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Sunday, 24 February 2013

बजट सत्र के पहले !

भद्रलोक के लिए
एक भदेस टिप्पणी था य़ह दृश्य ।

जब वो बड़ी हड़बड़ी में
निकला था घर से
और सबसे मुस्कुरा के 
बात की थी उसने ।

वह बच्चे के लिए बस्ता खरीदने
जा रहा था ।

पापा उसे बता रहे थे 
कि हमारे कपड़े
पेरिस में धुलने जाते थे,
यह रास्ता काटने का 
उपक्रम रहा होगा ।

बहरहाल !
दूकानदार मुस्कुराने का अभ्यासी था,
इसीलिए मुस्कुरा रहा था ।

उसे एक ऐसा बस्ता चाहिए था
जिसमें सभी किताबों को रखने के बाद
किसी खंधे में उसकी हैसियत भी छुपी रहे ।

बहुत देर बाद
जब दूकानदार ने सुनी उसकी बात
तब तक बच्चा
बैठ चुका था पापा के कंधे पर ।

पिता बस्ते देख रहा था
बेटा उसके बाहर
दूकानदार की नज़र
इनके बीच थी कहीं ।

पिता एक एक बस्ते की कीमत 
कई बार पूछता
बेटा कंधे से उतर गया
दूकानदार मुस्कुराता रहा ।

यद्यपि
पिता ने इस बीच
उन बस्तों को 
बच्चों के लिए उनुपयोगी सिद्ध करने की ग
दयनीय कोशिश की ।

लेकिन ऐसा करते हुए
उसके माथे पर एक रेखा उभर आयी थी ।

पता नहीं
वह रेखा ऊपर थी या नीचे
मगर उसके माथे पर एक ऐसी शिकन थी
कि कमबख्त
गरीबी रेखा लगती थी ।

1 comment:

ANULATA RAJ NAIR said...

आह.....
बेहद मार्मिक......
सीने में दर्द सा पैदा करती हुई रचना....

अनु