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Friday, 6 July 2012

वह डरा हुआ है इन दिनों

एक कद्दावर पेड़ है वह
और अपने काठ से डरा हुआ है.
वह एक समुद्र है
उसे पानी से बेहद डर लगता है इन दिनों.
ऊँचाई से डरा हुआ
एक पहाड़ है वो ।

जो चीज़ें जितनी सरल दिखती थीं
शुरू में उसे
वही उसकी सबसे मुश्किल पहेलियाँ हैं अब
जैसे नींद जैसे चिड़ियाँ
जैसे स्त्रियाँ जैसे प्रेम जैसे हँसी ।

जिसकी धार में वह उतर गया था
बिना कुछ सोचे
उस नदी को ही
अब नहीं था उस पर भरोसा ।

जिनका गहना था वो
वही अब परखना चाह रहे थे
उसका खरापन
किसी नयी आग में.
जिन्होंने काजल की तरह
आँजा था बरसों उसे
उन्हें अब
उसके सांवले रंग पर भी था एतराज़ ।

जिनका सपना था वह
वही उसके जीवन में
सबसे निर्दयी सच की तरह आये ।

वह इतना डरा हुआ है इन दिनों
कि अँधेरे में उठकर
अपने ही भीतर
बनाता रहता है एक गुफा ।

वह अपने ही खिलाफ़
कहीं अदृश्य हो जाना चाहता है ।।

---------------------- विमलेन्दु

1 comment:

Onkar said...

wah, is kavita mein aapne kamaal kar diya