उस दिन जब डबलरोटी बेचने वाले ने कहा कि
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए, तो मैं चौंका नहीं. इस देश के धर्म
निरपेक्ष शरीर की किसी धमनी में नरेन्द्र मोदी ग्रुप का खून भी दौड़ रहा है. उसने
कहा कि देख लीजिएगा, मोदी प्रधानमंत्री बन गये तो दो दिन के अंदर पूरा कश्मीर अपना
होगा और सारे कटुए पाकिस्तान भाग जायेंगे.....इधर मैने देखा है कि एक अनपढ़ से
लेकर पढ़े-लिखे लोगों की राय भी कमोबेश इस डबलरोटी वाले जैसी ही है. हाल के
घटनाक्रमों के बाद लोग खुलकर कहने लगे हैं कि भाजपा को चाहे न हो, देश को मोदी की
ज़रूरत है. मोदी भी इस बह रही अन्तर्धारा को भाँप गये हैं, और अपने सारे दाँव-पेंच
उसी के मुताबिक चल रहे हैं.
सवाल यह है कि आखिर इस देश को नरेन्द्र
मोदी क्यों चाहिए ? वो
कौन सी खूबियाँ हैं मोदी की जो बिन किसी तुक के उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए
उछाल रही हैं ? इसी का पूरक प्रश्न
यह है कि वो कौन सी नाकामियाँ हैं हमारे हुक्मरानों की जो मोदी के लिए ज़गह तैयार
कर रही हैं ? क्या पूरे देश का
मानस ही आहिस्ता-आहिस्ता हिन्दूवादी होता जा रहा है ? और सवाल यह भी है कि क्या कभी भी यह देश एक हिन्दू
देश रहा है ?
इन सवालों पर सोचने से पहले हम मोदी की
पार्टी भाजपा पर थोड़ी बात कर लें, क्योंकि मोदी का ज़िक्र भाजपा के बिना पूरा
नहीं होगा , और आगे फिर इस ज़िक्र की गुंजाइश शायद न बने. अपने अन्तर्कलहों, अनिर्णयों
और सत्तालोलुप क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं से जूझ रही भारतीय जनता पार्टी कुछ
वर्षों से सत्ता की दौड़ से बाहर चल रही थी. उनका राम मंदिर का मुद्दा, महगाई और
आर्थिक विषमता के मुद्दे के आगे अविश्वसनीय और अप्रासंगिक हो चुका था. भाजपा देश
की मूलधारा की राजनीति और संघ की हिन्दुत्ववादी राजनीति के बीचों-बीच ऐसे फँसी हुई
है कि वह एक सुसंगठित पार्टी होते हुए भी देश को एक बेहतर शासन दे पाने के लिए
आश्वस्त नहीं करती. अटल बिहारी बाजपेयी के वानप्रस्थ और नब्बे के दशक में चल रहे
आडवानी के गृहस्थ-आश्रम-मोह के चलते पार्टी में कोई नेतृत्व नज़र नहीं आता. आजवानी
की हालत उस जर्जर बुजुर्ग जैसी है, जो घर के एक कोने में खटिया पर पड़ा अब भी खुद
को घर का मालिक समझता है, और उसके बच्चे उसकी उपेक्षा किए जाते हैं.
ऐसे में नरेन्द्र मोदी एक नये तरह का
हिन्दुत्व लेकर आये हैं, जो राम मंदिर से नहीं, बल्कि विकास और समृद्धि से जुड़ता
है. मगर शर्त वही है अब भी—मुसलमानों
का सफाया. संघ का यह सपना भगवान राम तो पूरा नहीं कर पाये. उन्हें तलाश किसी और
देवता की थी. तो इस बार उन्होने देवी लक्ष्मी को पकड़ा है. कहा जा रहा है कि
गुजरात में लक्ष्मी बरस रही हैं. और यह उनके साधक नरेन्द्र मोदी की साधना का फल
है. तो अब नरेन्द्र मोदी संघ के नए क्रान्तिदूत बन गये हैं. संघ ने पूरी भाजपा को
दरकिनार करते हुए मोदी को अगला प्रधानमंत्री घोषित कर दिया है. यह राजनीतिक चूक
संघ हमेशा करता है. पर क्या जनता इस तरह की तानाशाही के लिए तैयार भी है ?
बहरहाल अब लौटते हैं अपने मूल प्रश्नों की ओर. क्यों चाहिए देश को मोदी ? पिछले एक दशक में देश ने कुछ आर्थिक तरक्की ज़रूर की है लेकिन उसकी छवि एक नरम या सच कहें तो डरपोक देश की बनी है. एक के बाद एक हुए आतंकवादी हमले, देश की संसद पर हुआ हमला, कश्मीर और अरुणांचल में पाकिस्तान-चीन का बढ़ता दबदबा, और तो और बंगलादेश और नेपाल का भी गाहे बगाहे आँखें तरेरना---इन घटनाओं पर सरकार के रवैये ने देश की जनता को निराश किया है. एक हद तक शर्मशार भी. हमारा देश इन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार लोगों के प्रति कभी भी असरदार प्रतिरोध नहीं जता पाया. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में हमारी भूमिका लगातार बेअसर होती गई. पाकिस्तान खुलेआम हमें नुकसान पहुँचाता है और हम कहते हैं कि सुधर जाओ वरना नतीज़ा ठीक नहीं होगा !
बहरहाल अब लौटते हैं अपने मूल प्रश्नों की ओर. क्यों चाहिए देश को मोदी ? पिछले एक दशक में देश ने कुछ आर्थिक तरक्की ज़रूर की है लेकिन उसकी छवि एक नरम या सच कहें तो डरपोक देश की बनी है. एक के बाद एक हुए आतंकवादी हमले, देश की संसद पर हुआ हमला, कश्मीर और अरुणांचल में पाकिस्तान-चीन का बढ़ता दबदबा, और तो और बंगलादेश और नेपाल का भी गाहे बगाहे आँखें तरेरना---इन घटनाओं पर सरकार के रवैये ने देश की जनता को निराश किया है. एक हद तक शर्मशार भी. हमारा देश इन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार लोगों के प्रति कभी भी असरदार प्रतिरोध नहीं जता पाया. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में हमारी भूमिका लगातार बेअसर होती गई. पाकिस्तान खुलेआम हमें नुकसान पहुँचाता है और हम कहते हैं कि सुधर जाओ वरना नतीज़ा ठीक नहीं होगा !
तो पाकिस्तान सुधरता नहीं है और देश के
लोग नतीज़ा चाहते हैं. देश में टाटा-अंबानी तो बढ़ रहे हैं पर गरीबी कम नहीं हो
रही है ! इसलिए देश के लोग भारत को गुजरात बनाना चाहते
हैं !! इसलिए देश के लोग
नरेन्द्र मोदी को चाहते हैं.
अदालत से बाइज़्ज़त बरी नरेन्द्र मोदी
को जनता गुजरात में सामूहिक नरसंहार का अपराधी मानती है. 2002 के दंगों में सरकार
ने मुसलमानों के कत्लेआम की छूट दी जिसके प्रमाण यद्यपि किसी भी अदालत के पाल नहीं
हैं, लेकिन गुजरात के कण-कण में मौजूद हैं. ये कहानी शायद वो लोग बता सकेंगे
जिन्हें दंगों के बाद गुजरात सरकार के राहत शिविरों में रखा गया और उसके बाद आज तक
उनका पता नहीं चला. इस बात की तस्दीक चुनाव आयोग ने भी की थी. गुजरात दंगों के बाद
हुए विधानसभा चुनावों के लिए आयोग ने जब मतदाता सूची का नवीनीकरण करवाया तो लाखों
मुसलमान सूची से गायब मिले. इन गायब लोगों का पता आज भी नहीं चल पा रहा है. गुजरात
में आज मुसलमानों की वही स्थिति है जो कश्मीर में पंडितों की है---पराजित,
विस्थापित !
चलिए अदालतों के पास नहीं हैं सबूत.
पीड़ितों का भी कोई अता-पता नहीं. पर उस मीडिया के वो फुटेज कहाँ गये जिनमें
गुजरात के पीड़ितों की सिसकियाँ, उनके यौनांगों से रिसते खून के धब्बे कैद हैं ? आज यही मीडिया मोदी का गुणगान करते थकता
नहीं है. दंगों के बाद हुए चुनावों से ही लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि मोदी
ने मीडिया को खरीद लिया है. मीडिया का तर्क है कि क्या मीडिया के पेट नहीं होता ? उसके बाल-बच्चे नहीं होते ?? किसी और के पास क्षमता हो तो वो खरीद ले
! हम तो बिकने के लिए
तैयार ही बैठे हैं !!
मोदी और मीडिया के हौसले तब और बुलन्द
हो गये जब कुछ समय पहले ‘टाइम’ मैगज़ीन में मोदी पर एक आलेख छप गया,
जिसमें उन्हें एक कुशल राजनीतिक प्रबंधक और दृढ़ इच्छाशक्ति वाला व्यक्ति कहा गया.
इन दोनों ही विशेषणों से हमें कोई आपत्ति नहीं है. ‘टाइम’ द्वारा मोदी की प्रशंसा चौंकाती नहीं
है. हम जानते हैं कि वर्षों भाजपा का आर्थिक और नैतिक पोषण अमेरिका से ही होता रहा
है. यह वही अमेरिका है जिसने एक बार नरेन्द्र मोदी को अपने यहाँ आने के लिए वीज़ा
देने से इन्कार कर दिया था. फिर भी एक हिन्दू राष्ट्र ‘भारत’ , कई मायनों में अमेरिका के लिए ज़्यादा
सुविधाजनक होगा. इसकी चर्चा हम कभी बाद में करेंगे.
मोदी की इन योग्यताओं के अलावा, कुछ और
बातें हैं जो उनके स्वप्न के आड़े आती हैं. दरअसल सरकार किसी एक आदमी के तपोबल से
नहीं चलती है. जैसे मनमोहन सिंह जैसे इमानदार और योग्य व्यक्ति नहीं चला पा रहे
हैं. सरकार एक समूह के प्रयास से चलती है. अब मोदी के साथ के समूह को ज़रा देखिए.
आडवानी, सुषमा, जेटली, वेंकैया नायडू, जयललिता, नीतीश कुमार, चन्द्रबाबू नायडू,
जसवंत सिंह, मुरली मनोहर जोशी----ये सभी पी.एम. इन वेटिन्ग हैं, और नरेन्द्र मोदी
से अग्रिम पंक्ति के नेता हैं. संघ की हज़ार घोषणाओं के बाद भी इनमें से किसी ने
आज तक नहीं कहा कि मोदी प्रधानमंत्री बनें. आप खुद ही सोचिए, इनके रहते क्या मोदी
गुजरात जैसा कथित करिश्मा कर पायेंगे ? मोदी
पर अविश्वास का आलम यह है कि ये नेता अपने प्रदेशों में चुनाव के समय मोदी को
प्रचार के लिए आने से रोक देते हैं. साफ है कि मोदी की साम्प्रदायिक छवि को कहीं न
कहीं उन्हीं के साथी स्वीकार करते हैं. ऐसे में मोदी की राह और कठिन ही दिखती है.
तो अमेरिका भी भारत को एक
हिन्दू-राष्ट्र देखना चाहता है, और संघ-भाजपा-मोदी भी इसे हिन्दू-राष्ट्र बनाकर
इसका गौरव पुनः वापस लाना चाहते हैं. यह गौरव की वापसी का ढोंग ही एक बड़ी समस्या
है. इतिहास को ज़रा गौर से देखें तो समझ में आता है कि भारत कभी भी हिन्दू-राष्ट्र
नहीं रहा. बहुत समय तक तो यह ठीक से एक राष्ट्र भी नहीं रहा. छोट-छोटे राज्यों का
एक समूह था जो तीन तरफ से समुद्र और एक तरफ से पहाड़ से घिरा होने के कारण एक
राष्ट्र का भ्रम पैदा करता था. ये राज्य आपस में लड़ते थे और दूसरे को परास्त करने
के लिए विदेशी हमलावरों को सहायता के लिए आमंत्रित करते थे. महमूद गजनवी और
मोहम्मद गौरी इसी के चलते इस उपमहाद्वीप में घुस पाये.
भारत के एक राष्ट्र की तरह संगठित होने
की शुरुआत हुई थी चन्द्रगुप्त मौर्य के समय. गुप्त वंश में कुछ और मजबूत हुआ.
लेकिन सही तस्वीर बनी मुगलों के शासन काल में ही. जिस भारत को हम आज देख रहे हैं,
उसकी राजनीतिक शक्ल मुगलों ने ही बनाई. उसके बाद अँग्रेज आ गये. कोई भी हिन्दू
राजा, पूरे भारत का राजा कभी नहीं रहा. फिर यह हिन्दू-राष्ट्र कैसे हुआ और क्यों
होना चाहिए ? और फिर हिन्दू भी
कहाँ थे पहले ? द्रविण और आर्य थे.
आर्य भी बाहर से ही आये इस देश में. ये सब जो इस देश को हिन्दू-राष्ट्र बनाने का
सपना देख रहे हैं, मूलतः आर्य ही हैं, जो खुद कहीं बाहर से आये हैं. फिर क्या
औचित्य है इस बेमतलब की फसाद का ?
मोदी आयें. सम्भालें देश की बागडोर अगर क्षमता है तो. लेकिन मुसलमानों की लाशों और हिन्दुओं के कंधों पर सवार होकर न आयें. उन्हें आना है तो लोकतांत्रिक परंपरा से आयें. मीडिया की वैन में चढ़कर न आयें. पहले गुजरात के विस्थापितों को लोटाएँ, उसके बाद भारत के गौरव को लौटाने की फिक्र करें ।
मोदी आयें. सम्भालें देश की बागडोर अगर क्षमता है तो. लेकिन मुसलमानों की लाशों और हिन्दुओं के कंधों पर सवार होकर न आयें. उन्हें आना है तो लोकतांत्रिक परंपरा से आयें. मीडिया की वैन में चढ़कर न आयें. पहले गुजरात के विस्थापितों को लोटाएँ, उसके बाद भारत के गौरव को लौटाने की फिक्र करें ।
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