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Tuesday 10 June 2014

जीवन के उत्तरार्ध में

यूँ तो कुछ सीखना

उतना आसान नहीं होता अब

फिर भी मैं
कुछ प्रयत्न करता हूँ
जीवन के उत्तरार्ध में।

असंभव वानप्रस्थ के बीच
मैं एक ऐसा गृहस्थ
बने रहना चाहता हूँ
जो नहीं हुआ किसी हादसे का शिकार
और बचा ले गया पुरखों की पगड़ी।

इसी अवधि में
मैं सीख लेना चाहता हूँ
सीली तीलियों से आग सुलगाना
और राख के ढेर में उसे बचाये रखना
और गठानें खोलने जैसे मामूली काम।

मैं चाहता हूँ
कि निकलूँ जब बाज़ार की तरफ
तो चौंधिआया न करें आँखें
और बचा रहे
दोबारा वहाँ आने का हौसला।

मेरा मन है
कि अब भी सुनाई पड़ें मुझे
चिड़ियों के गीत
और उन्हें मैं
चीखों के अंतराल में
गुनगुना भी लूँ।

लंबी यात्राएँ अब मुमकिन भी नहीं
और ज़रूरी भी
लेकिन कुछ बची रह गई दूरियों को
चल लेने की बेचैनी
खाये जाती है दिन रात।
मैं भटक कर भी
कुछ ऐसे रास्ते खोजना चाहता हूँ
जो इन दूरियों की ओर जाते हैं।

ऐसे तो कोई शौक बचे नहीं अब
और नींद भी
आती नहीं उतने भरोसे की
फिर भी कुछ एक
टूटे फूटे सपनों में
मैं नाव चलाते देखता हूँ खुद को
मेरे साथ एक परछाईं होती है
दोनों जन बैठे हैं
एक एक किनारे पर।

सच पूछिए तो अब
निकालते निकालते चक्रविधि ब्याज
परीकथाएँ लिखने का होता है मन
कि कुछ तो ऐसा छोड़ सकूँ
जिन्हें बच्चे छोड़ सकें
अपने बच्चों के लिए।

जाने कौन यक्ष
रोज़ पूछता है मुझसे प्रश्न
और यह जानते हुए
कि युधिष्ठिर नहीं हूँ मैं
उनके उत्तर खोजना चाहता हूँ
जीवन के उत्तरार्ध में।
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