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Thursday, 10 November 2011

तुम्हारी थोड़ी सी अनुपस्थिति में


कहां हो तुम !  
अपनी थोड़ी सी अनुपस्थिति में
बहुत सा उपस्थित होकर
प्रतीक्षा का यह कैसा संसार रच दिया है तुमने.

तुम्हारी अनुपस्थिति की इस उपस्थिति में
तुम्हारी आवाज़ की ज़गह पर
आवाज़ की खाली ज़गह है.

जहाँ तुम्हारी हँसी हुआ करती थी
उसे हँसी की खाली ज़गह ने भर लिया है.
जिस ज़गह तुम्हारी देह थी
वहाँ देह का रिक्त स्थान भर गया है.

पता है, 
जहाँ हम झगड़े थे
वहाँ अब
झगड़ने की खाली ज़गह भर गयी है.

तुम्हें अगर झूठ लग रहा हो
तो इन सूरज चाँद रात और सुबह से
पूछ लो
जिन्हें मेरे साथ
अकेला छोड़ गयी थीं तुम.

सुनो !
तुम्हारे थोड़े से जाने की ज़गह में
तुम्हारे बहुत से आने की ज़गह बाकी है
जहाँ मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ.

                               --विमलेन्दु

4 comments:

Onkar said...

बहुत गहरा विश्लेषण

Aparna Bhagwat. said...

Bahut hi sundar abhivyakti!

Aparna Bhagwat. said...

Bahut hi sundar abhivyakti!

***Punam*** said...

बहुत खूब विमलेन्दु...

तुम्हारे थोड़े से जाने की ज़गह में
तुम्हारे बहुत से आने की ज़गह बाकी है
जहाँ मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ.