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Sunday 26 June 2011

विक्रम-बेताल : आचार्य वनस्पती सिंह और काशी की गुरु-शिष्य परंपरा

अपनी आदत से मज़बूर राजा विक्रम, बेताल को लेने श्मशान पहुँच गया लेकिन बेताल उसे दिखा नहीं...उस समय बेताल कुछ चुड़ैलों के साथ आइस-पाइस खेल रहा था.

विक्रम ने इधर-उधर देखकर आवाज़ लगाई.बेताल हाँफता हुआ आया और विक्रम की गर्दन से झूल गया.


विक्रम, बेताल को लेकर चल पड़ा.बेताल ने कहानी शुरू की-----------

सुन राजन ! आज तुझे आचार्य वनस्पती सिंह और उनके शिष्य हरित क्रांति की कथा सुनाता हूँ......पादप विज्ञान के आचार्य, वनस्पती सिंह काशी के रहने वाले थे. संभवतः उनके माता-पिता ने उनका नाम वंशपति सिंह रखा होगा, लेकिन काशी की परंपरा में वो वनस्पती सिंह हो गया होगा और वही रह गया. काशी में ही शिक्षा-दीक्षा लेने के उपरांत वे अपनी प्रथम नियुक्ति में, रेवाखण्ड के विश्वविद्यालय में पादप विज्ञान के आचार्य बनकर आये. साथ में उनकी भार्या पुष्पलता और दो बच्चे-अश्वगंध और घृतकुमारी भी आये.
विवि मे पादप विज्ञान का विभाग नया था, वनस्पती सिंह इकलौते आचार्य थे. अतः आते ही स्वाभाविक रूप से विभागाध्यक्ष का पद सुशोभित करने लगे.
विभाग का दायित्व सम्भालते ही उन्हे एक विलक्षण प्रतिभा वाला शिष्य मिल गया. उसका नाम था- हरित क्रांति. उसके कवि-शिक्षक पिता ने अपनी कल्पना के सर्वोच्च शिखर पर जाकर यह नाम रखा था. पाँच भाई-बहनों में यह सबसे छोटा, किन्तु पिता के सपनों में सबसे बड़ा सपना था.
आचार्य जी ने दो-चार दिन में ही उसकी प्रतिभा को पहचान लिया था. विभाग के अलावा उसे अपने घर में भी दीक्षा देने लगे. न केवल आचार्य जी ही उसे दीक्षित कर रहे थे,बल्कि गुरु माता भी उसे आटा गूंथने,सब्जी काटने,वस्त्रादि पछारने जैसे गृहकार्यों मे प्रवीण कर रही थीं.----आचार्य जी इसे काशी की गुरु-शिष्य परंपरा कहते थे जिसका इस रेवाखण्ड में नितान्त अभाव था.
राजन ! सायंकालीन बेला में जब आचार्य जी मदिरापान के लिए अवस्थित होते तो शिष्य हरितक्रांति शीतल जल और लवण इत्यादि की व्यवस्था किया करता. यही वह समय होता था जब आचार्य वनस्पती सिंह, शिष्य हरितक्रांति को अपनी मौलिक उद्भावनाओं से शिक्षित करते थे....उनकी मौलिक खोज के मुताबिक , पेड़-पौधे भी संसर्ग किया करते हैं. पेड़-पौधे उभयलिंगी होते हैं. वर्ष में दो बार,एक निशचित समय पर उनकी दो शाखाएँ ( जिनमें विपरीत लिंग होते हैं ) आपस में कुछ दिनों के लिए जुड़ जाती हैं.यही उनका रति-काल होता है.

शिष्य हरितक्रांति इसी तरह के अनेक दिव्य उद्घाटनों से अचम्भित,स्तम्भित और गदगद हो उठता. साथ में उसकी अपनी प्रखर मेधा तो ही. सो वह पादप-विज्ञान विभाग में इतना लोकप्रिय हुआ कि कक्षा की एकमात्र कोमल-कांत-पदावली उस पर मोहित हो उठी.
आचार्य वनस्पती सिंह को यह ताड़ने में तनिक भी देर न लगी, क्योंकि वह तरुणी खुद उनके भी संचारी भावों का आलंबन थी.

एक दिन मदिरा की चतुर्थ आवृत्ति के बाद आचार्य जी ने शिष्य से कहा--" बालक, हमारी काशी में एक परंपरा यह भी है कि यदि शिष्य को कोई दुर्लभ फल प्राप्त हो जाये, तो वह उसे सर्वप्रथम अपने गुरु को अर्पित कर उनसे जूठा करवाता है. तभी उस फल का सम्पूर्ण लाभ उसे मिलता है."
हरितक्रांति मर्मान्तक पीड़ा के साथ कराहा---" गुरुवर आप कैसी बात कर रहे हैं, वह मेरी प्रीति है. हम दोनो ने विवाह करने का प्रण किया है."

इस गटना के बाद हरितक्रांति आचार्य जी से कटा-सा रहने लगा.उनके घर जाना तो बिल्कुल ही बंद हो गया. कुछ महीनों बाद उसकी स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी पूरी हो गई.M.Sc. और ढाई आखर-दोनो ही पाठ्यक्रमो में वह विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण हो गया. पिताजी का सपना उसे कॅालेज में प्राध्यापक बनाने का था,जिसके लिए Ph.d. की उपाधि आवश्यक थी. इसके लिए उसे फिर आचार्य जी की शरण में जाना था....वह गया...आचार्य जी ने क्षमा की मुद्रा में उसका स्वागत करते हुए शोध-निदेशक बनना स्वीकार कर लिया.

जिस दिन उसके शोध कार्य को अनुमति देने की बैठक विवि में होनी थी, गुरुमाता ने हरितक्रांति से अपनी एक इच्छा व्यक्त की. उन्हें लेब्राडोर नस्ल के पिल्लों का एक जोड़ा पालना था. हरितक्रांति उस दिन उत्साह में था. उसने पिल्लों का जोड़ा देने का वचन गुरुमाता को दे दिया. इस वचन के साथ ही उसके शोध कार्य का शुभारंभ निर्विघ्न हो गया.पिल्लों का जोड़ा 45 हज़ार रु. में मिला. शिक्षक-पिता ने, प्राध्यापक-सपने के लिए ये पैसे दिये.

राजन ! पिल्लों के साथ-साथ हरितक्रांति का शोधकार्य भी बढ़ता गया. तीन साल की अथक मेहनत के बाद आखिर वह घड़ी आ गई जब शोध-ग्रंथ पर आचार्य जी को हस्ताक्षर करना था....हरितक्रांति इस अवसर के लिए चांदी की कलम लेकर आया था आचार्य जी के लिए.....आचार्य जी मुसकाए...शोध-ग्रंथ को एक किनारे रखते हुए कहा----" तुम्हारी प्रेमिका कैसी है ? तुम्हें काशी की परंपरा याद है न ?? "

उसके बाद की कथा यह है कि हरितक्रांति का शोध-ग्रंथ तीन बार रिजेक्ट हुआ....और दो वर्ष बाद हरितक्रांति का शव नवनिर्मित वाणसागर बांध की एक नहर में पाया गया.

कहानी खत्म कर बेताल ने प्रश्न किया----" अब तू बता राजन, हरितक्रांति की मृत्यु का कारण क्या था--काशी की परंपरा या शिक्षक-पिता का प्राध्यापक-सपना ??? "

Saturday 18 June 2011

सृष्टि का पहला दिन

यह दिन
सृष्टि का पहला दिन था.


रची जानी थी इतनी बड़ी दुनिया
और हमारे पास कोई औजार न थे.

हमने सागर मे उतार दी थी अपनी नाव
हमारे हाथों मे पतवार भी न थी.

हमे रचना था समय
पर उसकी गति पर हम नियंत्रण नहीं कर सकते थे.

मेरे जीवन के रेगिस्तान मे
एक नदी की तरह आयीं थीं तुम
और मेरी पूरी रेत को
प्रेम मे बदल दिया था.

यदा कदा ही धर्मस्य : निशाने पर तीर


अर्जुन उवाच : योगेश्वर ! आप 16 हजार पटरानियों और इतनी सारी गोपियों को कैसे मैनेज कर लेते हैं? मैं तो 5 किलो बताशे मे बरगद का दूध डाल के खा गया, पर कुछ नहीं भया ! सुभद्रा तो फिर भी समझदार है, लेकिन पांचाली बड़ा 'इनफीरियारिटी' देती है माधव ! मेरा तीर निशाने पर लगता ही नहीं !!
श्री कृष्ण: हे पार्थ ! तुमने पहली बार मेरे 'फील्ड' का प्रश्न किया है. मुझे इसी विषय मे 'वाचस्पति' की उपाधि मिली थी.......
..बड़ा ही समीचीन प्रश्न हैतुम्हारा....इस युद्ध के बाद तुम्हारे बंधु-बान्धवों की सारी पटरानियों की ज़िम्मेदारी तुम्हारे ही 'अंग-विशेष' पर होगी...इसलिए बाकी सभी धर्मों का परित्याग करके मेरी बात सुनो------
ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर एनीमा लगाओ और उसके बाद सात सिंघाड़े गुड़ के साथ खाओ. तत्पश्चात, वज्रासन में बैठकर त्रिबंध लगाओ.पांच मिनट तक....ध्यान रहे,इस स्थिति में सांस को बाहर की तरफ फेंकना है....इसके बाद ' पेल्विक-लिफ्ट ' करके शवासन कर लेना....फिर रात में शेर की तरह भोंकना..सॅारी..दहाड़ना...!

शिखर की चिन्ता..

अगर आप अपने अंतरंग संबंधों मं शिखर को प्राप्त कर पाने में असफल भी हो जा रहे हैं तो चिन्ता मत करिये...यात्रा भी उतनी ही सुखदायी हो सकती है जितनी मंज़िल...कभी-कभी तो इससे भी अधिक....बस आपमें चलने का सलीका और शऊर होना चाहिए !

Tuesday 14 June 2011

विक्रम-बेताल : विभागाध्यक्ष की कार्पेट पर अमीबा..!


हमेशा की तरह राजा विक्रमादित्य बेताल को लेकर चले तो शर्त के मुताबिक बेताल ने कहानी शुरू की--------

राजन, विश्वविद्यालय के अँग्रेजी के विभागाध्यक्ष प्रो.मिश्रा कई दिनो से परेशान थे...उनके साथ एक विचित्र किन्तु सत्य टाइप की घटना हो रही थी कई दिनों से ,जिसे वो किसी से कह नहीं पा रहे थे......

कोई उनके चेम्बर में, फर्श पर बिछी कीमती कालीन पर पेशाब कर जाता था.....

प्रो.मिश्रा शौकीन तबीयत के आदमी थे. सो अँग्रेजी विभाग में अपने चेम्बर को खूब आकर्षक रंग-रूप दे रखा था...एक रोज़ जब विभाग में पहुचे तो देखा कि उनकी टेबल के ठीक सामने हरे रंग की कालीन पर फाइन आर्ट टाइप का एक धब्बा बना हुआ है. चपरासी को बुलाकर पूछा----" ये धब्बा कैसा है यहाँ पर ? ".....
चपरासी कुछ सकपकाते हुए बोला----" साहब पानी का होगा.".....प्रो.मिश्रा ने उँगलियों से धब्बे को दबाया और सूँघकर बोले----" बेवकूफ , पानी का नही पेशाब का धब्बा है !"

उस दिन से रोज़ कोई उनके पहुँचने से पहले कलीन पर पेशाब कर जाता था. विभाग का दरवाज़ा खोलकर , चपरासी साफ-सफाई के बाद जब पानी लेने चला जाता, इसी बीच कोई आकर ये कारनामा कर जाता....

प्रो.मिश्रा ने तंग आकर पेशाब करने वाले को पकड़ने की योजना बनाई...

एक दिन वो अपने समय से काफी पहले विभाग पहुँच गये.दरवाज़ा उन्होने खुद खोला, और जाकर आल्मारी के पीछे छुप गये....लगभग पौन घंटा बाद एक आकृति ने उनके कमरे में प्रवेश किया....इधर-उधर देखकर आकृति विभागाध्यक्ष के टेबल के सामने बैठ गई.....और जब उठी तो वहाँ पर अमीबा की तरह का एक गीला धब्बा बन गया था.....

आकृति जाने को ही थी कि प्रो. मिश्रा आल्मारी के पीछे से कूद पड़े----" मिसेज़ तिवारी आप !! ये क्या करती हैं आप !!!"....
असिस्टेन्ट प्रो., मिसेज़ तिवारी अवाक् रह गईं थीं...सर..सर.. करते हुए सर्रर्रर्रर्र.....से बाहर भागीं......

माज़रा ये था कि प्रो. मिश्रा चाहते थे कि मिसेज़ तिवारी मातहत होने के नाते उन्हें अपना प्रेम-पात्र बनायें, जबकि मिसेज़ तिवारी अपना बसन्त रसायन विभाग के विभागाध्यक्ष पर लुटा रही थीं....बहुत समझाने-बुझाने के बाद भी जब मिसेज़ तिवरी नहीं समझीं तो प्रो. मिश्रा ने उनकी वेतनवृद्धि में अड़ंगा लगा दिया था....खिसियाकर मिसेज़ तिवारी ने उनके चेम्बर में पेशाब करना शुरू कर दिया.

कहानी खत्म कर बेताल ने प्रश्न पूछा-----" अब तू ही बता विक्रम ! असली अपराधी कौन है, मिसेज़ तिवारी--कि प्रो. मिश्रा ?? "

Thursday 9 June 2011

राजनीति का अनुलोम-विलोम



कुछ दिनों से देश की राजनीति बेहद सक्रिय अवस्था में है. जैसे कोई सुप्त ज्वालामुखी फिर से सक्रिय हो गया हो.पहलवानों ने अपने मुगदर,डंडे निकाल लिए हैं.जो इधर-उधर कहीं थे,उन्होंने अपने दीगर काम फिलहाल मउल्तवी कर दिए हैं.पूरी एकाग्रता के साथ सब अखाड़े में आकर जम गये हैं.

यूँ तो हमारे देश में नेताओं के पास ज़्यादा काम होता नहीं, क्योंकि जो असल चुनौतियाँ हैं उनसे कोई मुठभेड़ नहीं करना चाहता.इसलिए ज़्यादातर समय नेतागण खाली बैठे रहते हैं.अपने इसी खालीपन को भरने के लिए ये लोग अपने जन्मदिन इत्यादि के बहाने कभी-कभी सुर्खियों में आने की कोशिश करते रहते हैं.चूँकि हमारे देश में, किसी और देश की तुलना में महापुरुष ज़्यादा पैदा होते हैं,अतः किसी न किसी का जन्मदिन या पुण्यतिथि पड़ती ही रहती है.यही वह सुअवसर होते हैं जब हमारे राजनीतिज्ञों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलता है.

लेकिन पिछले कुछ समय से एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ होती गयीं कि सारे राजयोगी जीवित हो उठे.पक्ष हो या विपक्ष, सबके पास काम आ गया.पहले 2जी घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की मुश्कें कसीं, फिर पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए,34 साल पुरानी वाम दलों की सरकार ढहाकर ममता दी नें अपनी सरकार बनाई,अन्ना हजारे अचानक भ्रष्टाचार के खिलाफ धरने पर बैठ गये तो पक्ष-विपक्ष दोनो हड़बड़ा गए.और फिर कुछ दिनों से काले धन के मसले पर सरकार को खुजली करने वाले योग गुरु बाबा रामदेव का धरनाहुआ,लाठीचार्ज,जूतमपैजार,चीरहरण इत्यादि,भारतीय राजनीति की सभी लीलाएँ देखने को मिलीं.इन सब अवसरों में ये स्पष्ट हुआ कि हमारी राजनीति दोमुही नहीं कई मुह वाली है.ऐसे एसे पैंतरे देखने को मिल रहे हैं कि जनता अपना दुख-दर्द भूलकर इन करतबबाज़ों की तमाशबीन बन गई है.उसे कुछ वैसा ही रस मिल रहा है जैसे सांप और नेवले का खेल देखते हुए मिलता है. यही हमारे नेताओं की खूबी भी है कि जब भी जनता कराहती है ये उसे कोई न कोई तमाशा दिखाने लगते है.

बात शुरू करते हैं बाबा रामदेव के आन्दोलन(?) से. पिछले चार-पांच सालों में देश में योग-क्रान्ति कर चुके बाबा रामदेव को न जाने किस महत्वाकांक्षा ने इतना प्रेरित किया कि उन्होंने भ्रष्टाचार मिटाने का बीड़ा उठा लिया.फिर जो कुछ हुआ और हो रहा है,वह सब तो आप भी देख रहे हैं.इस पूरे घटनाक्रम में जो राजनीतिक पैंतरेबाज़ी है वह बड़ी दिलचस्प है.

सोनिया गांधी को चारों ओर से गालियाँ दी गईं.लोगों ने मज़े ले-लेकर कहा कि सोनिया की सरकार ने बड़ी मूर्खता कर दी बाबा को पिटवाकर,अब सरकार का बचना मुश्किल है.पर आप गौर से देखेंगे तो आपको लगेगा कि सोनिया गांधी वर्तमान भारतीय राजनीति की चाणक्य हैं. कुछ समय से काले धन और भ्रष्टाचार के मसले पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर अन्ना, बाबा और देश की जनता ने यूपीए सरकार का जीना हराम कर रखा था.सरकार के पास इनके सवालों के कोई ज़वाब नहीं थे.सरकार इसलिए भी ज़्यादा परेशान थी कि ये सवाल विपक्षी दलों की ओर से नहीं बल्कि आम युवा और न्यायपालिका की ओर से आ रहे थे.विपक्ष से निपटना तो उनको आता है क्योंकि उसकी सीमाएँ वो जानते हैं.

सत्ताधारी यूपीए सरकार बहुत समय से इस प्रयास में थी कि किसी तरह से भ्रष्टाचार की जनता की लड़ाई, सत्तापक्ष और विपक्ष की लड़ाई में तब्दील हो जाये. ऐसा होने पर उसे कई फायदे थे. मुख्य मुद्दे से जनता का ध्यान हट जाता, कार्यकर्ता ऐसे ही समय में एकजुट होते हैं.अगले चुनाव की तैयारी के लिहाज से यह काफी सुखद माहौल होता. दूसरे वो ये भी जानते हैं कि काले धन और भ्रष्टाचार पर विपक्ष खुलकर कभी भी सामने नहीं आ सकता क्योंकि उसके दामन पर कम दाग नहीं हैं.
राजनीति में कच्चे बाबा रामदेव की अदूरदर्शिता ने कांग्रेस को वह अवसर दे दिया जिसकी तलाश में वे थे.लाठीचार्ज से पैदा हुई भावुकता में भाजपा, आरएसएस और दूसरे विपक्षी दलों के शामिल हो जाने से मुख्य मुद्दा नेपथ्य में जाता हुआ दिख रहा है और लड़ाई पक्ष-विपक्ष की बनती जा रही है.सबसे मज़े कि बात ये है कि इस लड़ाई में कोई सूत है न कपास, बस जुलाहों में लट्ठमलट्ठ मची हुई है.

कुछ समय पहले लिखी गई मेरी यह कविता पढ़िये और देखिए कि यह अब भी प्रासंगिक है या नहीं---- राजयोगी क्षमा करें किन्तु..

यह समय
एकता का नहीं, गठबंधन का है
जैसे लाल मिर्च का
काली मिर्च से गठबंधन
चील का बाज़ से,
जैसे करांयत का गठबंधन अजगर से.

सरकारें
एक जादूमेडली की तरह
आती हैं मंच पर
एक पुरुष जादूगर
अपनी छातियों से
एक बच्चे को
दूध पिलाने का भ्रम उत्पन्न करता है
दर्शकगण ताली बजाते हैं
भूखा बच्चा लौटकर
माँ की छाती से लिपट जाता है.

पलक झपकते ही हमारा श्वेत आराध्य
श्यामवर्णी हो जाता है
अपनी स्वाभाविक बेशर्मी
और नायाब तरीकों के साथ.

विज्ञान और कला
दोनो से इनका सीधा जुड़ाव है
जातिगत जनमत का
विज्ञान विकसित करने वाले,
पीठ पर पर वार कर सकने को
अनिवार्य कला मानते है.

सारे दल मिलकर
न्यूनतम साझा कार्यक्रम भर बना सकने की
अधिकतम योग्यता में सिमटते जा रहे है.

इस समय जो पक्ष में नहीं है
वह निरापद है
जिन्हें होना चाहिए था विपक्ष में
वे एक आत्मघाती ठंडेपन
और मुर्दा हँसी के साथ
लोकतंत्र की आखिरी हिचकी की प्रतीक्षा में हैं.

ठीक इसी समय
एक कविता
गठबंधन में शामिल होने से इनकार करती है.

Wednesday 8 June 2011

" राजयोगी क्षमा करें किन्तु..."



यह समय
एकता का नहीं, गठबंधन का है
जैसे लाल मिर्च का
काली मिर्च से गठबंधन
चील का बाज़ से,
जैसे करांयत का गठबंधन अजगर से.

सरकारें
एक जादूमेडली की तरह
आती हैं मंच पर
एक पुरुष जादूगर
अपनी छातियों से
एक बच्चे को
दूध पिलाने का भ्रम उत्पन्न करता है
दर्शकगण ताली बजाते हैं
भूखा बच्चा लौटकर
माँ की छाती से लिपट जाता है.

पलक झपकते ही हमारा श्वेत आराध्य
श्यामवर्णी हो जाता है
अपनी स्वाभाविक बेशर्मी
और नायाब तरीकों के साथ.

विज्ञान और कला
दोनो से इनका सीधा जुड़ाव है
जातिगत जनमत का
विज्ञान विकसित करने वाले,
पीठ पर पर वार कर सकने को
अनिवार्य कला मानते है.

सारे दल मिलकर
न्यूनतम साझा कार्यक्रम भर बना सकने की
अधिकतम योग्यता में सिमटते जा रहे है.

इस समय जो पक्ष में नहीं है
वह निरापद है
जिन्हें होना चाहिए था विपक्ष में
वे एक आत्मघाती ठंडेपन
और मुर्दा हँसी के साथ
लोकतंत्र की आखिरी हिचकी की प्रतीक्षा में हैं.

ठीक इसी समय
एक कविता
गठबंधन में शामिल होने से इनकार करती है.

Friday 3 June 2011

विक्रम और बेताल : " प्रो. साहब का मुहावरा "

रात्रि के घनघोर अंधकार में राजा विक्रम एक बार फिर श्मशान जा पहुचा. बेताल बड़ी व्यग्रता से उसकी प्रतीक्षा करता हुआ पेड़ के नीचे तम्बाकू मलते हुए बैठा था. उसे भी विक्रम के साथ इस खेल में मज़ा आने लगा था.विक्रम की आहट पाते ही वह फुर्ती से उठा और पेड़ पर उल्टा लटक गया.
राजा विक्रम आया. वह गमछे से अपना पसीना पोंछ ही रहा था कि बेताल कूद कर उसकी गर्दन से लटक गया. विक्रम उसे लादकर चल पड़ा.....

>बेताल ने कहानी शुरू की-----

राजन ! एक शहर के एक नामचीन महाविद्यालय में हिन्दी साहित्य के एक व्याख्याता थे...मीठी वाणी बोलते थे. अपने मेनिफेस्टो में कम्युनिस्ट थे, पर निरापद थे....अध्यापन,संगोष्ठियों,उत्तर-पुस्तिकाओं की जाँच और प्रश्न-पत्रों की सेटिग में ही रमे रहते थे. इस कार्य मे उनके नाबालिग कम्युनिस्ट शिष्य उनकी भरपूर मदद किया करते थे......

सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था, कि पिछले बरस, बी.ए. तृतीय वर्ष का हिन्दी का पेपर सेट करने का ज़िम्मा विश्वविद्यालय ने उन्हे दे दिया. प्रो. साहब के लिए यह कोई नयी बात नहीं थी...लेकिन इस बार वे कोई नवाचार करने के मूड में थे.....सो एक नाबालिग शिष्य की सलाह पर प्रश्न-पत्र के खण्ड-स में उन्होने एक प्रश्न दिया-----
---- " हँसी तो फँसी "----इस मुहावरे का अर्थ बताते हुए, वाक्य में प्रयोग कीजिये ।

परीक्षा में जब पेपर छात्रों को दिया गया तो कुछ धार्मिक किस्म के छात्र इस मुहावरे को लेकर भड़क गये...बात तुरंत प्रो.साहब के विरोधियों के मार्फत कुलपति तक और फिर राज्यपाल तक पहँच गयी....थोड़ी-बहुत औपचारिकताओं के बाद प्रो.साहब पेपर सेट करने के अयोग्य घोषित कर दिये गये. साथ ही चरित्र-परिष्कार करने की चेतावनी भी दी गई....

कहानी खत्म कर बेताल ने अपना प्रश्न किया---"-अब तू बता विक्रम ! इसमें प्रोफेसर साहब की क्या गलती थी ?? "

Wednesday 1 June 2011

देखते जाइये...

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करते-धरते हो गया..

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शेर को रोते देखा है आपने..!!

(सफेद शेर मोहन की स्मृति में)

उसका नाम मोहन था.उसने दुनिया को ‘रीवा’दिया.वह शेर था..सफेद शेर ! राजा था जंगल का.ये एक शेर के ही बूते की बात हो सकती है कि वह एक नामालूम सी छोटी जगह को दुनिया के नक्शे में जगमग कर दे.जंगल के इस राजा को दुनिया के सामने लाने वाला भी एक राजा ही था.

ये कारनामा किया था रीवा राज्य के तत्कालीन नरेश महाराज मार्तण्ड सिंह ने. उन्होने रीवा राज्य के बरगड़ी जंगल(वर्तमान मे सीधी जिले के गोपद बनास तहसील में) से सफेद शेरों के वंशज को, 27 मई,1951 को पकड़ा था.उस समय वह 9 माह का था. नाम रखा मोहन.उसे गोविन्दगढ़ किले में रखा गया.महाराजा ने सफेद शेर की वंशवृद्धि के प्रयास शुरू किया...राधा नाम की शेरनी को मोहन के साथ रखा गया...अन्तत: 30 अक्टूबर 1956 को मोहन और रामबाई नामक शेरनी के सम्पर्क से सफेद रंग के एक नर और तीन मादा शावकों का जन्म हुआ...9 अगस्त 1962 को दो सफेद शेर कलकत्ता भेजे गए, 1962 मे ही एक-एक अमेरिका और इंग्लैण्ड के चिड़ियाघर भेजे गये.

मोहन ने 18 दिसंबर 1967 को अंतिम सांस ली.उसका राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार किया गया. मोहन का सिर आज भी बाघेला म्यूजियम,रीवा में संरक्षित है.

रीवा के लोग इस बात पर गर्व करते रहे हैं कि उन्होने दुनिया को सफेद शेर दिया.....तो रीवा के शेर और शेरनियों आज आप जहां भी हों, लोगों को बताइये कि हम हैं...!! यूँ तो रीवा को राष्ट्रीय पहचान देने वाले कुछ और शेरों को आप जानते हैं.तानसेन रीवा राजघराने के गायक थे.बीरबल भी कथित तौर पर रीवा के ही बताये जाते हैं.इन दोनों शेरों को दिल्ली के सम्राट अकबर ने पहले अनुनय-विनय और फिर धमकी देकर अपने दरबार मे बुला लिया था.

लेकिन सफेद शेर मोहन ने रीवा की पहचान विश्वस्तर पर बनायी.वह रीवा वासियों के लिए सिर्फ एक शेर नहीं है.वह रीवा की अस्मिता है.वह यहाँ की पहचान है.मोहन इस छोटे से पिछड़े हुए जनपद का अभिमान है.वह इस अविकसित भू-भाग का अप्रत्याशित विस्तार था.

दरअसल मोहन और उसके वंशज,जिन्हें हम शेर कहते हैं,प्राणिविज्ञान में उन्हे बाघ कहा जाता है.शेर सामान्यत: उन्हें कहा जाता है जिनके सिर और चेहरे पर लम्बे बाल होते हैं.बाघ की बनावट इनसे अलग होती हे.बाघ दुनिया का सबसे ताकतवर प्राणी माना जाता है.रीवा से सफेद शेर चले गये,यह रीवा का दुख है, लेकिन पूरे देश में बाघ खत्म होने की कगार पर हैं-यह एक आपदा के संकेत हैं.

जिस देश के चप्पे-चप्पे से बाघों की दहाड़ सुनाई देती थी,उसी देश में वर्ष 2010 तक केवल 1412 बाघ बचे थे.यह संख्या भी कोई विश्वसनी. नहीं थी.अनुमान की एक छोटी सी रस्सी को इसमें भी पकड़ कर रखा गया है. 19वीं शताब्दी में भारत में लगभग 45,000 बाघ थे.तब उनकी संख्या को लेकर किसी का ध्यान नहीं था.यह स्वाभाविक भी था.आपका पेट भरा हो तो आप रोटियाँ नहीं गिनते.20 वीं शताब्दी में1972 तक आते-आते अचानक पता चला कि पूरे देश में अब केवल 1,827 बाघ ही बचे हैं.

देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की चिन्ता के मद्देनज़र,स्वतंत्र भारत की पहली व्यवस्थित वन नीति बनाने की कवायद चल रही थी.उसी दरम्यान यह तथ्य सामने आया की बाघों की संख्या में डरावनी कमी हो गयी है.1972 में वन्य जीव संरक्षण कानून बना दिया गया,और उसके अगले ही साल 1973 में,बाघों को बचाने के लिए एक अलग दीर्घकालिक योजना ‘प्रोजक्ट टाइगर’ के बनायी गई.बाघों के संरक्षण के लिए भारी भरकम बजट और अधिकार के साथ इसकी शुरुआत के लिए पलामू अभयारण्य को चुना गया.उसके बाद देश के कई अन्य राष्ट्रीय उद्यानो और अभयारण्यों को टाइगर रिज़र्व के नाम से बाघों के लिए आरक्षित कर दिया गया.इन आरक्षित क्षेत्रों में बाघों के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर कठोर सज़ा का प्रावधान रखा गया.प्राणिविज्ञानियों,चिकित्सकों और प्रशासकों का एक अमला बाघों के संरक्षण और संवर्धन के लिए तैनात कर दिया गया.

लेकिन मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा दी.इस पूरी कवायद का नतीज़ा ये निकला कि वर्ष 2010 तक आते-आते बाघों की संख्या इतनी कम हो गयी कि उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है.और यह पक्के तौर पर कहा जाने लगा कि दो-चार सालों में इस देश से बाघ पूरी तरह से खत्म हो जायेंगे.म.प्र.,पूरे देश में सर्वोधिक बाघ हुआ करते थे,वहाँ की सरकार को ठीक-ठीक यह भी नहीं मालूम कि इस प्रदेश मे अब कितने बाघ बचे हैं.शिकारियों और अक्षम प्रशासकों के नापाक गठजोड़ ने इस देश में बाघों के अस्तित्व को लगभग खत्म होने हद तक पहुँचा दिया है.हालांकि वर्ष 2011 में एक सुखद सूचना आयी है कि बाघों की संख्या में लगभग 20 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है,पर यह ख़बर कितनी विश्वसनीय है इसकी पुष्टि नहीं हुई है.

हम गौरव,अस्मिता और पहचान की बात छोड़ दें, तो पर्यावरणीय दृष्टि से भी बाघों का खत्म होना देश के लिए एक भयंकर दुर्घटना होगी.इन्हें बचाने के लिए हमारी रणनीति किसी आपदा से निपटने जैसी ही होनी चाहिए.

आज सफेद शेर मोहन के वंशज दुनिया भर में हैं...नहीं हैं तो सिर्फ रीवा में.जिस धरती से सफेद शेर ने अपनी यात्रा शुरू की वह धरती ही उससे छूट गयी.उसने विश्व को जीत लिया, पर अपनी ही जन्मभूमि को हार गया.वो शेर था तो क्या हुआ..अपनी धरती से निर्वासित होने पर शेर भी रोते होंगे...क्या आपने किसी शेर को रोते देखा है !! कभी सुनी हैं उसकी हिचकियाँ ?? विख्यात कवि केदारनाथ सिहँ की ‘बाघ’ श्रृखला की एक कविता ज़रूर पढ़नी चाहिए----

ये आदमी लोग
इतने चुप क्यों रहते हैं आजकल---
एक दिन बाघ ने लोमड़ी से पूछा
लोमड़ी की समझ में कुछ नही आया
पर उसने समर्थन में सिर हिलाया
और एक टक देखती रही बाघ के जबड़ों को
जिनसे अब भी खून की गंध आ रही थी.
फिर कुछ देर बाद कुछ सोचती हुई बोली
“कोई दुख होगा उन्हें”

“कैसा दुख ?”---
बाघ ने तड़पकर पूछा

“यह मैं नहीं जानती पर दुख का क्या !
वह हो ही जाता है कैसे भी “
लोमड़ी ने उत्तर दिया.

“हो सकता है
उन्हें कोई कांटा गड़ा हो !”
बाघ ने पूछा.

“हो सकता है
पर हो सकता है आदमी ही
गड़ गया हो कांटे को “
लोमड़ी ने धीरे से कहा.

अबकी बाघ की समझ में कुछ नहीं आया
पर समर्थन में
उसी तरह सिर हिलाया
फिर धीरे से पूछा
“क्या आदमी लोग पानी पीते हैं ?”

“पीते हैं---लोमड़ी ने कहा---
पर वे हमारी तरह
सिर्फ सुबह-शाम नहीं पीते,
दिन भर में जितनी बार चाहा
उतनी बार पीते हैं “

“पर इतना पानी क्यों पीते हैं
आदमी लोग ?”
बाघ ने पूछा.

“वही दुख---मैने कहा न !”
लोमड़ी ने उत्तर दिया.

इस बार फिर
बाघ की समझ में कुछ नहीं आया
वह देर तक सिर झुकाए
उसी तरह सोचता रहा.

यह ‘दुख ‘ एक ऐसा शब्द था
जिसके सामने बाघ
बिल्कुल निरुपाय था.