नींद का ख़याल था
और सपनों की ज़गह पर
कुछ सचमुच के डर थे ।
नींद आने के ख़याल में
रात का सन्नाटा था
जिसमें मैं
एक सुनसान सड़क के ख़याल में
घर से निकल गया जैसे निकला था ।
मेरे एक हाथ की उँगलियाँ
मेरे होठों से लगी थीं
और दूसरा हाथ
ज़ेब में रखी चाभियों पर था.
हालाँकि मैं न तो सिगरेट पीता हूँ
और ताला भी नहीं लगाया था घर में ।
जिस बायीं कलाई को
मैं बीच बीच में देख लेता था
उस पर घड़ी बाँधना
जानबूझ कर भूल गया था ।
घर से निकलते वक्त
समय से बाहर निकलने का ख़याल था ।
मैं जिस सड़क पर
जाने के ख़याल में था
वह समय के बाहर थी
और मेरे पास
किसी दोस्त का फोन नम्बर भी नहीं था ।
लेकिन सड़क
समय के इतने
समानान्तर जा रही थी
कि समय के अन्दर के एक घर से
सुनाई पड़ रही थी
दबाकर निकाली गई एक कराह
एक बूढ़ा
एकदम समय की कगार पर
कुछ ऐसे खाँस रहा था
जैसे वो प्रक्षेपित हो जाना चाहता हो
समय से बाहर ।
घर के अन्दर
एक नौजवान
इधर उधर बिखरी किताबों के बीच
अधेड़ हो रहा था ।
उम्र बढ़ना
जीवन बढ़ना नहीं होता होगा
कि उम्र
समय के भीतर बढ़ती होगी ।
जीवन बढ़ने के लिए
समय का अतिक्रमण करना होता होगा
समय से बाहर जाना
समय का अतिक्रमण नहीं होता ।
तो इस वक्त मैं
अतिक्रमण के ख़याल में
समय से बाहर था ।
मैं समय से बाहर की सड़क पर
बायीं ओर चल रहा था ।।
1 comment:
इसे पढ़कर एक ईरानी कवि की कविता की याद बरबस ही हो आई
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