ऐसे तो
समय रुकता नहीं कभी
पर उसकी धार के किनारे
हमारा कोई क्षण
ठिठका रह जाता है सालों साल।
दीवार और कलाइयों पर
निशान छोड़ती
घड़ी की सूइयाँ घूमती रहती हैं
और हमारा
छः बजकर तीस मिनट
वहीं खड़ा रहता है अवाक्
ठंड की शाम में भी
माथे पर उभर आये
पसीने की एक परत लिए।
कैलेण्डर बदलता रहता है शताब्दियाँ
लेकिन
अक्टूबर, सत्तान्नवे की
सत्रह तारीख पर
लगाए गए गोले को
नहीं मिटा पाया वह किसी जतन।
सूर्य घूमा
पृथ्वी ने लगाए चक्कर
चन्द्रमा ने बदलीं कलाएँ
हवाएँ, ऋतुएँ बदलती रहीं
और हमारा कोई एक क्षण
हो गया इन सबसे बैरागी।
सूर्य पृथ्वी और चन्द्रमा से
छुपी रह जाती हैं
क्षणों में घटने वाली
खगोलीय घटनाएँ
स्थिर में आने वाले भूकम्प
चरखा चलाने वाली बुढ़िया का रहस्य
और दो खरगोशों की कहानी।
ऋतुओं की खुर्दबीन से
ओझल ही रहता है
हमारे उस क्षण का मौसम विज्ञान।
यह गति में
स्थिरता का सौन्दर्य है
ध्वनि में मौन का नाद
और जीवन के नृत्य में
मृत्यु का स्थायी।
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