कौन भूल सकता है मो. रफी को ! भले ही उनको हमसे
जुदा हुए तैंतीस साल हो गए हों, पर एक लम्हे को भी कभी महसूस हुआ क्या कि वो अब
हमारे बीच नहीं हैं !! ताज़ा और महकते फूलों की तरह रफी की आवाज़ आज भी वैसी ही है, जैसे कभी रफी
के होने पर थी.
24 सितंबर 1924 को कोटला सुल्तानपुर में
जन्मा था संगीत का यह कोहिनूर. पंजाब की माटी का कुछ असर रहा होगा कि बचपन से ही
गाने की लत लग गई. ये लत लगाई थी एक भिखारी ने. भिखारी जब भी रफी के घर के पास से
गाते हुए गुजरता, वे उसका गाना सुनते हुए उसके पीछे पीछे दूर तक निकल जाते. और खुद
भी उसके गानों को गाते. पिता हाज़ी अली मोहम्मद को गाना-बजाना पसन्द नहीं था इसलिए
वो रफी को इस दिशा में नहीं जाने देना चाहते थे. ऐसे में बड़े भाई मोहम्मद शफी
फरिश्ता बनकर आए. रफी की काबिलियत को उन्होने समझा. पिता जी को मनाया और रफी को
बड़े गुलाम अली खां के भाई बरकत अली खां साहब के पास ले गए. यहीं उनकी संगीत की
तालीम शुरू हुई. बाद में वाहिद खां साहब की शागिर्दी में रफी ने अपने हुनर को और
धार दी. इस बीच 13 साल की उमर में ही रफी ने लाहौर रेडियो पर गाना शुरू कर दिया
था.
रफी की गायकी को उफान मिला एक खूबसूरत
संयोग से. ये 1938 की बात है. प्यारेलाल सूद की देखरेख में एक गायन समारोह हुआ. इस
समारोह में उस ज़माने के स्वर-सम्राट माने जाने वाले कुंदनलाल सहगल गाने वाले थे.
उन्हें आने में देर हो गई तो श्रोता बेसब्र होने लगे. भगदड़ मचने लगी. आयोजक
परेशान हो गये. तब रफी के चाचा ने रफी को स्टेज पर खड़ा कर दिया कि कुछ मन बहलाने
के लिए गा दो. बिना माइक के ही रफी ने गाना शुरू किया. पंजाबी गीत था. गाना खतम
होते-होते सहगल साहब भी आ गए. उन्होने देखा कि हाल में रफी के लिए तालियां गूँज
रही है. सहगल ने रफी को आशीर्वाद दिया कि एक दिन तुम बहुत बड़े गायक बनोगे, खूब
नाम कमाओगे. सहगल का आशीष फलित हुआ और भारतीय संगीत को मो. रफी मिले.
तो, 1944 में रफी का हिन्दी फिल्मी गीतों का
सफर शुरू ही हो गया. इसी साल “गाँव की गोरी” के लिए उन्होंने
पहला हिन्दी गीत गाया. बाद में उन्होने ‘पहले आप’ फिल्म में भी गाया. लेकिन यह फिल्म ठीक ठंग से न चल सकी
और न संगीत चला. एक वजह यह भी थी कि इसी फिल्म के साथ ‘रतन’ भी प्रदर्शित
हुई, जिसमें नौशाद ने उ.प्र. की लोक-धुनों के सहारे धूम मचा दी थी. इस दरम्यान रफी
कव्वालियों और कोरस में गुम रहे. तब रफी को सहारा मिला 1946 में बनी फिल्मिस्तान
की ‘सफर’ से. संगीतकार सी.रामचन्द्र ने रफी की आवाज़ नायक कानू राय के लिए इस्तेमाल
की. “कह के भी न आए तुम, अब छुपने लगे तारे”….बेहद सीधे लहजे में गाये
गए इस गीत ने रफी को पहली कामयाबी दिलाई. इसी फिल्म का एक दोगाना भी खूब मशहूर
हुआ.
‘साजन’ में सी.रामचन्द्र ने फिर रफी को याद किया. हालांकि तब नायक अशोक कुमार
अपने गाने खुद गाते थे लेकिन एक गाना था.... “तुम हमारे हो न हो, हमको
तुम्हारा ही आसरा”……इसमें ललिता देउलकर की आवाज़ के सामने अशोक कुमार की आवाज़ ठहर नहीं पा रही
थी. तब ललिता के साथ रफी ने यह गाना गाया. यह गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग रफी के
बारे में जानने को उत्सुक हो उठे.
लगभग चालीस
साल के सफर में एक सदाबहार नाम है ‘जुगनू’. यह फिल्म 1947 की
शुरुआत में आई थी. इस फिल्म से इतिहास की कई बातें जुड़ी हैं. इसी फिल्म से दिलीप
कुमार की पहचान बनी, और इसी फिल्म से गायक मो.रफी भी पहचाने गये. रफी ने अपने लिए
भी गाया और दिलीप कुमार के लिए भी. वे गाने के साथ-साथ परदे पर भी थे. “यहाँ बदला वफा का
बेवफाई के सिवा क्या है....”....इस गीत में रफी, नूरजहाँ से बीस साबित हुए और उनका
सिक्का जम गया.
नौशाद के साथ रफी की जोड़ी खूब जमी. नौशाद
शास्त्रीय और लोकधुनों को मिलाकर फिल्म संगीत में मधुर प्रयोग कर रहे थे. लोक
धुनों के अनुकूल उन्होने रफी की रेन्ज का बहुत खूबसूरत इस्तेमाल किया. ‘मेला’, ‘दिल्लगी’, ‘दुलारी’ आदि फिल्मों से
रफी बुलंदी पर पहुँच गये. नौशाद के संगीत में आई फिल्म ‘दीदार’(1951), रफी के
लिए एक नया युग लेकर आई. “हुए हम जिनके लिए बर्बाद...”, “मेरी कहानी भूलने वाले...”, “देख लिया मैने,
किस्मत का तमाशा देख लिया...”…….इन गानों से रफी के सुरों का जादू सर चढ़ के
बोलने लगा. इसके बाद अगले कई दशकों तक नौशाद की धुनें, शकील बदायूँनी के बोल और
रफी के सुर, फिल्म संगीत के खजाने को अनमोल नगमों से भरते रहे. ‘अमर’, ‘आन’ और ‘बैजू बावरा’ अमर कृतियां मानी
जाती हैं. राग मालकौंस में निबद्ध “मन तरसत हरि दर्शन को आज...”, “तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा....” जैसे गीतों नें रफी को सबकी जुबान पर पहुँचा दिया. हर संगीतकार उनकी तरफ
भाग रहा था. और पूरे आठ साल बाद रफी एक पूर्ण सितारे के रूप में उदित हो चुके थे.
वो क्या बात थी जो रफी को कमाल का गायक बनाती
थी ? सबसे पहले तो उनकी
सौम्यता...जो अहंकार-शून्यता से निकल कर आती थी. फिर संघर्ष करने का हौसला...और
उसके बाद वो कंठ जो सिर्फ उन्हीं के पास था.....यह गला कुछ रियाज़ से मिला था, और
कुछ प्रकृति से. उस ज़माने में एक भी ऐसा गायक नहीं था जो इतने ऊपर के स्वरों में
जाने का हौसला करता. इसीलिए लोक की धुनें उपेक्षित थीं. रफी जब आये तो पंजाब का
श्रम और दर्द लेकर आये. पंच-नदियों की रवानी लेकर आये. हीर की पीर लेकर आये. उनके
आने से कुछ हथौड़ेबाज़ जौहरी बन गये...कुछ पत्थर हीरे जैसे चमकने लगे...रफी के
होने के बाद ही मिठास को उसका शिखर मिला....रफी के होने से ही दर्द भी पिघलने वाली
चीज़ हुआ.....और रफी के जाने के बाद से ही दर्द हमारा साथी हुआ.
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