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Friday, 19 April 2013

लघुकथाः "परस्पर"




उसने कहाः  मैं सोचती हूँ कि दुनिया में तमाम लोगों के लिए दुनियादारी निभाने के लिए
               कुछ न कुछ करना पड़ता है, पर तुम्हारी तरफ से निश्चिन्त रहती हूँ
               कि तुम्हारे लिए कुछ न भी करूँ तो कोई हर्ज़ नहीं !

इसने कहाः और मैं सोचता हूँ कि दुनिया के तमाम लोगों की चिन्ता तुम्हें रहती है. 
               लेकिन मेरा--जो तुम्हें सबसे अधिक प्यारा है--ही खयाल रखने में तुम लापरवाही क्यों
               करती हो !!

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