जब तुम्हारा
न होना होता है
उस वक़्त मैं
कुछ भी हो
जाने की ज़गह पर होता हूँ ।
जैसे ये लाल
रंग की शर्ट
जो मैने पहनी
है
दरअसल यह
बैगनी रंग की ज़गह है ।
यह जो ज़गह
तुम्हारे
समुद्र होने की थी
ठीक वहीं पर
मेरे रेगिस्तान
होने की रेत है
जिस पर
अज़नबी देशों
को जाने वाले
ऊँटों के
खुरों के निशान हैं ।
मेरे घर के
सामने
जो कटहल का
पेड़ है
वो दरअसल
आम के पेड़
की ज़गह है ।
ठीक इसी तरह
मेरे तकिए पर
जो गीला सा धब्बा है
वो मेरी
बेलौस हँसी की ज़गह पर
कब आ गया
क्या पता चला
किसी को !
जिस ज़गह
मेरी यह कविता है
वहाँ एक ऋषि
एक राजा को
संतान सुख दे
रहा था ।
मेरा जीना
अब एक
विस्थापित जीवन है
जिसे मैं
दरअसल की
ज़गह पर जी रहा हूँ ।
-------------------------विमलेन्दु
2 comments:
मेरा जीना
अब एक विस्थापित जीवन है
जिसे मैं
दरअसल की ज़गह पर जी रहा हूँ ।
एक बेहद गहन और सशक्त अभिव्यक्ति।
दरअसल की जगह पर होना वो होता है ..कि हम वहाँ नहीं होते जहाँ हमें होना होता है ...जब इच्छित या अभीष्ट हासिल नहीं होता ..तो स्थानापन्न से काम चलाना होता है ...नियति से इसी विस्थापन का दर्द निरूपित करती है ये कविता ....जब मनचाहा हासिल नहीं होता तो हम सब हो जाते हैं ...पर अपना आप नहीं हो पाते ...कोई न कोई रंग ज़रूर होता है जीवन में ..पर वो रंग नहीं होता जिसे पाने की इच्छा की हो ................
इच्छित समुद्र की जगह रेगिस्तान का होना ..तिस पर भी जुड़ाव का कोई संकेत नहीं ...सिर्फ़ अजनबी देशों को जाने वाले ऊंटों के खुरों के निशान .........
ह्रदय के दरवाज़े पर जहाँ रसीला ..प्रेम में पगा मीठा आम होना था वहाँ कंटीला कटहल है ...बिम्ब बता रहा है कि ह्रदय का स्वामी घर छोड़ कर चला गया है (कटहल के पेड़ के साथ ये मान्यता जुडी है )
किसी को ये पता नहीं होता कि हँसने की चाह रुलाती ही है ......
जिस ज़गह मेरी यह कविता है
वहाँ एक ऋषि
एक राजा को
संतान सुख दे रहा था ।
इन पंक्तियों से कविता की गहराई और विस्तार दोनो बढ़ गया है ....
जो हमारा नहीं होता उसे हम अपना कहते हैं ...और जो अपनाना चाहते हैं वो सोच से भी परे हो जाता है ...विस्थापन का दर्द दे जाता है .....
अंतर्द्वद्व उकेरती एक बेहतरीन कविता के लिए बधाई विमलेन्दु जी .
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