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Tuesday, 15 May 2012

हमारी स्त्रियाँ





वो स्त्रियाँ
बहुत दूर होती हैं हमसे
जिनकी देह से
मोगरे की गंध फूटती है,
और जिनकी चमक से
रौशन हो सकता है हमारा चन्द्रमा ।

उनके पास अपनी ही
एक अँधेरी गुफा होती है
जहाँ तक
ब्रह्मा के किसी सूर्य की पहुँच नहीं होती ।

हमारे जनपद की स्त्री
सभी प्रचलित गंधों को
खारिज़ कर देती है ।
एक दिन ऐसा भी आता है
कि एक खुशबू का ज़िक्र भी
उसके लिए
किसी सौतन से कम नहीं होता ।

हमें प्रेम करने वाली ये स्त्रियाँ
चौबीस कैरेट की नहीं होतीं
ये जल्दी टूटती नहीं
कि कुछ तांबा ज़रूर मिला होता है इनमें ।

ये हमें क्षमा कर देती हैं
तो इसका मतलब यह नहीं है
कि बहुत उदार हैं ये,
इन्हें पता है कि इनके लिए
क़तई क्षमाभाव नहीं है
दुनिया के पास ।

ज़रा सा चिन्तित
ये उस वक्त होती हैं
जब इनका रक्तस्राव बढ़ जाता है,
हालांकि
सिर्फ इन्हें ही पता होता है
कि यही है इनका अभेद्य दुर्ग ।

नटी हैं हमारी स्त्रियाँ
कभी कभार
जब ये दहक रही होती हैं अंगार सी
तब भी ओढ़ लेती हैं
बर्फ की चादर ।

न जाने किस गर्मी से
पिघलता रहता है
इनके दुखों का पहाड़,
कि इनकी आँखों से
निकलने वाली नदी में
साल भर रहता है पानी ।

इनके आँसू
हमेशा रहते हैं संदेह के घेरे में
कि ये अक्सर रोती हैं
अपना स्थगित रुदन ।

हमारी स्त्रियाँ
अक्सर अपने समय से
थोड़ा आगे
या ज़रा सा पीछे होती हैं,
बीच का समय
हमारे लिए छोड़ देती हैं ये ।
ये और बात है
कि इस छोड़े हुए वक्त में
हमें असुविधा होती है ।

हमारी स्त्रियों को
कम उमर में ही लग जाता है
पास की नज़र का चश्मा
जिसे आगे पीछे खिसका कर
वो बीनती रहती हैं कंकड़
दुनिया की चावल भरी थाली लेकर ।

यही वज़ह है कि हमारे पेट भरे होते हैं
और अपनी स्त्रियों के जागरण में
हम सो जाते हैं सुख से ।

------------------------ विमलेन्दु
 

8 comments:

Nidhi said...

विमलेन्दु ...बधाई!स्त्री मन को समझने और इतनी खूबसूरती से उसे चित्रित करने के लिए.
वो स्त्रियाँ जिनके बदन महके हुए और चमकीले होते हैं ...उन् तक किसी की पहुँच ना हो....तो ,उस त्रासदी को...उस अंधेरी गुहा का साथ जीवन पर्यंत भोगने को कम कर क्यूँ आंका जाए?
प्रेम करने वाली स्त्रियाँ चौबीस कैरट की नहीं होती ....जल्दी नहीं टूटती ....बहुत सुन्दर!!
यह बात तो आपने बहुत सही कही कि क्षमा करने का मतलब यह नहीं होता कि यह उदार है...कई बार तो इसके अलावा कोई चारा नहीं होता और दूसरा जिस क्षमा की उन्हें स्वयं के लिए इतनी दरकार रहती है ...वो उसके महत्त्व को जानती हैं.
अभेद्य दुर्ग ...अच्छा बिम्ब है.
नटी कह लीजिए या कलाकार ...पर बर्फ की चादर ओढना ..अंगारे सी दहकती होने के बावजूद ..आसान नहीं.इससे उलटा भी होता है कई बार....बर्फ सी होकर भी गरमी की नुमाइश करती हैं स्त्रियाँ.

न जाने किस गर्मी से
पिघलता रहता है
इनके दुखों का पहाड़,
कि इनकी आँखों से
निकलने वाली नदी में
साल भर रहता है पानी ।
यह पंक्तियाँ मुझपे लागू होती हैं इसलिए अच्छी लगी..बहुत ज्यादा.मेरी आँखों में कभी सूखा नहीं पड़ता ..खुशी हो या गम ..अश्क बहाने को तैयार हरदम .

रोना...इनके लिए जुगाली सा है...विमलेन्दु.

बीच का समय यूँ छोड़ा जाना ...अच्छा नहीं लगता...मतलब असुविधा होती है..यह अभी जाना.
स्त्रियों के जागरण में सुख से सो जाना...इसमें गलत क्या है?मुझे तो कुछ गलत नहीं लगता ....

बाबुषा said...

स्त्रियों पर आज तक की तारीख की तमाम पंचायत/ तमाम विमर्श और तमाम हल्ले गुल्ले में आपकी लिखी हुयी Lines को सबसे ऊपर रख रही हूँ क्योंकि मुझे इसमें स्त्री का रूदन नहीं दिखा ..स्वभाव दिखा..उदारता दिखी और उसका अन्तरिक्ष जैसा कलेजा..

मैं किसी भी स्त्रीवादी विमर्श का हिस्सा नहीं हूँ.मुझे चीखती हुयी नारेबाजी करती हुयी औरतें नहीं सुहातीं तो नहीं सुहातीं !

ये और बात है कि स्त्रियों की तकलीफों से न केवल इत्तेफाक रखती हूँ बल्कि जो बन पड़ता है करती भी हूँ.

जिस प्रेम और सहजता से आपने नस पकड़ी है..स्वभाव पकड़ा है..उसके लिए मेरी तालियाँ और प्रणाम.

बाबुषा said...

स्त्रियों पर आज तक की तारीख की तमाम पंचायत/ तमाम विमर्श और तमाम हल्ले गुल्ले में आपकी लिखी हुयी Lines को सबसे ऊपर रख रही हूँ क्योंकि मुझे इसमें स्त्री का रूदन नहीं दिखा ..स्वभाव दिखा..उदारता दिखी और उसका अन्तरिक्ष जैसा कलेजा..

मैं किसी भी स्त्रीवादी विमर्श का हिस्सा नहीं हूँ.मुझे चीखती हुयी नारेबाजी करती हुयी औरतें नहीं सुहातीं तो नहीं सुहातीं !

ये और बात है कि स्त्रियों की तकलीफों से न केवल इत्तेफाक रखती हूँ बल्कि जो बन पड़ता है करती भी हूँ.

जिस प्रेम और सहजता से आपने नस पकड़ी है..स्वभाव पकड़ा है..उसके लिए मेरी तालियाँ और प्रणाम.

Tulika Sharma said...

विमलेन्दु ...आपकी कविता मन को इतने करीब से छूती है कि लगता है कि ये अपने ही भाव हों ...स्त्रियों के प्रति आपकी इस अतिरिक्त संवेदना से मैं परिचित तो थी क्योंकि आपकी "मनिहार" और "बदनाम स्त्रियों के नाम प्रेम पत्र" पढ़ चुकी थी ...पर संवेदना के ये तंतु इतने महीन हैं ये अब पता चला ..या शायद अब भी कुछ उदघाटित होना बाकी है ....खैर ये कविता हर स्त्री की संवेदना को निश्चित तौर पर छुएगी .................अब कविता की बात .........
-ये स्त्री और पुरुष दोनों के लिए बड़ी विडम्बना है कि अपनी तमाम विशेषताओं के बाद भी वे एक दुसरे से दूर होते हैं ....पूरक नहीं.
-ब्रम्हाण्ड का कोई भी सूर्य उसकी अंधेरी गुफा तक नहीं पहुँच सकता ..या यूँ भी कहा जा सकता है कि एक निश्चित वक्त के बाद सूर्य की रोशनी में उसकी आँखें चुंधियाती हैं ...वो सहज नहीं होती .
-प्रचलित गंधों को खारिज कर योगिनी सा जीवन जीने वाले को खुशबूएं प्रताड़ना ही तो लगेंगी .
-जीवन संघर्ष में सिर्फ़ चमड़ी का रंग ताम्बई नहीं होता ..हड्डियों में भी ताम्बा रिस जाता है ..तो खरा सोना कैसे होंगी ये .
-एक क्षमा डर से प्रदान की जाती है और एक ह्रदय के औदार्य से ...और ये सिर्फ़ इन्ही को पता होता है कि इन्होने कौन सी क्षमा प्रदान की है .
-नटी तो यकीनन हैं ..पूरा जीवन कुछ न कुछ साधती रहतीं हैं
-भीतर की अग्नि और सदानीरा आँखें तो कई बार सुना है ..पर ये स्थगित रुदन का हमारा कांसेप्ट आपको कैसे पता चल गया .
-समय की जिस सीढ़ी को वो छोड़ कर चलती हैं ..समझती हैं कि त्याग किया ...पर ये उन्हें भी पता होता है कि उसे आप भिक्षा समझ कर ग्रहण करते हैं
-नज़र का चश्मा लगा दुनिया की चावल भरी थाली में से कंकड नहीं अपना खोया हुआ हीरा ढूंढती हैं वो .
-इतना सब होते हुए भी स्त्रियाँ जागरण में सुख पाती हैं ..................
यही रहस्य है... जो सनातन है.. और रहेगा .

Onkar said...

wah, kya kamal ki kavita hai

Archna Pant said...
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Unknown said...

आज तक मैंने इतनी बेहतरीन...औरत के मन को गहरायी से समझने और शब्दों में पिरोने वाली कविता नहीं पढ़ी....ना शायद पढूंगी.....कम से कम.... किसी पुरुष की तो नहीं......आप की जय हो......

shikha varshney said...

निशब्द हूँ मैं यह रचना पढकर...सार्थक हुआ आपके ब्लॉग पर आना.