महाप्राण निराला की कालजयी रचना.प्रसंग है राम की रावण के हाथों पराजय जनित निराशा,आत्म निरीतक्षण,प्रेरणा,शक्ति की नई मौलिक कल्पना,तमाम विघ्न-बाघाओं के बीच तप और अंत में शक्ति का नवोन्मेष...8-8 मात्राओं के तीन चरणो वाले छंद में लिखी िस कविता में 24 वर्णों के वैदिक गायत्री छंद गरिमा और औदात्य है.युद्ध के कोलाहल और घात-प्रतिघात के क्षणों को कवि ने महाप्रण और अर्ध स्वरों के प्रयोग द्वारा बखूबी सँजोया है----
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर ।
आज का तीक्ष्ण शरविधृतक्षिप्रकर, वेगप्रखर,
शतशेल संवरणशील, नील नभगर्जित स्वर ।
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह भेद कौशल समूह,
राक्षस विरुद्ध प्रत्यूह, क्रुद्ध कपि विषम हूह।
विच्छुरित वह्नि राजीवनयन हतलक्ष्य बाण,
लोहित लोचन रावण मदमोचन महीयान ।
राघव लाघव रावण वारणगत युग्म प्रहर ,
उद्धत लंकापति मर्दित कपि दलबल विस्तर ।
अनिमेष राम विश्वजितदिव्य शरभंग भाव ,
विद्धांगबद्ध कोदण्ड मुष्टि खर रुधिर स्त्राव ।
रावण प्रहार दुर्वार विकल वानर दलबल ,
मुर्छित सुग्रीवानंद भीषण गवाक्ष गय नल ।
वारित सौमित्र भल्लपति अगणित मल्लरोध
गर्जित प्रलयाब्धि क्षुब्ध हनुमत् केवल प्रबोध ।
उद्गीरित वह्नि भीम पर्वत कपि चतु:प्रहर ,
जानकी भीरु उर आशा भर, रावण सम्वर ।
लौटे युग दल, राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार बार आकाश विकल ।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज पति चरणचिन्ह,
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न ।।
No comments:
Post a Comment