Pages

Wednesday, 29 January 2014

मैं डरता हूँ/अफ़ज़ाल अहमद

मशहूर पाकिस्तानी शायर अफ़ज़ाल अहमद सैय्यद की एक बेहतरीन कविता ।
कवि चीज़ों को उनके खुरदुरेपन और उनकी पूरी तल्ख़ी में देखना चाहता है । यथार्थ को रूमानियत का परदा ओढ़ा देना उसे मंज़ूर नहीं । वह ख़ुदा को भी ज़मीन पर देखना चाहता है और माशूक को भी । दरअसल वह डर नहीं रहा है
; हकीक़त को खुशनुमा दिखाने की राजनीति का प्रतिरोध कर रहा है ।
******

मैं डरता हूँ
अपनी पास की चीज़ों को
छूकर शायरी बना देने से

रोटी को मैने छुआ
और भूख शायरी बन गयी
उंगली चाकू से कट गयी
खून शायरी बन गया
गिलास हाथ से गिर कर टूट गया
और बहुत सी नज़्में बन गयीं

मैं डरता हूँ
अपने से थोड़ी दूर की चीज़ों को
देखकर शायरी बना देने से
दरख्त को मैने देखा
और छाँव शायरी बन गयी
छत से मैने झाँका
और सीढ़ियाँ शायरी बन गयीं

इबादतखाने पर मैने निगाह डाली
और ख़ुदा शायरी बन गया
मैं डरता हूँ 
अपने से दूर की चीज़ों को सोचकर 
शायरी बना देने से


मैं डरता हूँ
तुम्हें सोचकर
देखकर
छूकर शायरी बना देने से ।


No comments: