Pages

Wednesday, 2 November 2011

संगतकोण

 यह बात दरअसल  
एक सपाट गद्य की तरह थी
जिसमें कविता ढूढ़ने की
मुझे एक रोमैन्टिक ज़िद थी.

मैं उस लड़के की बात कर रहा हूँ
जो अपंग था
और कक्षा दस की परीक्षा में 
गणित का प्रश्न-पत्र हल कर रहा था.

यहाँ कविता की बात मैं सोचता भी नहीं
अगर वह लड़की वहाँ पर न होती
जो उस लड़के द्वारा बताये गये हल को
उत्तर पुस्तिका में लिखने की व्यवस्था 
के तहत थी.

हां, वह एक उत्फुल्ल किशोरी थी
और यह किशोर !
दुनिया की उस बिरादरी से था
जिनके जीवन में
रोमांस की गुंजाइश ज़रा कम ही होती है.

लड़के के अस्पष्ट शब्दों को भाँपती हुई
वह उत्तर पुस्तिका में
खींच रही थी एक वृत्त--
जिसकी तृज्या
उनके बीच की दूरी के बराबर थी.

क्या उसे पता होगा
कि अभी अभी
जिस राशि का उसने वर्ग किया है
उसका मान कितने गुना बढ़ गया अब ?

ये दोनो
भविष्य के स्त्री-पुरुष थे
दो समान्तर रेखाओं की तरह..

कि इन्हें
कोई तिर्यक रेखा काट भर दे
तो संगत कोण बराबर हो जायें.

                              --विमलेन्दु

2 comments:

Onkar said...

वाह, क्या बात है! कैसे सोचा आपने इतना गहरा?

Kanchan Lata Jaiswal said...

ki koi tiryak rekha kat bhar de to sangat kon brabar ho jaye.................... bhut khub .