यद्यपि आज हम जिस तरह के समय में रह रहे हैं उसमें हमारे व्यक्तिगत कौशलों का बुरी तरह से विनाश हुआ है. बाज़ार की संस्कृति का आक्रामक प्रसार हुआ. महानगरीय जीवन शैली की मृग-मारीचिका में छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों के लोग भटक गयें. महानगर हमारी आधुनिक सभ्यता की देन हैं. उनकी अपनी कोई संस्कृति और परंपरा नहीं होती. उनकी जड़ों को हम खोजने जायें तो ज़्यादा दूर तक नहीं जा पायेंगे. दरअसल महानगर ऐसे लोगों का समूह हैं जो अपनी संस्कृति और अपनी स्मृति से कट कर आये होते हैं. इनके पास भी यही पर्व-त्यौहार हैं, लेकिन उनके प्रवाह और परंपरा का बोध नहीं है. इन लोगों के पास पर्वों का उत्सव-पक्ष तो होता है, लेकिन उनसे जुड़े मूल्यों से अनजान होते हैं.
महानगरों और शहरों के निर्माण में सामाजिक
कारणों से ज़्यादा आर्थिक कारणों की भूमिका होती है. उत्पादन के साधनों की
केन्द्रीयता, धन की प्रवाहशीलता, श्रम की उपलब्धता, और विपणन की बहुआयामितता के
कारण शहरीकरण बढ़ा है. लोग शहरो और महानगरों की ओर इसलिए भी भाग रहे हैं कि वहाँ
जकड़न कम है. वहाँ जाति व्यवस्था ढीली है. धार्मिक और जातीय परंपराओं के आग्रह कम
हैं. शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के कारण शहरों में अंधविश्वास कम हैं.
रूढ़ियों से मुक्त होने ते पर्याप्त अवसर हैं शहरों में. शहरों और महानगरों में
जीवन का चरम उद्देश्य या इसे चरम मज़बूरी कह लें, धन उपार्जन होता होता है. इसीलिए
यहाँ धर्म-जाति-सम्प्रदाय-छूत-अछूत आदि के आग्रह हाशिए पर चले जाते हैं.
लेकिन यह प्रवाह एकतरफा नहीं होता. जिस तरह
से लोग गाँवों और कस्बों से नगरों और महानगरों की ओर गए, उसी तरह कुछ चीज़ें
महानगरों से गाँव-कस्बों की ओर भी आयीं. इनके संवाहक बने संचार के आधुनिक साधन.
हमारे ग्रमीण भारत में समृद्धि तो नहीं पहुँची लेकिन उनके श्वेत-श्याम और मटमैले
परिवेश में रंगीन ज़िन्दगी के स्वप्न पहुँच गये. सपने अक्सर मोहक होते हैं.
महानगरों से पहुँते इन रंगीन सपनों ने ग्रामीण और कस्बाई जीवन में ऐसी अदम्य
लिप्सा पैदा की कि वो लगातार हीनग्रन्थि के शिकार होते गये. इसकी प्रतिक्रिया में
ग्रामीण समाज अपनी जड़ों को छोड़ने के लिए उद्धत हो उठा, और कल तक जो जीवन्तता,
बेफिक्री और सहकारिता उनकी पहचान थी, आज वह उनकी स्मृति का हिस्सा बन गई.
यह बदलाव एक तरह से सामाजिक बदलाव तो था ही,
उससे भी अधिक यह एक शैलीगत संक्रमण था. महानगरीय समाज तो होता ही एक विखंड़ित समाज
है. यहाँ अलग-अलग समाजों से पलायन करके लोग आते हैं. यहाँ आने वाले लोगों को उस
विशिष्ट नगर की विशिष्ट जीवन-शैली से अपने आपको अनुकूलित करना होता है. जाहिर है
कि यह विशिष्ट नागर शैली आर्थिक प्रक्रियाओं से निगमित और नियमित होती है.
हम ध्यान से देखें तो भारतीय ग्रामीण समाज में पिछले पचास वर्षों से सामाजिक परिवर्तन के कोई प्राकृतिक लक्षण नहीं नज़र आते. जो परिवर्तन होने थे, वो आज़ादी के बीस-पच्चीस वर्षों में मूर्त हो गये थे. इस दौर में ग्रामीण समाज ने अपनी नष्ट हो चुकी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण किया. शिक्षा उनके पास तक पहुँची. उत्पादन के उनके अपने स्रोत पुनर्जीवित हुए. इन सम्मिलित प्रक्रियाओं से एक ऐसे भारतीय समाज की शक्ल बनी, जिसकी अपनी स्पष्ट देशज पहचान थी.
हम ध्यान से देखें तो भारतीय ग्रामीण समाज में पिछले पचास वर्षों से सामाजिक परिवर्तन के कोई प्राकृतिक लक्षण नहीं नज़र आते. जो परिवर्तन होने थे, वो आज़ादी के बीस-पच्चीस वर्षों में मूर्त हो गये थे. इस दौर में ग्रामीण समाज ने अपनी नष्ट हो चुकी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण किया. शिक्षा उनके पास तक पहुँची. उत्पादन के उनके अपने स्रोत पुनर्जीवित हुए. इन सम्मिलित प्रक्रियाओं से एक ऐसे भारतीय समाज की शक्ल बनी, जिसकी अपनी स्पष्ट देशज पहचान थी.
लेकिन अब जो परिवर्तन ग्रामीण समाज में हो
रहे हैं, वो उनकी अपनी ज़रूरत और उनकी आंतरिक अन्तर्क्रियाओं से नहीं हो रहे हैं.
ये परिवर्तन शहरी समाज के संक्रमण से हो रहे हैं. इसीलिएस्वाभाविक नहीं हैं.
संक्रमण जहाँ भी होता है, वह मौलिक स्थापना में विकृति पैदा करता है. जबकि
स्वाभाविक परिवर्तन में सुसंगति होती है. विकृति और सुकृति में मौलिक अन्तर
अनुपात, समयबद्धता और ज़रूरत का ही तो होता है.
तो, नागर जीवन और ग्राम्य जीवन के मध्य किसी
बिन्दु से मैं एक और दीपावली को आता हुआ देख रहा हूँ. मैं न तो पूरा ग्रामीण रह
गया हूँ और न पूरा शहरी हो पाया हूँ.......मैं शहरी आकांक्षा और ग्राम्य स्मृतियो
के द्वन्द्व की उपज हूँ.......मैं उस मध्यमवर्गीय चेतना का प्रतिनिधि हूँ, जो
महानगरीय संस्कृति और आदिम देसी संस्कृति के परस्पर संक्रमण से निर्मित हुई
है......इसीलिए मेरी विवशताएँ शहरी हैं और मेरी स्मृतियाँ ग्रामीण हैं.......मेरे
आगे की ओर दीपावली के दिखावे और प्रदर्शन-लोलुपता हैं, तो मेरे पीछे श्रम और कौशल
से पैदा होने वाला सुख, अभाव में भी स्वाभिमान से रहने का हौसला और मन एवं जिह्वा
पर देसी व्यंजनों का स्वाद है.
एक मझोले शहर में जवान होने से पहले, मैं एक
सम्पन्न कस्बे का बच्चा था. मेरी पैदाइश और प्राथमिक स्तर की शिक्षा उसी कस्बे की
है. जिन लोगों का बचपन किसी कस्बे में गुज़रा होगा, वे जानते होंगे कि कस्बाई जीवन
कितने बहुरंग अनुभव देता है. मैं जिस कस्बे में रहता था उसमें कई वर्गों और विविध
हुनर वाले लोग थे. एक घनी बस्ती में व्यापारी, शिक्षक, पुलिस, के साथ ही धोबी,
मोची, जुलाहे, दरवेश, सुनार, लोहार, कुम्हार, भुँजवा, दर्जी, बरई, मेहतर, बसुहार,
छक्के, हलवाई और कसाई—सब तरह के उद्यमी थे. इन्हीं सबके बीच खेलते-कूदते मैं भी
बड़ा हो रहा था. यहाँ हमारा कोई स्थायी घर नहीं था. माता-पिता शिक्षक थे. हम
किराये के मकानों में रहते थे. कभी बनियों के टोले में, कभी जुलाहों के टोले में
तो कभी धोबियों के टोले में. इन्हीं दिनों में मैने कपड़े सिलना, बीड़ी बनाना,
ज़ेवर बनाना, पटाखे बनाना, राखियाँ बनाना, बैण्ड बाजा बजाना, ताजिए बनाना, मुर्गे
लड़ाना और कुछ गोपन कलाएँ सीखने की कोशिश की.
मेरा पैतृक गाँव इस कस्बे से दो-तीन मील की
ही दूरी पर था. लेकिन उन दिनों इतनी दूरी भी कठिन होती थी. हम लोग साल में दो बार
छुट्टियों में ही गाँव जा पाते थे. दशहरे से दीवाली तक पच्चीस दिनों की छुट्टियाँ
होती थीं. इन्हें फसली छुट्टी कहा जाता था. इस मौसम में गाँव की खूबसूरती सम्मोहित
कर देने वाली होती थी. खेतों में धान की फसल पक चुकी होती थी. फसल कट कर खलिहान
में रखी जाती. और धान की गहाई चलती रहती. तब बैलों से गहाई का काम होता. हम गाँव
पहुँचते ही बैलों को हाँकने का जिम्मा उठा लेते. धान के गट्ठरों से उठती सोंधी महक
हर समय हमें एक नशे से भरे रहती. सुबह उठकर धूप में सभी बच्चे एक साथ बैठकर
रोटी-दही-मक्खन का कलेवा करते और फिर खेत-खलिहान की तरफ खेलने-कूदने-लड़ने-झगड़ने
निकल जाते.
इसी धानी महक के बीच दीवाली आती थी. घर छूही
या ऊसर की सफेद मिट्टी से पोता जाता. आँगन और दुआर गोबर से लीप दिया जाता. सुबह से
ही बहनें, काकियाँ और अम्मा इस काम में जुट जातीं. तुलसी के चौरे के पास ही
लक्ष्मी-गणेश की झाँकी सजाई जाती. लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा एक-दो दिन पहले ही
मिट्टी से बना ली जातीं. झाँकी सजाने के लिए केले के पत्ते, आम की टेरी, गेंदे के
फूल और कपड़ों आदि के साथ मिले गत्ते के रंगीन डिब्बों का उपयोग किया जाता. घर में
ही खोवा बनाकर उसके पेड़े और बेसन के लड्डू प्रसाद के लिए बनाये जाते. हम बच्चों
का काम फूल इकट्ठा करना होता था. हम दिन भर आस-पास की झाड़ियों में उगी नामालूम
लताओं से फूल चुनते. पटाखे हमारे गाँव के लोग उसी कस्बे से खरीद लाते थे, जहाँ हम
लोग रहते थे. हम अपने पटाखे छुट्टी में आते समय ही खरीद लाते थे. चूँकि मैं पटाखे
बनाने वालों के काम में हाथ बँटा देता था, अतः कुछ पटाखे मुझे मुफ्त में मिल जाते
थे. पटाखों के लिए घर से बहुत कम पैसे मिलते. इतने कम पैसों के पटाखे खरीदते हुए
बहुत शर्मिन्दगी होती थी. बाद में जब हम शहर में आकर बड़े हुए, तब भी इस
शर्मिन्दगी ने पीछा नहीं छोड़ा. हमारे दोस्तों के पापा बड़े-बड़े डिब्बों में भरकर
पटाखे लाते, जबकि हमारे पिताजी जेब मे रख कर पटाखे ला देते.
दरअसल, शहर आकर ही पता चला कि दीपावली दीये
की नहीं, धन की रौशनी का त्यौहार है. हमें यहीं आकर पता चला कि दीपावली में अपनी
हैसियत दिखाने की कैसी होड़ लगती है. घर की सजावट से लेकर प्रसाद तक में अपनी
सम्पन्नता दिखाने की निर्मम कोशिश के बीच, शुरुआती वर्षों में हम सब हक्के-बक्के
रह जाते थे. इस शहरी शैली से सामंजस्य बैठाने में समय लगा. यद्यपि अभी भी हम पीछे
ही रह जाते हैं.
हालाँकि धीरे-धीरे शहर में सारे पर्व औपचारिक
होते गये. हमारा पिछड़ापन और छोटी हैसियत, इस औपचारिकता में ढँक गये. जिस उत्साह
और परंपरा को लेकर हम कस्बे से शहर आये, उसको भूलते जाने में ही स्वाभिमान की
सुरक्षा दिखाई पड़ी. बाज़ार वहाँ भी था और यहाँ भी. फर्क बस इतना था कि वहाँ के
बाज़ार वाले हमारे काका, ताऊ, बुआ, और भैय्या थे. उनसे डर नहीं लगता था. यहाँ के
बाज़ार वाले अजनबी और डरावने थे. वहाँ दीपावली आती नहीं थी, बुलाई जाती थी. यहाँ
दीपावली आ जाती है, और हमें मनाना पड़ता है.
2 comments:
विमलेंदु जी
आपका आलेख बीते हुए समय की हमारी भी यादो को बढ़ा रहा है …
सार्थक लेखन के लिए आभार …
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