण चितेरे हैं.
प्राचीन काव्य ग्रन्थों में वसन्त की महिमा का अक्सर अतिरंजन हो जाता है. वसन्त के प्रति कवियों का मोह इस कदर है कि जयदेव के ' गीत गोविन्दम् ' की पहली ही अष्टपदी वसन्त को समर्पित है----
ललित लवंगलतापरिशीलन, कोमल मलय शरीरे ।
मधुकरनिकरकरंबि कोकिल कूजित कुंज कुटीरे ।।
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते ।
नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरंते ।।
( सखी राधा से कहती है---राधे ! सुन्दर दिखने वाले पुष्पों से लदी बेलों के स्पर्श से मादक बनी, मंद प्रवाहित होते मलय समीर के साथ, भौंरों की पंक्तियों से गुंजित तथा कोयलों के संगीत से कूजित कुंजों वाले तथा वियोगियों को संतप्त करनेवाली इस वसन्त ऋतु में प्रियतम श्रीकृष्ण, तरुणी गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं. )
यह नृत्य वसन्त का रास है. इसमें समर्पण और यौवन के आत्मदान का भाव है. इसीलिए सखी ऱाधा को समझाती है कि मान छोड़कर, सब कुछ कृष्ण को अर्पण कर दो.....श्रीकृष्ण रसराज भी हैं. उनकी लय,ताल,यति-गति और मति से एकात्म हो जाओ....यह समय फूलने-फलने का है. यह समय भीतर-बाहर कुछ नया रचने का है. यह नृत्य आत्मोत्सर्ग का नृत्य है. यह समय हवा का हो जाने का है, फूलों का हो जाने का है....यह समय निसर्ग में खो जाने का है.
इसीलिए वसन्त ऋतु प्राचीन भारत में उत्सवों का समय होती थी. वात्स्यायन के कामसूत्र में इस समय कई उत्सवों का उल्लेख है. उनमें दो उत्सव सर्वाधिक प्रसिद्ध थे---सुवसन्तक और मदनोत्सव . सुवसन्तक आज का वसन्तपंचमी है, और मदनोत्सव आज की होली. होली का त्यौहार विशुद्ध रूप से उद्दाम काम का त्यौहार है. यह असल मायनों में भारत का त्यौहार है. भारत की संस्कृति से मेल खाता हुआ. यह हर भारतवासी का त्यौहार है. होली की इस व्यापक स्वीकृति का एक कारण यह है कि इसके साथ कोई धार्मिक परंपरा उस तरह से नहीं जु़ड़ी है, जैसी दूसरे भारतीय त्यौहारों के साथ. होलिका दहन की धार्मिक परंपरा अगर है भी तो वह रंग वाली होली के एक दिन पहले हो जाती है, और उसका कोई प्रभाव रंगों पर नहीं पड़ता.
प्राचीन भारत में फागुन से लेकर चैत के महीने तक वसन्त के उत्सव कई तरह से मनाये जाते रहे हैं. एक उत्सव सार्वजनिक तौर पर मनाया जाता था तो एक दूसरा रूप कामदेव के पूजन का था. सम्राट हर्ष की ' रत्नावली-नाटिका ' में इस सार्वजनिक उत्सव का बड़ा मोहक चित्र है. मदनोत्सव वाले दिन पूरे नगर को सजाया जाता. नगर की गलियां, चौराहे और राजभवन का प्रांगण नगरवासियों की करतल ध्वनि, संगीत और मृदंग की थापों से गूँज उठते. नगर वासी वसन्त के नशे में मस्त हो जाते. राजा अपने महल की सबसे ऊँची चन्द्रशाला में बैठकर , नागरिकों के आमोद-प्रमोद का रस लेते. यौवन से भरपूर युवतियां, जो भी पुरुष सामने पड़ जाता उसे श्रृंगक (पिचकारी ) के रंगीन जल से सराबोर कर देतीं. राजमार्गों के चौराहों पर चर्चरी गीत और मर्दल नाम के ढोल गूँज उठते. दिशाएँ सुगंधित पिष्टातक (अबीर) से रंगीन हो जातीं. अबीर के उड़ने से राजमार्ग और महल के आसपास ऐसी धुंध छा जाती कि प्रातःकाल का भ्रम हो जाता है. ऐसा लगता मानो अपने वैभव से कुबेर को भी पराजित करने वाली कौशाम्बी नगरी सुनहरे रंग में डुबा दी गई हो.
दूसरा विधान था कामदेव के पूजन का. इसका एक चित्र भवभूति के मालती-माधव प्रकरण में मिलता है. इसका केन्द्र होता था --मदनोद्यान, जो मुख्यरूप से इसी उत्सव के लिए तैयार किया जाता था. यहां कामदेव का मंदिर होता था. नगर के स्त्री-पुरुष इकट्ठे होकर यहां कन्दर्प (कामदेव ) की पूजा और आपस में मनोविनोद करते थे. शिल्परत्न और विष्णुधर्मोत्तर पुराण आदि ग्रंथों में कामदेव की प्रतिमा बनाने की विधियां भी बतायी गयी हैं. कामदेव के बायीं ओर पत्नी रति, और दाहिनी ओर दूसरी पत्नी प्रीति की प्रतिमा बनायी जाती थी. शास्त्रों में काम के बाण और धनुष फूलों के बताए गये हैं. अरविन्द, अशोक, आम, नवमल्लिका और नीलोत्पल--ये उसके पांच बाण हैं. इन्हें क्रमशः उन्मादन, तापन, शोषण, स्तंभन और सम्मोहन भी कहा गया है.
हम भारतवासियों के लिए, कृष्ण को याद किए बिना, न तो वसन्त का कोई अर्थ है और न ही होली का. होली का सर्वाधिक मनभावन चित्र , कृष्ण-कथा में ही मिलता है. कृष्ण के प्रेम में आसक्त गोपियां हर क्षण कृष्ण को अपने पास लाने की जुगत में रहतीं . होली का उत्सव उन्हें यह अवसर देता है. गोपियां कृष्ण का प्रेम चाहती हैं. राधा जलती-भुनती रहती हैं......" भरि देहु गगरिया हमारी, कहे ब्रजनारी ...."---कृष्ण कहते हैं कि पहले पूरा खाली करो ! प्रेम की ऐसी ही गति-मति है.....प्रेम पाना है तो गगरिया पूरी खाली करके जाना पड़ेगा........प्रेम मनसिज है..प्रेम सृजन है..प्रेम उद्दाम है..प्रेम काम है, और काम धर्म के अविरुद्ध है !!
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