अनेक आशंकाओं के बीच वर्ष 2012 में भारत के लिए सबसे बड़ी दुर्घटना यह हो सकती है कि भ्रष्टाचार के
ख़िलाफ़ जो मानस तैयार हुआ है देश में, उसका
कोई खेवनहार न मिले और वह मझधार मे ही डूब जाये. पिछले कुछ महीनों में अन्ना हजारे
और उनकी टीम की विश्वसनीयता जिस तरह से क्षतिग्रस्त हुई है, उसके ठीक होने के कोई आसार नहीं दिखते.
अन्ना भी थके हुए से दिख रहे हैं, और
पराजय की हताशा उनके चेहरे और बयानों में साफ देखी जा सकती है.
भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना ने जब पहल की
तब उन्हें भी यह आभास न रहा होगा कि उनके समर्थन में देश भर से इतनी आवाज़ें साथ
हो लेंगी. उनके सहयोगियों और देश की जनता ने उन्हें दूसरा गांधी कहना शुरू कर
दिया. मुझे लगता है कि गांधी की उपाधि, अन्ना
और आन्दोलन के लिए ख़तरनाक साबित हुई. अन्ना गांधी नहीं थे और न हो सकते हैं. ठीक
वैसे ही,भ्रष्टाचार के
ख़िलाफ़ यह आन्दोलन, आज़ादी के आन्दोलन
से बहुत अलग है. आज़ादी की लड़ाई में हमारा दुश्मन स्पष्ट था और हमसे अलग था.
अँग्रेज सरकार के अत्याचार और हमारी गरीबी इतनी बढ़ गई थी कि उन्हें भगाने के
अलावा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था.
लेकिन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जो आन्दोलन
शुरू हुआ उसके अपने अंतर्विरोध हैं. सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इस लड़ाई में
हमें अपने आप से ही लड़ना है. दुश्मन हमारे भीतर और हमारी बिरादरी का ही है. खुद
के ख़िलाफ़ लड़ना शायद दुनिया की सबसे कठिन लड़ाई होती है. खुद को जीतना सभी
लड़ाइयों का अंत भी होता है. एक लहर और उन्माद में जो लोग अन्ना की मुहिम
में शामिल हो गये ,
भ्रष्टाचार
उन्हीं सबके बीच फलता-फूलता है. तम्बू गाड़कर और अन्ना टोपी लगाकर नारे लगाते जिन
लोगों को आपने देखा है, उनमें अपराधी, चोर, घूँसखोर, दलाल आदि अवश्य दिखे होंगे. अब आप सोचिए इनकी
आवाज़ और नारों का क्या अर्थ रह जाता है.
एक बहुत बड़ा फर्क यह है कि आज़ादी के
आन्दोलन का कोई राजनीतिक विरोध नहीं था. राजनीतिक दल आन्दोलन के साथ थे, भले ही नेतृत्व काँग्रेस के हाथ में था.
लेकिन अन्ना के आन्दोलन में भारत का पूरा राजनीतिक तंत्र ही विपक्ष में है.
भ्रष्टाचार के विरोध से शुरू हुआ आन्दोलन, आज पूरी तरह से राजनीतिक व्यवस्था के विरोध का
आन्दोलन बन गया है. यद्यपि यह प्रबल जन भावना है कि भ्रष्टाचार का केन्द्र राजनीति
ही है, जिसे अभी तक किसी
रिक्टर पैमाने पर नापा नहीं जा सका है. सीधे राजनीति से मुकाबिल आ जाना ही अन्ना
और उनकी टीम के लिए विनाशकारी साबित हुआ.
और फिर भारतीय राजनीति ने अपना कमाल
दिखाया. उसने अन्ना को सत्तारूढ़ काँग्रेस का विरोधी दिखा दिया और भाजपा-संघ को
अन्ना का समर्थक. अन्ना ये दोनों ही स्थितियां न चाहते रहे होंगे. लेकिन वो
राजनीति के जाल में फँस गये. अन्ना के साथ जुटी भीड़ को देख कर विपक्षी दलों का
लालच समझना आसान है. भाजपा ने हर संभव कोशिश की कि अन्ना का आन्दोलन अपहरित हो
जाये. लेकिन लोकपाल के मुद्दे पर वो देश की जनता के साथ विश्वसनीयता और मजबूती से नहीं खड़ी हो सकी. दरअसल कोई भी
राजनीतिक दल अपने गिरेबान में न खुद झाँकना चाहता था न जनता को झाँकने देना चाहता था.
अन्ना के साथ भाजपा-संघ के होने को , सत्तापक्ष ने इस तरह से प्रचारित किया
जैसे यह कोई बहुत बड़ा अपराध हो. सत्तापक्ष की कोशिश थी कि अन्ना के आन्दोलन को
साम्प्रदायिक रंग दिया जा सके. उनकी यह कामयाब रणनीति है. वो विपक्ष की किसी भी
कोशिश को साम्प्रदायिक बताकर पहले भी निष्फल करते आए है. यद्यपि अन्ना राजनीति के
माहिर नहीं हैं, पर सत्तापक्ष की इस
चाल को वो शुरू से ही समझ रहे थे. इसीलिए उन्होने भाजपा-संघ से एक उचित दूरी हमेशा
बनाए रखी.
विपक्षी दलों की बड़ी हास्यास्पद स्थिति
थी. वो बाहरी तौर पर तो भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकना चाहते थे लेकिन सत्तापक्ष की ही
तरह अपने गले में घंटी बंधवाने से बचते भी रहे.संसद में जब लोकपाल विधेयक पर
उठापटक शुरू हुई तो सबकी लुंगियां उठ गईँ, और पूरे देश ने देखा कि कितने नर हैं और कितने
मादा. भारत के संसदीय इतिहास में नौवीं बार लोकपाल विधेयक लाया गया था, और उसका हश्र लगभग एक जैसा ही रहा. सारे
दिखावों के बावजूद चूँकि लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट काँग्रेस के मुताबिक ही हुआ, इसलिए बाकी लोगों में असंतोष पैदा हुआ.
संसद में जब पक्ष-विपक्ष लड़ रहे थे तो अन्ना और देश की जनता लाचार नज़रों से यह
तमाशा देख रही थी.
और फिर अन्ना गांधी भी तो नहीं हैं. हालांकि
मुझे संदेह है कि गांधी भी आज इस आन्दोलन का नेतृत्व करते तो स्थितियां कुछ अलग न
होतीं. गांधी जी जब भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े तो वो अपने सारे
अस्त्र-शस्त्र ईज़ाद कर चुके थे. दक्षिण अफ्रीका उनकी प्रयोगशाला थी. सफलता और
असफलता को कैसे पचाना है,
इसका
अभ्यास वे दक्षिण अफ्रीका में ही कर चुके थे. अपमान को सहेजना और उचित समय
पर उसका आयुध के रूप में प्रयोग करना गांधी जी बखूबी जानते थे. गांधी जी के आत्मबल
का कायल पूरा विश्व था. गांधी जब आये तो अपना एक समृद्ध दर्शन लेकर आये. उनका
वैचारिक आधार अत्यन्त सुदृढ़ था.
लेकिन अन्ना के पास न तो उतना धैर्य है, न आत्मबल और न कोई वैचारिक दर्शन. विधि और
संसदीय प्रकृयाओं की उनकी जानकारी भी कम ही लगती है. इसीलिए वो अपनी टीम पर बहुत
ज़्यादा निर्भर रहते हैं. इन दिनों तो ऐसा दिखने लगा है कि जैसे वो अपने साथियों
के हाथों खेल रहे हैं. उनके सहयोगियों के सरकार के साथ संबन्ध पहले से ही कटु रहे हैं. इस
कटुता को आन्दोलन के परदे में भुनाने की कोशिशें भी दिखती हैं. अन्ना अगर गांधी
होते तो यह कभी न कहते कि संसद में बैठे हुए सब चोर हैं, या कि लोकपाल को राहुल गांधी के इशारे पर कमज़ोर
किया जा रहा है. गांधी काँग्रेस को हराने के लिए प्रचार करने का भी निर्णय न लेते.
1 comment:
Gandhi ki tulna kisi se nahin ho sakti
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