श्रोताओं को मुग्ध करते, विरोधियों को
चित्त करते हुए नामवर सिंह आज छियासी साल के हो गये.
दूसरी परंपरा के प्रथम प्रवक्ता और फिर
नायक, नामवर सिंह छियासी साल के हो गये. ऊसर गाँव (बनारस जिले का जीयनपुर) के
स्कूल मास्टर नागर सिंह के तीन बेटों में सबसे बड़े बेटे प्रो. नामवर सिंह छियासी
साल के हो गये. चना और सेतुआ खाकर लोलार्क कुंड पर तपस्या करने वाले, काशीनाथ और
रामजी सिंह के बड़े भैय्या, नामवर सिंह छियासी साल के हो गये. रामचन्द्र शुक्ल,
डॉ. नगेन्द्र, नन्ददुलारे बाजपेयी जैसों की स्थापनाओं को ध्वस्त करते हुए आचार्य
नामवर सिंह छियासी साल के हो गये. ब्राह्मणों में ठाकुर और ठाकुरों में कुजात
(बकौल काशीनाथ सिंह), नामवर सिंह आज छियासी साल के हो गये.
छियासी साल का होना न कोई नयी बात है और
न कोई बड़ी बात है. दुनिया भर में और हिन्दी में ही न जाने कितने लोग आये दिन
छियासी के होते हैं. तो फिर बड़ी बात क्या है ? बड़ी बात है हिन्दी की ऊर्ध्वगामी चेतना का शिखर
होकर छियासी का होना ! बड़ी
बात है हिन्दी जाति का गौरव होकर छियासी का होना !! उससे
भी बड़ी बात है कि एक पूरे युग का रहनुमा होकर छियासी का होना.
नामवर सिंह उन दिनों से हमारे नायक हैं
जब हमें लिखने-पढ़ने की तमीज़ बहुत कम थी. (हालांकि अब भी ज़्यादा नहीं है). उनके
नाम की धमक लगातार हमारे कानों और मन के परदे पर होती रहती थी. संयोग से अल्पायु
में ही उनसे मिलने, उनको सुनने और उनको कविताएँ सुनाने,
उनको दही-जलेबी खिलाने और उनके सामने भाषण देने की गुस्ताखी करने का अवसर भी मिल
गया था. यह दुर्लभ संयोग रीवा और भोपाल के कुछ कार्यक्रमों में घटित हुआ. होने को
तो और भी बड़े लोग वहाँ मौजूद होते थे पर हम जैसों की नज़रें नामवर जी को खोजती
रहती थीं और एक बार जो उनसे चिपकतीं तो फिर संसार के सारे नज़ारे बेमानी हो जाते
थे. उनकी एक-एक भंगिमा हमारे लिए वस्तु अमोलक होती. बाद के वर्षों में उनसे मिलना
न हो पाने के कारण हमें एकलव्य की परंपरा का शिष्य ही बनना पड़ा नामवर सिंह का. यह
सोच कर बड़ा रोमांच होता है कि कितने भाग्यशाली रहे होंगे वे लोग जिन्हें प्रो.
नामवर सिंह का शिष्य होने का अवसर मिला !
शायद उतने ही सौभाग्यशाली, जितने सौभाग्यशाली नामवर सिंह थे, काशी विवि में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के सबसे प्रिय शिष्य बनकर !! उन दिनों हजारी प्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक यशस्वी विद्वान थे. हिन्दी आलोचना शास्त्र को जड़ता से मुक्त कर रहे थे. और उन्हें एक अदद अर्जुन की ज़रूरत थी. ऐसे में नामवर जैसा शिष्य मिलना आचार्य द्विवेदी का भी सौभाग्य ही था. किसी ने ठीक ही कहा है कि “ हजारी बाबू हिन्दी आलोचना में शुक्लोत्तर आलोचना के शलाका-पुरुष नहीं बनते, यदि नामवर अपनी प्रतिबद्ध आस्थाओं के पार जाकर, अपने काव्यगुणी आलोचक संस्कार और अध्ययन के आधार पर हजारी बाबू को आधुनिक हिन्दी का सर्वाधिक चेतनाशील और सर्जनात्मक आलोचक सिद्ध न करते.”
शायद उतने ही सौभाग्यशाली, जितने सौभाग्यशाली नामवर सिंह थे, काशी विवि में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के सबसे प्रिय शिष्य बनकर !! उन दिनों हजारी प्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक यशस्वी विद्वान थे. हिन्दी आलोचना शास्त्र को जड़ता से मुक्त कर रहे थे. और उन्हें एक अदद अर्जुन की ज़रूरत थी. ऐसे में नामवर जैसा शिष्य मिलना आचार्य द्विवेदी का भी सौभाग्य ही था. किसी ने ठीक ही कहा है कि “ हजारी बाबू हिन्दी आलोचना में शुक्लोत्तर आलोचना के शलाका-पुरुष नहीं बनते, यदि नामवर अपनी प्रतिबद्ध आस्थाओं के पार जाकर, अपने काव्यगुणी आलोचक संस्कार और अध्ययन के आधार पर हजारी बाबू को आधुनिक हिन्दी का सर्वाधिक चेतनाशील और सर्जनात्मक आलोचक सिद्ध न करते.”
इस गुत्थी को यहीं सुलझा लेते हैं कि वह
कौन सी प्रतिबद्ध आस्थाएँ थीं नामवर सिंह की, जिनके पार उन्हें जाना पड़ा ? अपने
अध्ययन, अध्यवसाय और साहित्यिक संस्कारों में नामवर मार्क्सवादी थे. यह मार्क्सवाद
उनमें साहित्य के ज़रिए आया. द्वन्द्वात्मकता नामवर सिंह के स्वभाव में थी.
साहित्य के सम्पर्क में आने पर उनका यह स्वभाव उन्हें मार्क्सवाद में गहरे उतार ले
गया. मार्क्सवाद का परंपरा और अतीत से गहरा विराग था. मार्क्सवाद के अपने
सिद्धान्त थे. अपने पैमाने थे. उन्ही के आधार पर वह समाज और साहित्य का मूल्यांकन
करता था. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी संस्कृत साहित्य-ज्योतिष के विद्वान थे.
उनकी गति अतीत और परंपरा में थी. यद्यपि आचार्य द्विवेदी संस्कृत और हिन्दी
वाण्गमय में उन तत्वों को खोज रहे थे जो मानव चेतना और समाज को ऊर्ध्वगामी बना सकें, लेकिन
मार्क्सवादी मानस को इससे संगति बैठाना
बहुत मुश्किल काम था. यह काम मछली की आँख भेदने जैसा ही चुनौतीपूर्ण था. तभी
आचार्य द्विवेदी के अर्जुन बने नामवर सिंह. जिस दूसरी परंपरा की खोज आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी ने की, उसके आजीवन और अधिकृत प्रवक्ता बने रहे नामवर सिंह. न
सिर्फ प्रवक्ता बल्कि आगे चलकर इस दूसरी परंपरा के नायक भी नामवर सिंह ही बने.
यह सवाल उठना सहज भी है और ज़रूरी भी कि
आखिर नामवर के होने से हिन्दी में क्या हुआ ? क्यों
हिन्दी जगत उन पर इतना रीझा हुआ है ?? ऐसा
तो था नहीं कि नामवर के आने तक हिन्दी में आलोचक नहीं थे, या आलोचना की परंपरा
नहीं थी. नामवर जब आये तब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी के
अपने-अपने मजबूत गढ़ थे. इन्हीं के इर्द-गिर्द नन्ददुलारे बाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र,
रामविलास शर्मा, धीरेन्द्र वर्मा के किले भी बन रहे थे. फिर नामवर ने ऐसा क्या
किया कि वे हिन्दी आलोचना के सिरमौर हो गये ?
नामवर जी जब साहित्य में आये तो कविताएँ और ललित-निबन्ध लिखते थे. हालाँकि उनकी पहली प्रकाशित रचना एक कहानी थी जो बनारस के उदय प्रताप कॉलेज की पत्रिका में छपी थी. लेकिन उसके बाद उन्होंने कभी कोई कहानी नहीं लिखी. लेकिन उनकी आलोचना की शुरुआत ही कहानी से हुई. तब तक हमारे देश में कहानी की आलोचना की कोई परंपरा और प्रविधि नहीं थी. सच तो यह है कि कहानी को आलोचना के लायक ही नहीं माना जा रहा था. लेकिन नामवर सिंह कहानी में हो रहे सूक्ष्म और आंतरिक बदलावों को देख पा रहे थे. उन्होने भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित पत्रिका ‘नई कहानियाँ’ में लगातार आलेख लिखे. बाद में इन्हीं आलेखों को संकलित कर उनकी पुस्तक ‘कहानी, नयी कहानी’ बनी. इस पुस्तक ने आते ही हिन्दी आलोचना जगत में खलबली मचा दी. रूप-रस-छंद-अलेकार में मस्त आलोचना को नयी ज़गहों पर जीवन के स्पन्दन महसूस हुए. रातों-रात निर्मल वर्मा सुपर स्टार हो गये.
नामवर जी जब साहित्य में आये तो कविताएँ और ललित-निबन्ध लिखते थे. हालाँकि उनकी पहली प्रकाशित रचना एक कहानी थी जो बनारस के उदय प्रताप कॉलेज की पत्रिका में छपी थी. लेकिन उसके बाद उन्होंने कभी कोई कहानी नहीं लिखी. लेकिन उनकी आलोचना की शुरुआत ही कहानी से हुई. तब तक हमारे देश में कहानी की आलोचना की कोई परंपरा और प्रविधि नहीं थी. सच तो यह है कि कहानी को आलोचना के लायक ही नहीं माना जा रहा था. लेकिन नामवर सिंह कहानी में हो रहे सूक्ष्म और आंतरिक बदलावों को देख पा रहे थे. उन्होने भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित पत्रिका ‘नई कहानियाँ’ में लगातार आलेख लिखे. बाद में इन्हीं आलेखों को संकलित कर उनकी पुस्तक ‘कहानी, नयी कहानी’ बनी. इस पुस्तक ने आते ही हिन्दी आलोचना जगत में खलबली मचा दी. रूप-रस-छंद-अलेकार में मस्त आलोचना को नयी ज़गहों पर जीवन के स्पन्दन महसूस हुए. रातों-रात निर्मल वर्मा सुपर स्टार हो गये.
कविता के क्षेत्र में अराजकता का माहौल
था. कवि-समाज दुविधाग्रस्त था. नई कविता, अकविता, गद्य कविता, प्रयोगवादी कविता,
गीतिकाव्य और न जाने कितने तरह की कविताएं घोषित हो रही थीं और कवि-समाज इन्हीं
में भटका हुआ था. उनको राह दिखाने वाला कोई आलोचक नहीं था. तब नामवर सिंह ने ‘ कविता के नये प्रतिमान’ किताब लिखी. इस किताब ने चमत्कार किया.
सबसे पहली बात तो यह हुई कि दिग्भ्रमित कवि-गण यह समझ पाये कि कविता के उपरोक्त
पारिभाषिक नामों के चक्कर न पड़कर कुछ ऐसा लिखना है जो मनुष्य को और बेहतर मनुष्य
तथा प्रकृति-समाज के प्रति सहिष्णु बनाए. नामवर ने कविता को सूत्र और छंद के संसार
से बाहर खुली प्रकृति में सांस लेने देने की वकालत की, जिसका युगांतकारी प्रभाव
हिन्दी कविता पर पड़ा.
नामवर सिंह हमेशा आलोचना को ‘सहयोगी प्रयास’
कहते थे. यद्यपि उनके शुरुआती दौर में
उन्हें लेखक समाज से उस तरह का सहयोग नहीं
मिला, लेकिन वे अपनी इस मूल-प्रतिज्ञा पर आज तक अटल हैं. वे आलोचना को कोई रूढ़
पद्धति नहीं मानते थे. उनका कहना था कि आलोचना, रचना के समान्तर निरन्तर विकसित
होने वाली प्रक्रिया है. इसलिए रचना की प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों के साथ
आलोचना को भी बदलना चाहिए. इसी बिन्दु पर वे मार्क्सवादी आलोचना पद्धति का विरोध
करते हुए भी दिखते थे, जिसमें पूर्व-निर्धारित सूत्रों के आधार पर साहित्य-कला का
मूल्यांकन करने की बात कही जाती रही है.
यही एक बात नामवर सिंह को प्रसिद्ध भी
करती गई और विवादित भी. आलोचना की समय-सापेक्षता की उनकी अवधारणा को उनका अवसरवाद
भी कहा गया. नामवर के समावेशी स्वभाव को उनकी चतुराई समझा गया. अज्ञेय को वर्षों
तक नामवर सिंह उपेक्षित करते रहे. लेकिन पिछले साल अज्ञेय की जन्मशती के अवसर पर
उन्होने स्वीकार किया कि अज्ञेय को समझने में उनसे भूल हुई. समय-समय वो अपनी
स्थापनाओं से विवादित होते रहे हैं. अपने आलोचक जीवन के शुरुआती दौर में वो तब
निशाने पर आ गये जब उन्होने निर्मल वर्मा
की कहानी ‘परिन्दे’ को नई कहानी की पहली और प्रतिनिधि
कहानी बता दिया. उस पर उनका एक पूरा लेख ही है लम्बा. ज्ञातव्य है कि निर्मल वर्मा
को कलावादी माना जाता है, और प्रगतिशील धारा का कलावाद से स्वाभाविक विरोध है.
नामवर, प्रगतिशीलों के निर्विवाद नेता. फिर एक कलावादी को बड़ा कहानीकार कैसे
घोषित कर सकते हैं ! नामवर
में शुरू से ही यह प्रताप था कि वो जिसे घोषित कर देते थे, वही रातों-रात श्रेष्ठ
कवि-लेखक हो जाता था. निर्मल वर्मा, धूमिल, अमरकान्त, उषा प्रियंवदा, मुक्तिबोध की
पहली घोषणा नामवर ने ही की थी.
एक बार काशीनाथ सिंह ने नामवर जी से जब
पूछा कि कोई ऐसा वाद-विवाद या संवाद जिसमें आपका बदला लेने या सबक सिखाने का भाव
रहा हो ? जवाब में नामवर सिंह
ने कहा कि उन्होंने व्यक्तिगत आक्षेपों को अनदेखा किया और ‘दस्त-ए-अदू’
के साथ भी फ़ैज़ के अंदाज़ में ‘सलूक
जिससे किया मैने आशिकाना किया’ .
हाँ, यही अंदाज़ है नामवर सिंह का अपने
विरोधियों से लड़ने का. उनके सूत्र-कथन, हिन्दी जगत के लिए कर्बला-पानीपत और
प्लासी के मैदान बनते रहे तो कभी शिमला और ताशकंद. विरोधियों की कमी कभी उन्हें
रही नहीं. या यह कहना ज्यादा सही होगा कि नामवर खुद ही विरोधी बन जाते हैं. उनके
बारे में कहा जाता है कि जब वो अपना विरोधी तय कर लेते हैं, तब उनकी प्रतिभा और
निखर कर सामने आती है. ‘दूसरी
परंपरा की खोज’ में रामचन्द्र शुक्ल
उनके निशाने पर हैं, तो ‘कविता
के नये प्रतिमान’ में शुक्लजी के
उत्राधिकारी डॉ. नगेन्द्र. कहा यह भी जाता है कि रामविलास शर्मा के विरोध में
जब-तब नामवर अभियान चलाते रहते थे. रामविलास जी को तो उन्होने उनकी मृत्यु के बाद
भी नहीं छोड़ा. ‘इतिहास की शव साधना’ नामक निबन्ध में उनको लगभग ध्वस्त कर
देने की कोशिश नामवर जी ने की. लेकिन नामवर का विरोध और लड़ाई व्यक्तित्वगत और
निजी कभी नहीं होती थी. अपने विपक्षी का पूरा आदर करते हुए वो उसकी स्थापनाओं का
खंडन करते थे. नामवर जी अपने शिष्यों और मित्रों को अक्सर ग्राम्शी का वह कथन
बताते थे---“ युद्ध के मोर्चे पर
दुश्मन के सबसे कमज़ोर पक्ष पर आक्रमण करना भले ही सफल रणनीति हो, लेकिन बौद्धिक
मोर्चे पर दुश्मन के सबसे मजबूत पक्ष पर आक्रमण करना ही सफल रणनीति है.”
तो ऐसे हैं हमारे वे नामवर सिंह जिन्हें
हम आज देखते हैं. पर ऐसी प्रतिभा बनती कैसे है ! क्या
खाकर ऐसे व्यक्तित्व बनते हैं संसार में !! काशीनाथ
सिंह की माने तो फुलाया हुआ चना और सेतुआ खाने से नामवर सिंह जैसा प्रतापी आलोचक
हिन्दी में हुआ. प्रसिद्ध कथाकार-संस्मरण लेखक-साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता
काशीनाथ सिंह नामवर सिंह के छोटे भाई हैं. नामवर के विद्यार्थी जीवन से लेकर
दिल्ली जाने तक वही नामवर के मातु-पिता-सखा और भार्या थे. काशीनाथ सिंह और नामवर
सिंह का ऐसा संबन्ध था कि जब दोनो एक दूसरे को संबोधित होते हैं तो दोनो की
रचनात्मकता अपने चरम पर होती है. नामवर जी ने ही कहीं लिखा था कि मेरे बिना
काशीनाथ जो होते सो होते, लेकिन काशीनाथ के बिना मैं नामवर न होता. काशीनाथ जी ने
अपने संसमरणों में कई ज़गह नामवर के उन दिनों को याद किया है, जब नामवर जैसी
विलक्षण प्रतिभा को भी कुचक्रों के चलते नौकरी के लिए संघर्ष करना पड़ा. एक दौर
में बेहद गरीबी का जीवन भी जिया दोनों भाइयों ने. काशी और सागर विवि से निष्कासित
किये गये नामवर सिंह. इन तमाम बातों को काशीनाथ सिंह ने ‘गरबीली
गरीबी वह’, ‘जीयनपुर’, ‘घर
का जोगी जोगड़ा’ आदि संस्मरणों में
अद्भुत संवेदना के साथ लिखा है. कुछ ज़गहों पर काशीनाथ सिंह ने नामवर जी की उस
अध्ययनवृत्ति पर भी विस्तार से लिखा है जिसके कारण नामवर का निर्माण हुआ. एक ज़गह
वो लिखते हैं---“मैने आज तक, ऐसे किसी
आदमी की कल्पना नहीं की थी, जिसके सारे दुखों, सारी परेशानियों, पराजयों,
तिरस्कारों और अपमानों का विकल्प अध्ययन हो.”
आज निर्विवाद रूप से नामवर सिंह हिन्दी
का अभिमान हैं. अभी वे छियासी के ही हुए हैं. अगर अपनी उम्र देकर किसी की आयु
बढ़ाई जा सकती तो हिन्दी का हर लेखक नामवर जी को अपनी उम्र का कुछ हिस्सा देने को
दौड़ पड़ेगा, जैसे उनके भाषण सुनने को लोग दौड़ पड़ते हैं.
फिलहाल इस लेख का समापन, विश्वनाथ
त्रिपाठी के इस वक्तव्य से करते हैं---“ नामवर
जी की आस्वाद-क्षमता, हिन्दी पाठकों की आस्वाद-क्षमता में रूपान्तरित हुई है, और
हो रही है—माध्यम है उनकी
आलोचना.”
अपने इस नायक के जन्मदिन पर हम उनकी दीर्घायु की कामना करते हैं ।
अपने इस नायक के जन्मदिन पर हम उनकी दीर्घायु की कामना करते हैं ।
2 comments:
बहुत ही आत्मीयता से लिखा है आपने. ऐसा निस्वार्थ प्रेम पाना किसी भी आलोचक के लिए सौभाग्य की बात होगी.
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