ऐसा लगता है कि हिन्दी साहित्य की सल्तनत में, 'बनारस-मण्डली' को 'बिहार-मण्डली' प्रतिस्थापित कर रही है। दिल्ली पर भी बिहार मण्डली का प्रभाव ज़्यादा दिखता है।
कई दशकों तक हिन्दी में बनारस मण्डली का दबदबा रहा है। एक से बढ़कर एक तेजस्वी लेखकों ने हिन्दी की विभिन्न धाराओं को काशी की धारा का पर्याय बना दिया। बिहार में भी शूरवीरों की कतई कमी नहीं थी लेकिन न्यायाधीश की गद्दी बनारस मण्डली के पास ही रहती आई है।
यद्यपि प्रखरता और संवेदना में दोनों मंडलियां एक सी हैं। अपनी जातीय अस्मिता, भाषाई गौरव और देशज संवेदनाओं को, दोनों ही साहित्यिक और कलात्मक रूपाकार देते रहे हैं। अपनी बोलियों और लोकरीतियों को वैश्विक पहचान और सम्मान दिलाया। अड़ना और लड़ना, दोनों मण्डलियों का स्वभाव है। इसके साथ ही बनारस मण्डली और बिहार मण्डली(खासतौर से पटना) के बीच एक प्रतिस्पर्धा हमेशा दिखती रही।
बनारस मण्डली के वर्चस्व का कारण भी था। उन्होंने अपने आपको समकाल के साथ ही विपुल भारतीय मनीषा से जोड़ा। संस्कृत और अपभ्रंस साहित्य को अपना प्रस्थान विन्दु बनाया। इसीलिए शास्त्रार्थ में वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे निकलते दिखते रहे।
बिहार मण्डली के पास अपने समकाल से संघर्ष के साथ साथ भविष्य के स्वप्न थे। उनके साहित्य में चिंतन की प्राचीन धारा कम ही दिखती है। यद्यपि भाषा और रूप सौष्ठव उनका भी बनारस मण्डली जैसा ही है।
बनारस मण्डली के अधिकाँश योद्धा अब वानप्रस्थ या सन्यास आश्रम की ओर बढ़ चले हैं। नये लोगों में वह तेजस्विता दिखाई भी नहीं पड़ती। पुराने सारे आचार्य दिल्ली में बस कर विगत हो रहे हैं। कोई रहनुमा भी न बचा ।
दूसरी ओर, बिहार मण्डली ने अपने संघर्षों से एक अकाट्य चातुर्य अर्जित कर लिया। उनकी क्षेत्रीयता और एकजुटता अखण्ड है। उनकी दृष्टि दूर तक जाती है। दृष्टिकोण सदैव स्वहित पर अवस्थित रहता है। उन्होंने बाज़ार के आग्रहों को भी बेहतर समझा है। वे हमेशा आक्रमण की मुद्रा में रहते हैं।
इसीलिए हिन्दी की दिल्ली, अब बिहार मण्डली के हाथ में जाने को है।
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