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Monday 16 July 2012

पीड़ा का निजीकरण…..संदर्भः तीन लेखकों का प्रपत्र





मध्यप्रदेश में भारत भवन सहित दूसरे कला और साहित्य संस्थानों के पराभव पर तीन प्रतिनिधि लेखकों का वक्तव्य देखा तो मन में पहली बात यह आई कि एक सार्वजनिक पीड़ा, व्यक्तिगत पीड़ा की शक्ल में व्यक्त हो गई है. यह प्रपत्र संयुक्त रूप से जारी किया है कुमार अंबुज, राजेश जोशी और नीलेश रघुवंशी ने. कुमार अंबुज प्रगतिशील लेखक संघ से संबद्ध हैं और राजेश जोशी-नीलेश रघुवंशी जनवादी लेखक संघ से. पहले इनकी अपील के प्रमुख अंशों को देखते हैं------------------

“……….पिछले एक दशक में म.प्र. के भारत भवन, साहित्य परिषद, उर्दू अकादमी और कला परिषद सहित कुछ संस्थानों से, समय-समय पर, पृथक-पृथक कारणों से वामपंथी लेखक संगठनो द्वारा प्रत्यक्ष दूरी बनाकर रखी गई है...........
..........वर्तमान सरकार की अन्यथा स्पष्ट सांस्कृतिक नीतियों के चलते, इन संस्थानों का और साथ ही प्रदेश की मुक्तिबोध, प्रेमचंद और निराला सृजनपीठों का, वागर्थ, रंगमंडल आदि विभागों का, पिछले आठ-नौ वर्षों में सुनियोजित रूप से पराभवकर दिया गया है. इन संस्थाओं के न्यासियों, सचिवों, उपसचिव और अध्यक्ष पदों पर, जहाँ हमेशा ही हिन्दी साहित्य क् सर्वमान्य और चर्चित लेखकों-कलाकारो की गरिमामय उपस्थिति रही, वहाँ अधिकांश ज़गहों पर ऐसे लोगों की स्थापना की जाती रही है, जो किसी भी प्रकार से साहित्य या कला जगत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर नहीं हैं. उनका हिन्दी साहित्य की प्रखर, तेजस्वी और उस धारा से जो निराला, प्रेमचंद,मुक्तिबोध से निसृत होती है, कोई सम्बन्ध नही बनता है. उनका हिन्दी साहित्य की विशाल परंपरा एवं समकालीन कला-साहित्य से गंभीर परिचय तक नही है, जिनकी हिन्दी साहित्य की समझ स्पष्ट रूप से संदिग्ध है. उनमे से अधिकांश की एकमात्र योग्यता सिर्फ यह है कि उनका वर्तमान सरकार की मूल राजनीतिक पार्टी या उनके अनुषंग संगठनों से जुड़ाव, सक्रियता और समर्थन है.......हमारा विरोध किसी राजनीतिक अनुशंसा से उतना नहीं है, क्योंकि व्यस्था में इन पदों पर पहले भी राजनीतिक अनुशंसाओं से लोग नामित किए जाते रहे है, लेकिन वे सब असंदिग्ध रूप से हमारे समकालीन साहित्य के मान्य,समादृत हस्ताक्षर रहे हैं.........
”………….
 
इस वक्तव्य को पढ़ने के बाद इतने सारे सवाल मन में पैदा हो गये हैं कि समझ में नहीं आ रहा है कि बात कहाँ से आगे बढ़ाई जाये.........तो, सबसे पहले मैं इस वक्तव्य में निहित सार्वजनिक चिन्ता के पक्ष में अपना द़ढ़ समर्थन व्यक्त करता हूँ. मुझे लगता है कि म.प्र. के साथ ही पूरे देश में कला एवं साहित्य केन्द्रों का पराभव हुआ है. ज़्यादातर ज़गहों पर सरकार के चाटुकार लोग बैठे हुए हैं.

अपील में कहा गया है कि पिछले आठ-नौ वर्षों में म.प्र. में इन संस्थाओं का पराभव इसलिए हुआ है क्योकि इनमें दक्षिणपंथी सरकार का समर्थन करने वाले लोग बैठे हुए हैं. और यही वज़ह है कि वामपंथी लेखक संगठनों ने इन संस्थाओं से दूरी बना रखी है...........पहली बात तो यह कि इन नौ वर्षों में प्रदेश सरकार ने चुन-चुन कर प्रतिबद्ध वामपंथियों को बाहर किया और जो मध्यममार्गी थे उन्हें अपनी तरफ ले गयी. भाजपा अपना एक बौद्धिक प्रकोष्ठ तैयार करना चाहती है. इसलिए ऐसे लेखक-कलाकार जो पृथक-पृथक कारणों से पहले उपेक्षित थे वो सब सरकारी साहित्य-कला-साधना की मुख्यधारा में बुला लिए गये. नौ साल पहले जब काँग्रेस का शासन था तो यही वामपंथी लेखक-कलाकार सारी संस्थाओं में शोभायमान थे. तब क्या यह स्वीकार कर लिया जाय कि प्रगतिशील और जनवादी विचारधारा और काँग्रेस की विचारधारा में कोई फर्क नहीं है ?!!

प्रपत्र में भले ही यह कहा जा रहा है कि हमारा विरोध किसी राजनीतिक अनुशंसा से नहीं है, लेकिन यह साफ है कि इसकी वज़ह राजनीतिक भी है......और निश्चित तौर पर होनी भी चाहिए. बिना राजनीतिक चेतना के लेखक या कलाकार नहीं हुआ जा सकता. दरअसल पहले तो ठीक से मनुष्य होने के लिए ही राजनीतिक चेतना होनी जरूरी है. फिर इस प्रपत्र में क्यों कहा जा रहा है कि हमारा कोई राजनीतिक निहितार्थ नहीं है ?? यह इनकार ही इस प्रपत्र को संदिग्ध बना रहा है.

कारण है. अगर ये लेखक राजनीतिक विचारधारा अलग होने के कारण इन संस्थानों से अलग होते तो इन्हें पिछला हिसाब भी देना पड़ता. क्योंकि न तो म.प्र. में और न ही केन्द्र में कभी वामपंथियों की सरकार रही.

यह प्रपत्र व्यक्तिगत पीड़ा का विलाप होने से बच जाता अगर इसमें स्पष्ट तौर पर यह कहा जाता कि हम दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक सोच वाली सरकार का विरोध करते हुए उसके किसी भी उपकार को ग्रहण करने से इनकार करते है. यद्यपि यह सच है, लेकिन यह कहना कि
उनका हिन्दी साहित्य की विशाल परंपरा एवं समकालीन कला-साहित्य से गंभीर परिचय तक नही है, जिनकी हिन्दी साहित्य की समझ स्पष्ट रूप से संदिग्ध है.’…..स्पष्ट रूप से हम लेखकों के दंभ को ही व्यक्त करता है. मानो, हम इन्हीं योग्यताओं के कारण ही पिछली सरकारों से पुरस्कृत होते रहे हैं !!

दरअसल यह प्रपत्र जारी करने की ज़रूरत तब पड़ी जब वामपंथी लेखकों के बीच से ही कुछ लेखक सरकारी कार्यक्रमों में जाने लगे. प्रपत्र जारी होने के बाद इनमें खलबली मचना स्वाभाविक था. अपने हिसाब से इन्होंने सफाइयां भी दीं और प्रतिप्रश्न भी किए. युवा कथाकार चंदन पाण्डेय कहते हैं कि जब तक कोई गलत आदमी/अपराधी का निमंत्रण न हो, तब तक शिरकत हो, बशर्ते आप सामने वाले की नीतियों से सहमत हों.”……यानी चंदन, भारत भवन के संचालकों की नीतियों से सहमत होते हुए ही उनके कार्यक्रमों में शिरकत करते रहे हैं !!
कवि हरिओम राजोरिया मानते हैं कि इस विरोध को लेखक संगठनो की ओर से आना चाहिए था, व्यक्तिगत रूप से नहीं”. हरिओम ने तो राजेश जोशी की एक फोटो ही फेसबुक पर जारी कर दी, जिसमे राजेश जोशी भारत भवन के एक कार्यक्रम में दीप प्रज्ज्वलन करते हुए दिख रहे हैं. मुक्तिबोध का सहारा लेकर राजेश जोशी से पूछा जा रहा है कि पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है”. राजेश जी कह रहे हैं कि साथियो, इन्तज़ार करें और भरोसा भी, हमारा स्टैण्ड स्पष्ट है और हम उस पर कायम हैं”……..शायद सरकार बदलने का इन्तजार है !!

इस अपील के बाद कुछ वरिष्ट लेखकों की प्रतिक्रियायें भी आई हैं. भारत भवन के रचयिता अशोक वाजपेयी, कला-साहित्य केन्द्रों के पराभव को स्वीकार करते हुए, राजनीतिक दृष्टि से इनका विरोध न करने की सलाह देते हैं. दूध से हाल ही में जले मंगलेश डबराल स्पष्ट रूप से समर्थन करते हुए अपने विरोध को राजनीतिक कहते हैं. उनका मानना है कि लेखक को अपने समय की व्यवस्थाओं, सत्ताओं और समाज के साथ अपने संबन्धों को परिभाषित करना होता है. मंगलेश जी भारत भवन जाने से इसलिए इनकार करते हैं कि वह जिन राजनीतिक शक्तियों के अधीन है, उनकी विचारधारा से वो सहमत नहीं हैं.

सुधीश पचौरी कुछ उद्विग्न हैं. वो पूछते हैं कि ये लोग(राजेश जोशी,कुमारअंबुज,नीलेश रघुवंशी) कौन हैं जो मैं इनकी बात मानूं ? इन्हें लेखकों को डिक्टेट करने, और जो असहमत है उसे शर्मिन्दा करने का अधिकार किसने दिया ? जब तक इन लोगों के माफिक चलता रहा, तब तक सब ठीक था. इनके विरोध की अपनी राजनीति है. अगर भारत भवन किसी का उपनिवेश बन गया है, तो ये लोग अपनी कॉलोनी बनायें.........सुधीश जी ऐसे लेखक हैं, जिनकी विचारधारा और पालिटिक्स आज तक हिन्दी संसार के सामने स्पष्ट नहीं हो सकी. इसीलिए वो मुख्यधारा के लेखन में कभी भी स्वीकार नहीं किए जा सके.     

अब चलिए इस खेल को भीतर से देखते हैं. आप देख ही रहे होंगे कि पूरे देश में जितनी भी अकादमियां और कला-संस्थान हैं, उनमें सरकार ने अपने पक्षधर और बहुत औसत किस् के लोगों को बैठा रखा है. फिर ये संस्थाएँ चाहे केन्द्र सरकार की हों या राज्य सरकारों की.यह सब बहुत सुनियोजित तरीके से हुआ है. सरकार इन्हीं लोगों को पुरस्कृत भी करती रहती है. ये मठाधीश आपस में भी एक दूसरे को सम्मानित और उपकृत करते रहते हैं. इस रणनीति से सरकार ने बौद्धिक वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से की मेधा को पहले ही नियंत्रित कर रखा है. जो कुछ लोग सरकार की कृपा से महरूम हैं या कुछ जो अपनी क्षमताओं को सरकार का गुलाम नहीं बनाना चाहते, उन पर सरकार इस तरह के हमले करने लगी है.

एक वाकया मैं आपको म.प्र. का बताता हूं. म.प्र. की साहित्य अकादमी पिछले कई वर्षों से प्रदेश के लगभग सभी शहरों में पाठक मंच चलाती है. उस शहर के किसी उर्जावान साहित्यकर्मी को संयोजक बना दिया जाता है.अकादमी अपनी ओर से 10-12 किताबें चुनकर सभी केन्द्रों में भिजवाती है.शहर के साहित्य प्रेमियों को ये किताबें पढ़ने को दी जाती हैं. हर महीने एक किताब पर सब लोग चर्चा करते हैं. इस चर्चा की समेकित रपट अकादमी के पास भेजी जाती है. दिखने में यह योजना बहुत शानदार लगती है. पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा देने की ऐसी योजना शायद किसी और प्रदेश में नहीं है.
         
लेकिन यहाँ भी सरकार के अपने छल-छद्म हैं. तीन साल पहले तक रीवा-पाठक मंच का संयोजक मैं था.तीन साल पहले अमरकंटक में पाठक मंच संयोजकों का वार्षिक सम्मेलन हुआ. वार्षिक सम्मेलन में प्रदेश-देश के ख्यात साहित्यकारों-विचारकों को बुलाकर विचार-विमर्श की परंपरा है. विडम्बना ये है कि सरकार बदलती है तो विचारक भी बदल जाते हैं और अकादमी का संचालक भी. म.प्र.में भाजपा की सरकार पिछले आठ वर्षों से है. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सम्मेलन में विशेषज्ञ के रूप में किन लोगों को बुलाया गया होगा. इस सम्मेलन के दौरान कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने खुलेआम अकादमी संचालक को सलाह दी कि पाठक मंच के ऐसे संयोजकों को तत्काल हटाया जाय जो प्रगतिशील हैं. और नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों के अन्दर मेरे साथ ही कई संयोजक बदल दिए गये. कुछ पाला बदल कर बच गये. कहीं कोई शोर गुल नहीं हुआ.
            
सरकारों का चरित्र अब कुछ ऐसा हो गया है कि किसी भी आवाज. का उन पर अब कोई असर भी नहीं होता. आपको याद ही होगा केन्द्रीय साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर अशोक चक्रधर की नियुक्ति का कितना विरोध किया था देश भर के साहित्यकारों ने. क्या फर्क पड़ा  ? लेखक-कलाकारों की आवाज़ सुनने की अब आदत ही नहीं रही सरकार को.

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